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फूली रोटी

फूली रोटी

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स्त्रियों की बात ही अलग है । इन्हें कुछ सोचना है तो रसोई घर में, कोई विचार मस्तिष्क में कौंधता है तो वो भी रसोई घर में। सच तो यही है कि महिला चाहे गृहिणी हो या फिर कामकाजी महिला प्रत्येक स्थिति में उसका अधिकाधिक समय रसोई घर में ही व्यतीत होता है।

प्रतिमा एक दिन जब काम से घर पहुँची तो उसके दोनों बेटे उसके इर्द गिर्द घूमने लगे। उन्हें जोरों की भूख लगी थी। प्रतिमा आज बहुत ज़्यादा थकी हुई थी लेकिन जब उसने बच्चों को परेशान होते देखा तो शीघ्र ही अपना पर्स एक ओर टेबल पर रखा और सीधे रसोई घर में खाना बनाने चली गई।

प्रतिमा आज बहुत ज़्यादा थकी हुई थी। केवल तन से ही नहीं मन से भी। ऑफ़िस में दिनभर की भागदौड़ और घर की जिम्मेदारियों से जूझते मन को वो शांत करने का भरसक प्रयास कर रही थी। न जाने क्या बात थी जो उसके मन को कचौट रही थी। शायद ऑफ़िस में ही किसी ने कुछ कह दिया होगा। फिर घर आते ही बच्चों को भूख से बिलबिलाते देख उसके संयम का बांध जैसे टूट सा गया था। कहने को तो वह एक संयुक्त परिवार में रह रही थी। घर की सभी ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह निभा रही थी। लेकिन उसकी अनुपस्थिति में उसके बच्चों की यह दशा उसे और अधिक परेशान कर रही थी।

प्रतिमा अपने विचारों की इसी उधेड़बुन में जल्दी जल्दी रोटियाँ सेंकने लगी कि उसके विचारों की इस कश्मकश में एकाएक खलल पड़ा। उसका छोटा बेटा कह रहा था कि उसे केवल फूली रोटी ही खानी है। अगर रोटी फूली हुई नहीं हुई तो वह खाना नहीं खाएगा।

बेटे की इसी बात ने प्रतिमा के मन में उमड़ती भावनाओं को जैसे दिशा दे दी। वह सोचने लगी कि फूली हुई रोटी तो सभी को बहुत अच्छी लगती है। खाने का स्वाद ही बढ़ा देती है। पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि इसकी इस फुलावट के पीछे कितना दर्द कितना कष्ट छुपा हुआ है। धीमी आंच पर धीरे धीरे जलना, अपने एक छोर को छोड़कर दूसरी ओर तक जाना। क्या कभी किसी ने सोचा है कि कितना खालीपन महसूस करती होगी वह भीतर ही भीतर। पर किसी को उसके दर्द या तकलीफ़ से क्या लेना देना। उन्हें तो केवल रोटी चाहिए। वो भी फूली हुई रोटी।

क्या हम महिलाओं का जीवन भी इसी फूली हुई रोटी के ही समान नहीं है? हम महिलाएं भी तो फूली रोटी की ही तरह अपना एक छोर अर्थात मायका छोड़ कर दूसरे छोर अर्थात ससुराल की ओर चली आती हैं। पर क्या हमारा पिछला छोर हमसे छूट पाता है। नहीं। कभी नहीं। हम मायके के प्रेम और अटूट बंधन को कभी नहीं छोड़ते। सदैव उस घर की इज़्ज़्त मान मर्यादा का ख्याल रखते हुए अपने ससुराल की प्रत्येक ज़िम्मेदारी का सहर्ष वहीं करते हैं। लेकिन क्या कभी किसी ने नारी के दोनों छोर के बीच के इस ख़ालीपन को देखने या समझने का प्रयास किया है। क्या कभी किसी ने उसके अंदर उठते प्रश्नों के ज्वार को शांत करने का प्रयास मात्र भी किया है, जी नहीं।

प्रतिमा 38 वर्षीया महिला थी जो अपने दोनों बेटों का भरण पोषण कर रही थी। कुछ वर्ष पूर्व ही एक दुर्घटना में उसने अपने पति को खो दिया था। फिर भी उसने हार नहीं मानी । आगे बढ़ती ही गई । पति के न रहने पर भी उसने अपने ससुराल में ही रहकर अपने बच्चों को बड़ा करने का फैसला किया। वह अपने परिवार के लिए जो कुछ भी कर सकती थी उसने किया लेकिन उसके ससुराल वालों के लिए प्रतिमा केवल एक फूली हुई रोटी ही थी। जो केवल दुनिया को यह दिखाने के काम आती थी कि हम सब साथ मिलकर रहते हैं। जबकि सच्चाई तो यह थी कि प्रतिमा बाहर से कम और घर से कहीं अधिक थकी थी। बात बात पर उसके ससुराल वालों के ताने उसे भीतर ही भीतर छलनी कर रहे थे। जिस बहु को सास झोली पसार कर लाई थी, पति के गुजरने के बाद उसी सास को प्रतिमा का चेहरा देखने लायक न लगता था। बात बात पर उसके शरीर ,नैन नक्श आदि में कमियाँ निकालती रहती, उसे बदसूरत और भद्दा कहती रहती। लेकिन फिर भी प्रतिमा के जीवन में एक आशा की किरण थी कि कुछ ही वर्षों में उसके दोनों बेटे उसके कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे। साथ ही घर के लोग अक्सर बच्चों के प्रति विशेष प्रेम प्रदर्शन किया करते थे। प्रतिमा को लगता कि भले ही उसके साथ कैसा भी व्यवहार क्यों न किया गया हो किन्तु बच्चों को तो प्रेम मिल रहा है। लेकिन आज जब उसने अपने दोनों बच्चों को घर में सबके होते हुए भी भूख से परेशान देखा तो वह और अधिक व्याकुल हो उठी। वह अपने बच्चों को यह एहसास भी नहीं होने देना चाहती थी कि वह किन परिस्थितियों में रह रही है ।वह तो उन मासूमों की ख़ुशियों में ही अपनी ख़ुशियाँ ढूंढ लेना चाहती थी।

औरत घर के चिरागों को रोशन करती है। अपने गर्भ में नौ महीनों तक उसका पालन पोषण करती है। हर समास्या, हर दर्द को हंसकर झेल जाती है। इसके कारण खुद उसका शरीर भी फूल जाता है। वह उतनी आकर्षक नहीं रह जाती जितनी कि कभी हुआ करती थी। फिर भी पूर्णता का आभास करती है।

फूली रोटी को तो सब इतने चाव से खाते हैं फिर गर्भावस्था के उपरांत फूली हुई नारी को सम्मान देने से क्यों झिझकते हैं। क्यों नहीं समझ पाते कि फूली हुई रोटी के ही समान उसने भी अपना सर्वस्व पीछे छोड़ दिया है। वह भी इसी घर की सदस्य है। वह भी प्रेम और सम्मान की अधिकारी है।

प्रतिमा के मन में चलते विचार सहसा बाधित हुए जब उसके छोटे बेटे ने रसोई में आकर उसका पल्ला पकड़कर कहा,"मां! बहुत भूख लगी है, जल्दी से अपने जैसे सुंदर सुंदर फूली हुई रोटी बनाओ न।" बेटे के मुख से दिल की बात सुनकर उसके निस्तेज हो चुके चेहरे पर भी चमक आ गई। उसने बड़े ही लाड़ दुलार से अपने बेटे को गले से लगाया और सजल नेत्रों से उसका मासूम सा वह चेहरा निहारने लगी। उस एक पल में मानो उसके मैं की हर शिकायत दूर हो गई हो। मानो उसे जीवन भर की पूँजी मिल गई हो। और हो भी क्यों न जब वह जानती है कि किसी और के लिए वह कुछ हो या न हो पर अपने नौनिहालों के लिए वह वह एक फूली रोटी है, उनकी पसंदीदा सुंदर सुंदर फूली हुई रोटी।


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