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उड़ान

उड़ान

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छोटी-छोटी हथेलियाँ, छोटी सी उँगलियाँ, बंद मुट्ठी, उसमें मेरी उँगली। गुलाबी सा छोटा सा बदन, बङी-बङी आँखें और तीखी सी नाक, पापा और दादी जैसी। ऐसे थे मेरे नन्हे -मुन्ने। बस एक के बाल थे लम्बे और काले और छोटे के सुनहरे और घुंघराले। बड़ा सनी और छोटा जोई। मेरे जिगर के टुकड़े।

 

उनका रोना, सोना, उठना, खाना, पीना, मुस्कुराना सब एक चलचित्र की तरह आज आँखों के सामने से गुज़र गया।उनका पहला शब्द, पहला कदम, पहली बार गिरना, खूद अपने हाथों से खाना खाना, ज़िद करना कुछ भी तो नहीं भूली मैं। आज भी सब याद है। मानों वक्त अभी भी वहीं है और मैं अपने बच्चों में मग्न।

 

उन दिनों पतिदेव काम में ज्यादा मसरूफ रहते थें। घर की, बाहर की, काम की, सासू माँ की और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी बस हमी पर। दो नटखट, बातूनी बच्चे जिनके पास दुनिया भर के तमाम सवाल होते और एक मैं जो कभी हाँ-हूँ  कर और कभी पूरी तल्लीनता से जवाब देती हुई। ऐसे वक्त में फुल्लो ने मेरा बहुत साथ दिया। जी हाँ फुल्लो, घर के कामकाज में मेरा हाथ बंटाती, बच्चों का ध्यान रखती, उनकी सहेली, मेरे बच्चों की फुल्लो बुआ। बहुत ध्यान रखा उसने मेरे बच्चों का। खेलती, खाना खिलाती, बाल काढ़ती और बहुत कुछ।

 

पूरा दिन काम के बाद थक जाती थी, पर इन बच्चों की बातें, नित नयी कारस्तानियाँ, हँसी सब थकान मिटा देती। पता ही नही चला कब एक-एक करके दोनों के स्कूल जाने की बारी आ गयी। होमवर्क, असाइनमेंट, खेलकूद, संगीत, नाटक इन सब चीजों के साथ जीवन कटने लगा। भागा दौङी थी, पर थी मज़ेदार। हर एक लम्हे, हर काम का लुत्फ उठाया मैने...फिर चाहे वो सुबह ज़बरदस्ती नींद से उठाना हो, काॅम्पिटीशन की तैयारियां हों या पी.टी.एम. में जाकर टीचर से शैतानी के किस्से सुनने।  

 

दोनों की अपनी अपनी खासियतें और खामियां थीं, उसके बावजूद पढ़ने में अच्छे, एक्स्ट्रा करिक्यूलर एक्टिविटी में भी बेहतर। सबसे बड़ी बात लोगों का दर्द समझने वाले। मैंने बहुत कम छोटे बच्चों को ऐसा करते पाया है।

 

दिन और रात पलक झपकाने के साथ ही मानों बीतने लगे। हम दोनों चाहते थे कि हमारे बच्चे खूब ऊँची उड़ान भरें। अच्छे इंसान बने। हम दोनों उनके पंख सशक्त करने में लग गये। मालूम ही ना पड़ा कब बच्चे किशोरावस्था को लांघकर जवानी की दहलीज़ पर खड़े हो गये।

 

आज उनके पंख फड़फड़ा रहे हैं। उड़ने को तैयार हैं। ना जाने कब मेरा घोंसला छोङ ऊँची उड़ान भर लें। आज दोनों अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गयें हैं। आजकी प्रतिस्पर्धा की होड़ में वे भी जुट गए हैं। मैं रह गई हूँ अकेली. ...कभी उनके पलंग पर लेट कर उनको अपने आसपास महसूस करती हूँ, कुछ वैसे ही जैसे बचपन में मुझसे लिपट कर दोनों लेटते थें और कहानियाँ सुनते-सुनाते सो जाते थे। कभी उनके पुराने खिलौनों में उनका बचपन ढूढ़ती हूँ, तो कभी उनके पुराने छोटे-छोटे कपड़ों में उन्हें तलाशती हूँ।कहानियों की पुरानी किताबों में उनके हाथों से लिखे शब्दों में उनके नर्म हाथों को महसूस करती हूँ ।

 

थक कर जब दोनों चूर हो जाते हैं तो, अपनी गोदी में छुपा लेने को दिल करता है। दोनों अपनी मंजिलों को पा लेने की जब बातें करते हैं, तब माँ का दिल मेरा कहता है- "बच्चों ज़रा धीरे -धीरे चलो," पर मूक मुस्कान से उनके जज़्बे को निहारती रह जाती हूँ। 

 

विह्वल हैं दोनों अपनी उड़ान भरने को, दूर आसमानों में कहीं अपनी मंज़िल पाने को। रोकना चाहती हूँ, माँ हूँ....कैसे जी पाऊँगी इन्हें अपने आसपास फुदकते हुए, खिलखिलाते हुए देखे बगैर। पर ये तो उनमुक्त पंछी हैं, इन्हें पंख भी हमने दिये, पंखों को सशक्त किया, उड़ना भी सिखाया। फिर आज मन क्यों अधीर है? यही तो जग की रीत है शायद।

 

जाओ मेरे बच्चों, भरो अपनी उड़ान, कर लो मंज़िल को फतह।

 

 


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