सफ़र
सफ़र
बंसरी, चुरू में रहने वाली एक बाईस साल की शादीशुदा लड़की है। कद काठी से छरहरी और रंग में सांवली है पर नैन नक्श तीखे हैं। उसकी खाली आँखें और बेजान मुख मुद्रा देखकर एसा प्रतीत होता है कि कोई किशोर, जवानी अनुभव किये बिना सीधा अधेड़ अवस्था में धकेल दिया गया हो। बंसरी के जीवन में घटे मीठे से ज़्यादा खट्टे प्रसंगों ने उसे स्वयं को एक मानसिक रोगी समझने पर मजबूर कर दिया है। वो सारा दिन सोचती रहती है। सोचना भी ऐसा जिसका कोई निष्कर्ष नहीं, कोई दिशा नहीं, सिवाय खुद को हर वक्त शून्य में तकता पाने के। खुदको इतना अकेला कर चुकी है कि आस-पास की कोई वस्तु या व्यक्ति पर गौर नहीं कर पाती। अपनी छोटी बहन के हँसी-मज़ाक और मनगढ़ंत कहानियों को आधा-अधूरा समझ पाने की वजह से कोई स्पष्ट प्रतिकिया नहीं ढूंढ पाती, बस हल्का सा हँस दिया करती है। माता-पिता भी जितना पूछते हैं उतना ही जवाब देती है, और वे इसकी वजह जानकर भी अनभिज्ञ बने रहते हैं।
आज तीन महीने मायके में गुज़ारने के बाद बंसरी वापस अपने ससुराल जा रही है। यह उसके जीवन की पहली यात्रा है जब वो अकेली सफ़र कर रही है। आलम कुछ ऐसा है कि ना मायके आने की ख़ुशी थी कभी और ना ही ससुराल वापस जाने की उत्सुकता।
चुरू रेलवे स्टेशन पर खड़ी अपनी ट्रेन का इंतज़ार करती बंसरी अब साथ आये परिजनों से विदा लेकर अपने स्लीपर कोच के डब्बे की ओर बढ़ गयी। अपना सामान लोअर बर्थ की सीट के नीचे रख वो खिड़की से झांककर उन्हें जाते देख रही थी। प्लेटफार्म को धीरे-धीरे अपनी नज़रों से ओझल होते देख अन्दर किसी भी तरह का कोई भावावेश नहीं।
अब वो मन में योजना बनाने लगी कि रात में जब सारा कोच सोया होगा, वो दरवाज़े से कूदकर अपनी जान दे देगी। निजात ले लेगी अपनी बोझिल दुनिया से जिसमें उसे सिर्फ ज़िल्लत और अकेलापन मिलना है। जीवन का वैसे भी कोई मकसद नहीं नज़र आ रहा था। शादी के पहले दिन से ही उसका नपुन्सक, मंदबुद्धि पति उसका ऐसा हश्र करता आया था जैसे किसी निर्बोध बच्चे के हाथ में एक नाज़ुक गुड़िया दिए जाने पर होता है। पहले
वो गुड़िया को टटोलता है, दबोचता है, तोड़ता-मरोड़ता है, फिर कुछ देर बाद उससे कोई मनोरंजन न मिलने पर उसे लात से दूर फेंक देता है।
सास-ससुर को बहू के रूप में मिली नौकरानी थी वो, जो सारा दिन छाती से नीचे तक घूँघट चढ़ाकर एक कठपुतली की तरह वो सब किया करती थी जैसा उसे कहा जाता था।
अपने वजूद से कोसों दूर जा चुकी बंसरी अब अपनी देह से दूर जाना चाहती थी, किसी शून्य में।
एसा शून्य, जिसका खालीपन इस ज़िन्दगी से कहीं बहतर होगा। इसी उधेडबुन में उसकी खिड़की से बाहर टिकी आँखों ने अन्दर बैठे यात्रियों पर एक नज़र डाली। सामने की एक बर्थ पर वृद्ध सोया था और दूसरी
खाली थी। ऊपर जैसे ही नज़र गयी तो देखा एक युवक उसकी ओर देख रहा था। एक असहज सी मुस्कान के साथ उसने अपना आँचल सँभालते हुए नज़रें नीचे कर ली और फिर अपने विचारों के जाल में खो गयी। सोचने
लगी मेरे कल सुबह इस दुनिया में ना होने से किसी को कोई फर्क पड़ेगा भी ? ससुराल
पक्ष वालों के लिए तो ये बिना लाठी टूटे साँप मारने जैसी बात होगी। माँ-बाप ने तो उन्नीस की उमर में ब्याह कराकर पिंड ही छुड़ा लिया है, अगर मेरी परवाह होती ही, तो मेरी स्थिति को एक बेज़ुबान जानवर की पीर की
तरह अनसुनी कर मुझे फिर से उस नरक में रहने ना भेजते।
माँ-बाप इसे कहते हैं ? घिन आती है मुझे एसी बेबसी पर। लेकिन अब और नहीं। मुख पर एक मलिन शांति आ गयी, शांति और साहस का ऐसा समन्वय कि स्वयं की जान लेना जीने से ज्यादा सुखकर प्रतीत हुआ।
उसके ख्यालों की लड़ी टूटी जैसे ही ऊपर बैठा लड़का लटकता हुआ ‘धम्म’ से नीचे उतरा। उसने सीट के नीचे घुसी अपनी चप्पल निकाली और डब्बे के टॉयलेट की तरफ मुड़ा। कुछ देर में अपने हाथ-मुंह पोंछता हुआ बंसरी की सीट पर आ बैठा। बंसरी ने अपने सामान से माँ का दिया परांठे का डब्बा बहार निकाला और भारी मन से एक निवाला मुंह में डालने लगी। फिर सामने बैठे युवक की तरफ डब्बा बढ़ाया और उसने बिना ना-नुकुर के एक निवाला तोड़ लिया। दोनों ने एक मुस्कान साझा की और परांठा खाने लगे। युवक ने पूछा- “कहाँ जा रही हैं आप ?”
“बाढ़मेर जाउँगी”, यकायक खुश्क हुए होठों से बंसरी ने कहा।
“अच्छा” आप कहाँ जायेंगे ?
“मैं तो जोधपुर उतरूंगा जी। फलोदी का रहने वाला हूँ और जोधपुर में काम करता हूँ।”
“ओह”
फिर कुछ मिनिटों तक किसी के ना बोलने से पसरे सन्नाटे में ट्रेन की विभिन्न गतियों को आसानी से भाँपा जा सकता था। बची खुची कमी वृद्ध के अगले ही स्टेशन पर उतर जाने से पूरी हो गयी जिसके हलके खर्राटे
कम्पार्टमेंट के यात्रीमय होने की मुहर लगा रहे थे।
“चन्दन नाम है मेरा।” युवा ने बंसरी का नाम जानने की चेष्टा से कहा।
“बंसरी, लंगेरा गाँव के सरपंच की बहू हैं हम” अजीब सा परिचय देकर बंसरी ने आँखे मूँद ली।
चन्दन ने और बात करने के उद्देश्य से दूसरा प्रश्न दागा
“ओह ! तो ब्याह हो रखा है आपका।”
“हाँ, ऐसे ब्याह से तो जौहर अच्छा।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं। ब्याह करना भी कोई गुमान लागे है तुमको ?” बंसरी ने अन्यमनस्क ढंग से पुछा।"
“बिलकुल। मन का साथी ढूंढने से बेहतर भी कुछ होवे है। क्या इस मतलब की दुनिया में ?”
“मन का साथी क्या सबको मिले भी है ?” बंसरी खीज कर बोली।
“हर अच्छी चीज़ मेहनत मांगती है।” चन्दन ने चमकती आँखों से कहा।
बंसरी ने पहली दफ़ा उसकी आखों में देखा। गोरा चिट्टा, गठीले शरीर का था चन्दन, दो क्षण तक चुप रही, फिर पूछा, “ब्याह नहीं हुआ ना तुम्हारा ?”
“नहीं। मेहनत करनी पड़ेगी। बापू तो ला देगा वरना कोई भी बावली।”
दोनों हँस पड़े।
“क्या करते हो आप ?”
“मैं ड्राईवर हूँ, टैक्सी चलाता हूँ शहर में। पता है ना अब तो लोग फोन से ही टैक्सी बूक
करवा लेते हैं शहर में कहीं भी घबमने के लिए, ओला, उबर, बहतेरे नाम हैं।”
“हाँ, पता तो है, टी.वी में देखे थे विज्ञापन जब घर में थी। मोबाइल में भी घंटो गेम्स खेला करती थी बोरियत मिटाने के लिए।”
“ओह आपको तो सब पता है।”
“तो फिर घर से वापस ससुराल लौटने में कैसा महसूस हो रहा है ?” चन्दन ने झेंप कर पूछा।
“ऐसा कि धरती फट जाए और मैं उसमे समा जाऊं।” बंसरी बड़बड़ाई।
“अरे ऐसा क्यूँ कहती हो ? परेशानी है कोई ? बताना चाहो तो बता सकती हो। मन हल्का हो जायेगा।”
बंसरी अपनी व्यथा कहने के मत में नहीं थी, क्यूंकि परेशानी की बात दोहराना उसे फिर जीवंत कर देने के सामान था। और वैसे भी क्या फर्क पड़ता था उसके कहने न कहने से। दुनिया में मरते-जन्म लेते करोड़ों
रेंगते कीड़ों की तरह है उसका जीवन, जो चन्द घंटो में मट्टी में मिलने वाला था।
“खुश नहीं हूँ। ससुराल में कोई सुख नहीं और ना ही मायके में सुकून है।” बंसरी ने बात ख़त्म करनी चाही।
“यही तो जीने की चुनौती है। खुश रहना। तरीके तो हमें ही ढूंढने होंगे, और मेहनत भी हमें ही करनी होगी, क्यूंकि ?”
“बिना मेहनत के अच्छी चीज़ नहीं मिलती” बंसरी ने खिड़की की ओर देखते हुए चन्दन का वाक्य पूरा किया।
चन्दन हँस पड़ा।
फिर चुप्पी छा गई। माहौल को हल्का करने के लिए चन्दन कुछ गुनगुनाते हुए अपनी घडी निहारने लगा और बंसरी अपना नया मोबाइल फ़ोन टटोलने लगी जो उसकी छोटी बहन ने उसे भेंट किया था ताकि अपने ससुराल में अपना मन बहला सके और याद आने पर उससे बात कर सके।
शाम के 8.00 बज रहे हैं। अगले एक घंटे में जोधपुर स्टेशन आ जायेगा। चन्दन बंसरी के बारे में और जानना चाहता था।
“कभी कोई परेशानी हो जीवन में तो मुझे फोन करना। संकोच मत करो, अपना नंबर मत देना, मेरा
नंबर लिख लो।”
चन्दन के बड़ी ईमानदारी से कहे गए इस वाक्य की कदर करते हुए बंसरी ने उसका नम्बर अपने फोन में रख
लिया।
“और क्या करना पसंद है आपको ?”
“मतलब ?”
“मतलब खाना, घूमना-फिरना, टी.वी. देखना, खरीददारी करना ?”
“मुझे हँसना पसंद था बहुत, पर ज़्यादा मौका ही नहीं मिला।” बंसरी ने मृत स्वर में कहा।
चन्दन ने उसके मासूम चहरे की ओर देखा और ख़िसक कर उसके पास आ गया, जैसे उसकी गहरी उदासी और अकेलापन भांप लिया हो। फिर बिना कोई विचार किये उसका सर सहलाने लगा।
बंसरी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ना चौंकी, ना डरी, ना पीछे हटी, ना कोई और संकेत दिया। कुछ ही
क्षणों में बिना कुछ कहे बंसरी का सर चन्दन के काँधे पर था। वातावरण कुछ ऐसा बन पड़ा जैसे कोई बेजान शरीर जर होने से पहले एक अंतिम चेतना महसूस करता हो।
कुछ देर दोनों इसी अवस्था में बैठे रहे। ट्रेन की गति कम हुई। चन्दन को आभास हुआ जोधपुर आने में
है; कुछ और करने की चेष्टा किये बिना वो बंसरी का सर सहलाता रहा। ट्रेन की गति और धीमी पड़ने से इंजन की आवाज़ बढ़ने लगी और बंसरी की जड़ता टूटी। वो उठ कर बैठ गयी।
“मेरा फोन कभी नहीं आएगा तुम्हें, पर थेंक यू, अच्छा लगा तुमसे मिलकर।”
“तुम्हारी मर्ज़ी, पर अपनी ख़ुशी के लिए मेहनत तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी।”
एक और लम्बी चुप्पी।
“तेबीस बरस का हूँ। अकेला रहता हूँ जोधपुर में। हमारे पास कुछ ज़मीन है गाँव में, खेतीबाड़ी से अच्छे से गुज़ारा हो जाता है। मैंने पढाई की है बारहवीं तक। पच्चीस हज़ार कमाता हूँ। किसी लड़की के साथ कोई चक्कर नहीं है। तुम जैसी प्यारी लड़की कोई हो बाड़मेर में तो बताना। अपनी परेशानी सुनाने के लिए नहीं तो मेरा भला करने के लिए ही फोन कर लेना।” चन्दन ने शरारत से कहा।
“ज़रूर।”
“शुक्रिया।” चन्दन सीट से अपना सामन निकालने लगा।
ट्रेन अब लगभग रुक चुकी है, लोगों का चढना-उतरना शुरू हो गया है।
“तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा, तुम भी बहुत अच्छी लगी।”
“तुम भी।” बंसरी ने कहा जो तब तक अपनी चप्पल पहनकर उसे दरवाज़े तक छोड़ने के लिए तैयार खड़ी थी।
दोनों दरवाजे की ओर बढ़े और नीचे उतारकर चन्दन ने बंसरी की ओर हाथ हिलाकर कहा, “अपने ही जैसी कोई ढूंढ देना।”
बंसरी ने भी विदा में हाथ हिलाया और अपनी जगह पर आकर बैठ गयी।
10 मिनट बाद ट्रेन फिर चल पड़ी, जोधपुर स्टेशन से काफी लोग ट्रेन में चढ़े थे और उसके आमने सामने की बर्थ भर गयी थी।
बंसरी मध्यरात्रि का इंतजार करने लगी। उसका मन किया कि फफ़क कर रोये, अपने माता-पिता को फोन करे, बहन से बात करे, बचपन को याद करे और............हँसे। इतना हँसे कि कोई ख्वाहिश पूरी ना होने का ग़म
ना हो।
रात के 2 बज रहे हैं, कम्पार्टमेंट की लाइट बंद है, सहयात्री सो रहे हैं। ट्रेन लेट है। सुबह पाँच बजे बाड़मेर स्टेशन आएगा।
सामान अपनी सीट पर छोड़ बंसरी दरवाज़े की तरफ मुड़ी, गाड़ी हवा से बातें कर रही है। इतनी तेज़ चल रही है कि दरवाज़े से बाहर मुंह निकालो तो गालों पर हवा के भारी थपेड़े पड़ने लगें। ठण्ड है बाहर, दूर-दूर तक बीयाबान; बस रेत ही रेत। बंसरी कांपने लगी, ख्याल करने लगी कि कुछ ही पलों में अपनी पकड़
दरवाज़े के डंडे से छुटते ही वो पटरियों के पास कहीं पड़ी होगी। सर फटा, खून से लथपथ कपडे, शायद एक आध दिन तक कोई सुध ही ना ले ऐसे रेगिस्तान में। शरीर को रात में कुत्ते या भेड़िये काट रहे होंगे और चील-कौवे बचा कूचा मांस नोचने को आमादा होंगे। फिर कुछ दिनों तक मेरे अवशेषों को छोटे कीड़े सड़ायेंगे और अंततः रेत खुद में समा लेगी। और मेरे हर कण का नामोनिशान इस दुनिया से हट जायेगा।
अचानक उसके मुंह से एक दबी सी चीख़ निकली जो कृन्दन में बदल गयी। अपना आधा शरीर दरवाज़े से बाहर निकाले बंसरी रो रही है। सुबक-सुबक कर एक छोटे बच्चे की तरह। हाथों की पकड़ अब छुटने को है। ठंडी हवा को अपनी रूह तक महसूस कर पा रही है वो। बड़ी-बड़ी साँसे ले रही है अब और अचानक से हँस पड़ी
“हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा हाहा” किलकारियां मारकर, पागलों की तरह, अगले कुछ मिनट तक हँसी, और हँसती चली गयी.....जब तक फिर आँखों में आँसू ना भर आये।
उसे ट्रेन की गति धीमी होने का आभास हुआ, उसने दरवाज़े से एक हाथ छोड़ दिया। बाल हवा में हैं और आधे से ज्यादा शरीर बाहर की ओर झुका हुआ।
“कुछ और क्षण महसूस कर ले जीवन के बंसरी, इसे मिटाने में थोड़ी मेहनत तो कर ले।”
“इतना आसानी से नहीं, थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ेगी।”
“मेह..मेहन.....मेहनत तो करनी पड़ेगी”
ट्रेन की गति धीमी हुई, और धीमी होती चली गयी, बंसरी का आधा लटका शरीर, दूसरा हाथ छोड़ नहीं पा रहा।
“कूद पगली, कूद, स्टेशन आने को है, कूद जा” हाथ नहीं छुटा।
ट्रेन की गति अब बहुत धीमी है, वो नहीं कूदी।
पाली स्टेशन आ चूका है। उसने सीट पर आकर अपना सामान उठाया और बिना किसी डर के नीचे उतर गयी।
पूछताछ खिड़की पर गयी और वापसी की अगली ट्रेन की टिकट ली।
बेंच पर बैठी और एक फोन लगाया।
“हेलो, तुम पर विश्वास कर लिया मैंने, अब बताओ कैसे मदद करोगे ?”
“जोधपुर आ जाओ”
दूसरी तरफ़ से चन्दन की आवाज़ आई।
“अगले घंटे में एक ट्रेन है टिकट ले ली है मैंने सुबह 6 बजे तक जोधपुर उतारेगी मुझे, तुम अपनी टैक्सी लेकर आ जाना लेने।"
“हेलो ? हेलो ? सच कह रही हो ? जवाब दो ? ठीक है ? सच में आ जाऊँगा फिर मैं ? हेलो ? हेलो ?”
बंसरी अब भी मुस्कुरा रही है।