अभी नहीं तो कभी नहीं
अभी नहीं तो कभी नहीं
हमारा जन्म राजस्थान राज्य में, अलवर जिले के एक छोटे से कस्बे खेरली में हुआ। पढ़ाई-लिखाई में शुरू से ही हमारी गिनती अच्छे विद्यार्थियों में होती थी। दसवीं कक्षा तक तो सब अच्छी तरह से चला लेकिन कक्षा ११ का परिणाम आशा के अनुरूप नहीं रहा।
हमारे परीक्षा परिणाम से पिताजी काफी निराश हुए। वो हमेशा से हमें एक मेकेनिकल इंजिनीयर देखना चाहते थे। फिर भी उन्होने हिम्मत नहीं हारी। हमारे परिवार के गुरुजी और पिताजी के कुछ मित्रों की सलाह पर हमको कक्षा ११ में दोबारा पढ़ाया गया और इस बार परिणाम बहुत अच्छा रहा।
उन दिनों यानी १९७० में, राजस्थान में मेकेनिकल इंजिनीयरिंग के लिये तीन इंजिनीयरिंग कॉलेज थे, पिलानी, जोधपुर और जयपुर। किस्मत से तीनों ही जगह हमको प्रवेश मिल गया और साथ ही मनपसंद मेकेनिकल ब्रांच भी मिल गयी लेकिन हमारे पिताजी ने जयपुर पर मोहर लगाई क्योंकि जयपुर हमारे गाँव खेरली से सबसे नजदीक पड़ता था,और इस तरह जुलाई १९७० के प्रथम सप्ताह में हम मालवीय क्षेत्रीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, जयपुर पहुँच गए।
उन दिनों रैगिंग का जबरदस्त प्रचलन था। हमारी रैगिंग भी खूब हुई लेकिन कई मायनों में वो हमारे पक्ष में रही। बहुत से सीनियर विद्यार्थियों से जान-पहचान हो गयी जिससे आगे जाकर किताबें, नोट्स और पढ़ाई लिखाई में बहुत मदद मिली। किस्मत से मेरिट-कम-मीन्स स्कोलरशिप में भी हमारा चयन हो गया और हर साल हमको १२०० रु. सालाना छात्रवृत्ति मिलने लगी। शुरू में कुछ मुश्किलें भी आई। हम हिन्दी मीडियम विद्यालय से आये और कालेज में पढ़ाई अँग्रेजी मीडियम में होती थी। कालेज का माहौल भी स्कूल से बहुत अलग था। इन सबके बावजूद, प्रथम वर्ष का परिणाम अच्छा रहा। हम फ़र्स्ट डिविजन से पास हो गये थे।
दूसरे वर्ष में पढ़ाई के प्रति हम थोड़े से लापरवाह हो गये। पढ़ाई से ध्यान भटकाने के लिये कालेज में और भी बहुत कुछ था। बाकी और विद्यार्थियों की तरह, शायद हम भी वहाँ की ज़िंदगी और माहौल का भरपूर आनन्द लेना चाहते थे। इसी के चलते कभी रैगिंग, कभी हड़ताल, कभी चुनाव, कभी पिक्चर, कभी मास कट, कभी कॉलेज का वार्षिक उत्सव, कभी खेलकूद, और कभी बस यूँ ही कैंटीन में समय व्यर्थ गँवाते रहे। तृतीय वर्ष की परीक्षा में तो, दो पेपरों में अपने आप जान बूझकर पूरक परीक्षा ले ली। ऐसी ही कुछ बेवकूफियाँ करते रहे। ये तो गोविंद की कृपा रही कि हमारे कॉलेज में सिर्फ एक ही लड़की पढ़ती थी और वो भी हमसे तीन साल सीनियर थी वरना इश्क़-विश्क के चक्कर ने तो कहीं का भी नहीं छोड़ा होता। इस सब में पता ही नहीं चला, कब और कैसे चार साल बीत गये।
आप सबकी जानकारी के लिये यहाँ ये बताना जरूरी है। चूंकि उन दिनों इंजिनीयरिंग कालेज में प्रवेश ११वीं कक्षा के बाद होता था, इसीलिए इंजिनीयरिंग का स्नातक होने में ५ साल लगते थे। साथ ही फ़ाइनल परीक्षा के बाद मिलने वाले अंकों की गिनती थोड़े अलग तरीके से होती थी। पाँचों साल की मिलाकर एक अंक तालिका बनती थी, जिसमें प्रथम वर्ष के २०%, द्वितीय वर्ष के ४०%, तृतीय वर्ष के ६०%, चतुर्थ वर्ष के ८०% और आखिरी यानि पांचवें वर्ष के १००% अंक मिलते थे
छुट्टियाँ खत्म हो गयी थी और पाँचवें यानी आखिरी वर्ष की पढ़ाई अभी शुरू ही हुई थी। एक दिन शाम को सभी मित्रों के साथ बैठकर अपने भावी जीवन, नौकरी और साक्षात्कार आदि की बात कर रहे थे। उसी बातचीत के दौरान पता लगा कि कोई अच्छी कम्पनी फ़र्स्ट डिविजन से नीचे वालों को साक्षात्कार के लिये भी नहीं बुलाती। चतुर्थ वर्ष के अंत तक, हमारा परीक्षा परिणाम बहुत ही औसत स्तर तक पहुँच गया था। हमारे लिये, ये चिंता का एक बहुत बड़ा कारण था। अचानक ही आँखों से नींद गायब हो गयी और बार-बार एक ही ख्याल आता कि अब हमारा क्या होगा ? हमने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी।
मेकेनिकल इंजिनीयरिंग में कुल २७ विद्यार्थियों का बैच था। अंक तालिका के आधार पर, पूरे बैच में हम २४वें नंबर पर पहुँच गये थे। हमारे मित्रों में मेकेनिकल के हम चार मित्र हमेशा साथ रहते थे। छात्रावास में भी हमारे चारों के कमरे आमने-सामने थे।
हम चारों में रामअवतार हमेशा प्रथम और मोहन तृतीय स्थान पर रहते थे। हमारी और श्याम की गिनती नीचे से होती थी। रामअवतार को हम सभी प्यार से गुरुजी कहते थे। पढ़ाई में अव्वल होने के अलावा, हमारे गुरुजी हमेशा सभी की हर संभव मदद करने को तत्पर रहते थे।
एक दिन हमने अपनी दुविधा गुरुजी को बताई। हमेशा की तरह उसने, एकदम सही राह सुझाई।
कुछ नहीं बिगड़ा, अभी से पढ़ाई में लग जाओ और बस याद रखना, अभी नहीं तो कभी नहीं।
गुरुजी की बात बिल्कुल सटीक थी। अगर सही कहें तो हमारे पास और कोई विकल्प भी नहीं था। आर्थिक रूप से हमारे परिवार की हालत काफी खराब थी। अच्छी नौकरी ना मिलने की कल्पना से भी डर लगता था और सब कुछ सोच विचारकर हमने ठान लिया कि इस आखिरी वर्ष की पढ़ाई को गंभीरता से लेना ही होगा, अगर अभी नहीं तो कभी नहीं |
उन्ही दिनों एक हिन्दी पिक्चर देखी “पवित्र पापी”, पिक्चर में, मुख्य किरदार ‘केदार’ की भूमिका परीक्षित साहनी ने निभाई थी। बहुत ही दमदार भूमिका थी। किन मुश्किल परिस्थितियों से गुजरकर, कैसे केदार ने अपना लक्ष्य हासिल किया था। केदार के किरदार ने मुझे बहुत प्रभावित किया और अपने लक्ष्य के प्रति गंभीर रहने को प्रेरित किया।
उस आखिरी साल में हमने पढ़ाई-लिखाई पर तो अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया ही, लेकिन साथ ही और भी ऐसे कई क्षेत्र थे जिन पर काफी ध्यान दिया। मसलन, हमने पिछले चार सालों में नेटवर्किंग पर कभी गौर नहीं किया था। सबसे पहले एक दिन हम अपने मेकेनिकल इंजिनीयरिंग विभाग के प्रमुख शाह साहब से मिले और उनसे अपनी नौकरी संबंधी परेशानी साझा की। शाह साहब ने कई सुझाव दिये और हमसे पढ़ाई के प्रति गंभीर रहने का वादा लेकर अपना आशीर्वाद भी दिया।
हम अपने विभाग के कुछ और प्रोफेसरों से भी मिले और उनके दिशा निर्देश के अनुसार ही पढ़ाई और परीक्षा की तैयारी करते रहे। इंजिनीयरिंग की पढ़ाई में सेसनल्स एक अहम हिस्सा होता है और साथ ही काफी वक़्तलेवा भी होता है। उस साल हम अपने सेसनल्स नियमित तरीके से पूरे करते रहे। इससे हमको अपनी फ़ाइनल थ्योरी की परीक्षा की तैयारी का भरपूर समय मिला।
फ़ाइनल परीक्षा के बाद २१ दिन में हमको अपना प्रोजेक्ट पूरा करना था। प्रोजेक्ट के दिनों में तबीयत काफी खराब हो गयी थी। यहाँ तक कि आखिर के १०-१२ दिन तो हमने १०१-१०२ डिग्री बुखार रहते हुए भी अपने प्रोजेक्ट के काम को पूरा किया। अपना सारा काम खत्म करके सितम्बर के आखिरी सप्ताह में घर चले गये थे। पक्का तो याद नहीं, शायद २० दिसम्बर १९७५ के आसपास हमारा इंजिनीयरिंग का परीक्षा परिणाम आया था। हम फ़र्स्ट डिविजन से पास हो गये थे। बाद में कालेज जाकर पता चला, २७ विद्यार्थियों के बैच में हमारा सातवाँ स्थान रहा था यानी आखिरी साल की मेहनत के बल पर हम २४वें स्थान से उठकर ७वें स्थान पर आ बैठे थे। आज भी जब मैं अपने विद्यार्थी जीवन के बारे में सोचता हूँ तो इंजिनीयरिंग की पढ़ाई का आखिरी वर्ष, और उसके भी शुरू के कुछ दिन आँखों के सामने आ जाते हैं।
कैसे एक सही निर्णय से सही राह पकड़ी और अंत में जीवन की राह भी सुगम हो गयी। असर साफ नज़र आ रहा था।।