पारिजात - एक अभागी लड़की
पारिजात - एक अभागी लड़की
उसे एक जगह बैठे रहना बिलकुल भी प्रसन्द नही था. उसमे एक अपार शक्ति समायी हुयी थी.
अत्यधिक आकर्षक व्यक्तित्व वाली वो पारिजात थी.
जिसकी भी उस पर नजर पड़ती वो उसे एक टक देखता ही रह जाता. इतना ही नही, वो उसे कभी भुला भी नही पाता. पारिजात गेहुवर्णी, प्रमाणसर शरीर वाली (न ज्यादा अधिक, न ज्यादा कम हाइट) कॉलेजीयन लड़की थी. चेहरे के रूप-रंग से एकदम जन्नत की अप्सरा पर गेहुवर्णी. सवाल तो हमेशा उसके जीभ पर ही होते. उसकी जानकारी (जनरल नॉलेज) अपार होने के कारण बौद्धिक और रसप्रद सवाल अपने साथ पढ़ने वालो को पूछती रहती. तो कभी-कभी बेवकूफ़ो वाले सवाल भी पूछ देती. जैसे की, कही बार वो अपने साथ आनेवाले लड़को को (दोस्तों को) पूछती की तुम लोगो को खबर तो है ही की पारिजात तुम्हारी कभी नही हो सकती, तो फिर क्यों उसके पीछे खुद का समय और पैसा खर्च करते हो..?
ऐसा सवाल पूछने के कारण कोई भी कॉफी शॉप मे बैठा हुआ उसका आशिक भला कैसे बिल चुकाने की हिम्मत करता होगा..! गजब की मनमौजी लड़की थी वो.
मै जब स्कुल मे पढ़ता तब से पारिजात को पहचानता था. वो स्कुल मे भी सबकी प्रिय थी और मेरे सबसे निकट...
सहध्याय से लेकर शिक्षक, लेब असिस्टंट, बस ड्राईवर, कंडक्टर सभी उसके ही नाम का रटन करते रहते. वो कभी बस ड्राईवर के पास से ड्राइविंग करने के नियम शीखती, तो कभी लेब मे दो केमिकलो का मिश्रण करके धड़ाका करती और लेब असिस्टंट के साथ मिलकर खड़खडाट हँसती.
एक बार उसने अपना सूटकेस भरकर अपने नए-पुराने कपड़े लेब असिस्टंट को उसकी बहन के लिए दे दिए.
जब मैंने उसे पूछा तो कहने लगी, " ओल्ड फैशन के थे ". उसके साथ ही बड़बड़ाती भी जाती है, " नकामो ( गुजराती शब्द,नकामो :-बिना काम का ) जब देखो तब उतरा हुआ चेहरा लेकर ही घूमता रहता है, नफरत है मुझे उसके प्रति...' मै आश्चर्य से उसे ही देखा करता. पारिजात के मन को समझना अशक्य था.
पारिजात का जीवन एक खुल्ली पुस्तक के समान था. पारिजात का लालन-पालन उसके मामा-मामी ने किया था. उसके बारे मे सबको हर बात का पता होता क्योंकि वो बोलती ही इतनी ज्यादा थी......
फिर भी मुझे कही बार वो रहस्यमयी लगती. मै उसे हमेशा कहता रहता की कभी तेरी गहराई मे डुब कर मुझे तुझे जानना है और वो हँसते हुए जवाब देती, 'मै तो नदी हु, मुझमे पानी सिवाय कुछ नही मिलेगा....जितनी गहराई मे जाएगा उतना ही ज्यादा पानी ही मिलेगा. याद रख मोती हमेशा सागर मे से ही मिलते है, नदी मे से नही.'
एक दिन अपने चेहरे पर लाल चटक बड़ी बिंदी लगाकर आई.....
फिर हँसते हुए बोली, 'ओल्ड फैशन?' मैने मन ही मन सोचा, क्षितिज पर उगता सूरज कभी ओल्ड फैशन कैसे हो सकता है.... कुछ जवाब दिए बिना ही मैंने एक हल्की स्माइल की. उस दिन वो मेरे हाथ की रेखा देखने लगी.... उसके अनुसार मेरा प्रेम कोई दूसरी लड़की होगी और मै शादी किसी दूसरी लड़की से करुगा. मैंने कहा, 'ला, तेरे हाथ की रेखाए देखता हूं. ' तो उसने अपने हाथ की मुठ्ठी बन्द कर दी. 'ना अंश.... मेरे हाथ मे रेखा ही नही है.... सब पानी मे ही बह गयी है....'
कभी-कभी लगता की पारिजात एक कस्तूरी हिरनी है, जिसे देखते ही सब उसके पीछे ही धूमते रहते है. उसे पाने के लिए सबकी हौड़ लगी है, जबकि हकीकत मे वो कही थी ही नही. यह मात्र एक भ्रम है, तभी ही उसका खुलकर हँसना मुझे विचारों में से वर्तमान लगने लगता. मै उसे अपने सबसे निकट समझने लगता.
जब उसे कॉलेज मे एडमिशन लेने का था, तब वो मेरे आगे-पीछे ही घूमती और कहती, अंश अपने दोनों साथ मे ही पूरी पढ़ाई करेंगे. मै भी उसे हैरान करता, 'पूरी जिंदगी मेरे पीछे ही घूमेगी? तू जब साथ होती है, तब कोई दूसरी लड़की मेरे पास भी नही आती है और तू मेरी होना भी नही चाहती....'
एक दिन उसने अंत्यत गम्भीरता से कहा, ' अंश, मै सिर्फ तेरी ही हु. बस, जिस दिन मै खुद की जात को तेरे लायक समझ सकूगी तो उसी दिन से ही मेरी जात को तुझे अर्पण कर दूँगी. 'मुझे उसकी अटपटी बात कभी समझ नही आती थी, पर वक्त के साथ इतना जरूर समझ मे आ गया कि उसके प्रति जो मेरा आकर्षण है वो एक दिन मेरी समस्या का कारण बनेगा, पर मुझे फिर भी वो मंजूर था.
हम दोनों कॉलेज भी साथ जाते. वहा अनेक लड़के उसके आगे-पीछे घूमते रहते. वो किसी के पास अपने नोट्स लिखाती, किसी को अपनी स्कूटी मे पेट्रोल भरवाने भेज देती.... और सबको एक ही बात कहती, तुम्हारे उपकार मुझ पर उधार रहे....
इस तरह कितने ही अपने उधार-जमा कराने की फिराक मे बैठे होते. मै कभी-कभी उसे समझाता था कि आखिर कब तक तुम इस तरह सबके दिलों के साथ और खुद के दिल के साथ भी यह खेल खेलती रहोगी? वो कहती, 'अरे यार.... मेरे शरीर मे दिल है ही कहा?' 'तो क्या है?' कभी-कभी मै गुस्से मे पूछ बैठता, तो वो एकदम निर्दोषता से कहती, 'किडनी है....भगवान नही करे पर कभी तुझे जरूरत पड़ी तो दे दूँगी, एकदम मुफ्त.... तूने मुझे कल डाबेली खिलाई थी, वो उधार-जमा हो गया यह मान लेना.' मै सर पर अपना हाथ रखकर चुप हो जाता.
कभी मुझे लगता कि पारिजात मानसिक तौर पर बीमार है. वो नॉर्मल तो नही थी. फिर भी, पढ़ने मे खूब होशियार और पेंटिंग तो उसे जैसे जन्मजात बक्षित मे मिली हो. उसके रूम मे हमेशा म्यूजिक सुनने को मिलता. मुझे उसकी प्रसन्दगी कभी समझ मे नही आती थी. कभी वो गजले सुनती और कहती, 'मै तो गुलाम अली साहेब की फैन बन गयी हु, अंश, सच मे.' तो कभी जीमी हेंड्रिक्स या जिम मोरिस को सुनकर कहती, ' वाह, कितनी मादकता है इन लोगो की आवाज मे, कभी मै भी यह नशा कर के देखूंगी.....'
कुछ अलग ही थी पारिजात. हां, उसके पेंटिंग हमेशा एक जैसे ही देखने को मिलते. अलग-अलग प्रकार की नदियां... वो कहती, 'यह सब मेरे सेल्फ पॉइंट है, अंश! मै खुद इतनी सुंदर हु, तो दुसरो की पेंटिग क्यों करू?'
एक बार हम दूर एक मंदिर दर्शन करने गए.
उसे भगवान मे ख़ास विश्वास नही था. मंदिर एक नदी के किनारे पर होने के कारण उसने घूमने जाने का प्लान बनाया था. वहा सीढियो पर बैठकर हम दोनों सूर्यास्त को निहारने लगे. नदी मे सूर्यास्त का प्रतिबिंब बहुत ही सुंदर लग रहा था. अचानक वो बोली, 'अगर तू सूरज होता तो रोज शाम को अस्त हो जाता. बराबर कहा ना?'
उस दिन मै सोचने लगा की कही पारिजात भी मुझसे प्रेम तो नही करती! उतने मे वो बोली मुझे लगता है कि मुझे कोई सागर नाम के लड़के से ही प्यार होगा क्योंकि नदी का अंत हमेशा सागर मे ही समाना होता है! वहां पर ही उसे विश्राम मिलता है, मुक्ति मिलती है. मै बोल उठा, 'तुझे किसी के साथ मे प्रेम होगा ही नही, पारिजात. तू प्रेम करेगी ही नही....जब तेरे दिल मे मेरे लिए प्रेम नही जगा तो दूसरे किसी के साथ भी तुझे प्रेम कैसे हो सकता है?' 'ओह?' वो मेरे थोड़ी नजदीक आकर बोली, 'ऐसा क्या ख़ास है तुझमे?' मैंने जवाब दिया, 'क्यों? हेंडसम हु,रंग गोरा है, आँखो भूरी है, बालो का जुल्फा है. तुझे प्रसन्द है मेरे डिम्पल....और क्या चाहिए?'
और हम दोनों हसने लग गए.
वो जब इस तरह खुलकर हसती, तब मुझे उसकी आंखो में मेरे लिए प्रेम दिखाई दे जाता. ऐसे ही एक विचार ने मुझे हिम्मत दी. जब हम दोनों फिल्म देखकर वापिस आ रहे थे. वों बाइक पर मुझे पकड़कर बैठी थी और उसका स्पर्श मुझे अपने पथ से विचलित कर रहा था. वर्षो से हम दोनों साथ मे और एक-दूसरे के निकट भी, एक-दूसरे का अंजान स्पर्श भी सामान्य था, पर आज शायद मेरे मन पर मेरा काबू ही नही था. मैने उसके घर के पास बाइक खड़ा किया. उसने कहा, 'थैंक्स, अंश. तेरे कारण ही आज मेरा दिन बहुत ही अच्छा बिता.' वो जाने के लिए घूमी ही थी की मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और ज्यादा विचार किये बिना ही बोल दिया, 'तेरी पूरी जिंदगी इस तरह ही खुखमय बनाना चाहता हु.
तेरे साथ मे जीना-मरना चाहता हु. पारिजात, मै तुझसे प्रेम करता हु....'
अब पारिजात के बोलने का हक था. उसने दो मिनट के लिए ही मेरी नजरो मे उसकी नजर मिलाकर देखने लगी, वो उसी जाने-अनजाने भाव से देख रही थी, जिसे मै आज-तक समझ नही पाया....
फिर उसने अपने दूसरे हाथ से अपना हाथ छुड़ाकर बोली, 'एक दिन अच्छा बिता है, मिस्टर, यह सुंदरता और ताजगी आजीवन नही रहने वाली. अब तू जा, बाइक धीमे चलाना और घर पहुचकर मैसेज कर देना.' इतना कहकर वो सीधी अपने घर मे चली गयी. पीछे मुड़कर उसने फिर देखा भी नही. मैंने बाइक स्टार्ट करके अपने घर की ओर जाने को निकला. शायद रात आज ज्यादा अंधकारमय थी या फिर मेरी आँखों के आगे अन्धकार छा गया. क्या पता न जाने कैसे मेरी बाइक डिवाईडर क्रोस करके सामने की ओर चली गयी. जब बेहोशी की हालत से बाहर निकला तब खुद को हॉस्पिटल मे पाया. सिर पर आठ टाँके आये हुए थे. किसी प्रकार की आंतरिक मार न होने के कारण सुबह तो मुझे डिस्चार्ज कर दिया.
चार दिन होने को आ गए फिर भी पारिजात का कही पता भी नही था. वो न तो मुझे मिलने आई, न ही मेरी खबर तक पूछी. फोन भी बंद था. पाँचवे दिन जब वो आई तब मैंने उसे फरियादी के स्वर मे कहा, 'बहुत जल्दी मेरी खबर पूछने आयी?' उसने कहा, 'अरे! तेरा सिर जिस डिवाईडर के साथ टकराया था ना, उसके रिपेरिंग काम मे बीजी थी.' मैं उसका चेहरा और लाल पड़ी सूजी आँखो को देख रहा था, सोच रहा था और उसे समझने का निष्फल प्रयत्न करता रहा. जब तक मेरे टाँके तोड़े न गये, वो रोज मुझे मिलने को आती रही. बहुत बाते करती. उस रात का उल्लेख हम दोनों ने फिर कभी नही किया, पर हमारे बिच मे कुछ टूट रहा था ऐसा मुझे लग रहा था, शायद मैंने मेरे प्रेम का एकरार करके भूल की थी.
हां शायद, समय बीतने के साथ सब सामान्य हो जाएगा यह सोच कर दिन बीतने लगे. नौकरी मिलने के साथ ही घर के सभी सदस्य मुझे विवाह करने के लिये बाध्य करने लगे,
पारिजात भी,..... परिवार के लिए मेरी जवाबदारी को समझकर आखिर थककर मै भी यह रिवाज को निभाने को तैयार हो गया. मुझे भी लगने लगा अब पारिजात का भ्रम छोड़ना ही पड़ेगा. उसकी मायाजाल से बाहर निकलना ही होगा.
उस रात को अचानक ही टेलीफोन की घण्टी बजी और सामने से पारिजात का आवाज सुनाई दिया, 'सुन, आखिरकार मुझे सागर के साथ प्रेम हो ही गया..... हैल्लो, तू सुन रहा है ना?'
'हां,सुन रहा हु और जानता भी हु की गोवा का दरिया किनारा है ही इतना सुंदर, कौन उसके प्रति आकर्षित नही होगा?'
'बस, शांत! तू मुझे कुछ ज्यादा ही समझने लगा है, अंश और मुझे यह बात बिलकुल भी प्रसन्द नही. तूने तो शादी कर ली. मेरा पीछा भी छोड़ दिया. अब उसको समझ और उसे जानने का प्रयत्न कर जो तेरे साथ बंधी हुयी है....'और उसने फोन रख दिया. शादी के बाद मेरी फर्स्ट नाइट थी और मै पारिजात के साथ बात कर रहा था.... पर शायद लास्ट बार. मैंने अपने मन मै नक्की कर लिया था कि अब कभी उसके साथ बात नही करुगा. फिर भी हमेशा की तरह ही यह निर्णय भी उसने ही लिया. दूसरे दिन सुबह गोवा की होटल मे से फोन आया की पारिजात उसके रूम मे एक कागज लिखकर गयी है - जा रही हु, मुझे कभी-कही भी ढूँढना मत. मुझे पूरी तरह से डूब जाने दो सागर के प्रेम मे. मै सागर के तलिए को स्पर्श करने के लिए निकली हु. एक पत्र मेरे नाम भी था,
अंश
तेरा नाम सागर होता या सूरज.... मै कभी तुझे प्रेम नही करती. क्यों, खबर है? जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उस दिन ही मेरे माता-पिता दोनों की मुत्यु हो गयी, माता की प्रसूति दरमियान और पिता की रोड एक्सीडेंट मे. मॉसी-मॉसाजी ने लालन-पालन किया, तो उनके कोई संतान नही हुयी. यह संजोग नही है, अंश, यह इशारा था उपरवाले का. मै खूब अभागी हु, अगर अपने दोनों एक हुए होते, तो तू कभी सुखी न होता. याद है, तुझे एक्सिडेंट हुआ था उस रात को.... तूने तो मुझे मात्र अपने प्रेम का एकरार किया था.... और देख लिया उसका परिणाम? मै पारिजात हु.... जिसे कृष्ण का श्राप मिला है. जिसका रूप-रंग, सौंदर्य कोई देख नही सकेगा.... तू अगले जन्म मे भी अंश ही बनना.... मै तेरी बनुगी, मात्र तेरी.... रातरानी बनकर तेरी सभी रातो को महका दूँगी.... हर जन्म मे पारिजात बनु, इतनी भी अभागनी नही !