शह
शह
हमारे घर में मेरे दो बड़े भाई शतंरज के शौकीन थे। एक बार सिर जोड़कर बैठ जाएं तो उठते नहीं थे। हमारे अब्बा बड़े नाराज़ होते थे। नमाज़ की ताईद करके जाते और मस्जिद से लौटते तो भाई शतंरज उठा कर भागते। उन्हीं दिनों मैं बहुत छोटी थी। मैंने अब्बा से सवाल किया “ये शतंरज खेल बुरा क्यों है? “
अब्बा ने जो क़िस्सा सुनाया मुझे बहुत मज़ा आया।
"एक नवाब अशफाकउल्ला थे, उनकी बहुत सी ज़मीन जायदाद थी। उनकी आदत थी या ये कहें नवाबी शौक़। शतंरज खेलने में माहिर थे। उनका सारा कामकाज दीवान साहब और उनकी बेगम देखती थी। वो अपने दीवानख़ाने में मसनद पर हुक्का पीते और अपने दोस्त रायचंद के साथ शतरंज की बिसात बिछ जाती तो कई-कई दिन उठते नहीं थे। बस अपने ज़रूरी काम के लिए उठते उनका गुलाम हुक्का भरता। चाय नाश्ते , खाने का इंतज़ाम उनकी बेगम करवाती ग़ुलाम से। अक्सर बेगम नवाब अशफाकउल्ला को प्यारी सी झिड़की देती “हाय ये शतंरज तो हमारी सौतन है”
एक बार तो ऐसा हुआ कि नवाब साहब अपने दोस्तों के साथ शिकार पर गए। वहां टेंट लगे। खाने, हुक्का सब का इंतज़ाम बहुत सी फौज़ नौकर-चाकरों की। इधर नवाब साहब के वालिद बहुत बुज़ुर्ग थे, कई दिनों से बीमार रहते थे। वहां शिकार करने गए वहाँ भी शतंरज की बिसात बिछा ली। नवाब साहब उनके दोस्तों को भी खूब मज़ा आ रहा था। घर से बेगम लगातार ख़बरें भेज रहीं थी नौकरों के साथ आपके वालिद मोहतरम की तबियत नासाज है। मगर नवाब साहब अपनी शतंरज में "शह और मात" में मशगूल कुछ सुनने को तैयार नहीं। फिर आख़िर में दीवान साहब ख़ुद आए और कहा आपके वालिद साहब "दुनिया-ए -फ़ानी" को छोड़ गए हैं।
बस जब तक वो अपने कोठी में पहुंचे उनके वालिद को "सुर्पुदे ख़ाक" कर दिया गया था। अब्बा ने ये कहानी सुनाई तो समझ आया की ये खेल इतना रोचक भी है और मशग़ूल रखने वाला भी।