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जीतू ढाबा

जीतू ढाबा

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हरताज़ को जब पता चला कि एक बार फिर से नेपाल माल पहुँचाने का टेंडर हुआ है, तो उसने बिना कुछ सोचे तुरंत जाने के लिए अपना नाम दे दिया, क्योंकि पिछली बार जब वह नेपाल गया था तो वहाँ उसकी एक प्यारी-सी दोस्त जो बन गई थी, जिससे हरताज़ ने जल्द ही फिर से मिलने का वादा किया था। हरताज़ की इच्छा को देख ट्रांसपोर्ट कंपनी के मालिक ने उसका नाम लिख लिया क्योंकि हरताज़ पुराना और अनुभवी ड्राइवर था और माल को समय से और सावधानी से पहुँचाने में उसका रिकॉर्ड सबसे अच्छा था।

हरताज़ बहुत खुश था, अपनी नन्नी दोस्त जीतू से मिलने की खुशी इतनी थी कि आज अपने साथी टीका के आने से पहले ही उसने ट्रक को ठीक-ठाक कर लिया और अपनी फेवरेट राजेश खन्ना की कैसेट भी लगा ली क्योंकि जिस काम को करने से हमारी खुशी जुड़ी होती है उस काम में हमारी स्पीड भी बढ़ जाती है। टीका हरताज़ को पहले से देखकर जानबूझकर चौकते हुए बोला, "उस्ताद ! आज मुझसे पहले ही, और क्या बात है ! आज बहुत दिनों बाद राजेश खन्ना, वाह ! मजा आएगा।" दरअसल टीका अपने उस्ताद के ट्रक का साथी होने से ज्यादा उसका अच्छा दोस्त भी था, वह जानता था कि क्यों आज उस्ताद इतने अच्छे मूड में है। जेठ की तपती दोपहर भी आज कुछ अच्छे मूड में लग रही थी। मौसम सुहाना हो चला था और दोनों 'जिंदगी एक सफर है सुहाना' गाते हुए बढ़े जा रहे थे।

पूरे एक दिन के लंबे सफर के बाद दोनों नेपाल पहुँच गए, जल्दी ही ट्रक को अनलोड कराने के बाद हरताज़ जीतू से मिलने पहुँचा। उसकी उत्सुकता, उसकी खुशी चेहरे से साफ झलक रही थी। लेकिन पहुँचते ही हरताज़ सन्न रह गया। जिस जीतू ढाबे पर वे रुकते थे, वह बिल्कुल बदल गया था। बोर्ड पर 'जीतू ढाबा' की जगह 'जीतू रेस्टोरेंट' लिखा था, जगह जगह पर सुंदर ग्राफिटी और चित्रकारी की गई थी और तो और सभी व्यंजनों की लिस्ट भी लगा दी गई थी। जीतू ने जैसे ही हरताज़ को देखा वह सारा काम छोड़कर उसकी तरफ दौड़ी और सरताज ने अपने घुटने पर बैठकर उसे गले लगा लिया। जीतू को उम्मीद नहीं थी कि उसका दोस्त इतनी जल्दी उससे मिलने आएगा। दोनों की आँखों में आँसू थे, और जीतू लगभग रो रही थी। हरताज़ ने माहौल को खुशनूमा करने के लिए जीतू की पीठ थपथपाते हुए कहा,"देख टीका मेरी दोस्त कितनी होशियार है, कर पाएगा कभी ऐसी कारीगरी।" ये सुनकर जीतू खिलखिला कर हँस दी। जीतू 10 साल की उम्र में ही बहुत होशियार और अपनी उम्र के बच्चों से अलग थी। पढ़ने-लिखने का उसे बहुत शौक था लेकिन माँ की मौत के बाद घर की बड़ी बेटी होने के नाते पूरे घर की जिम्मेदारी जीतू के ऊपर थी। तीन छोटे भाई-बहन भी थे जिनका ख्याल वह एक माँ की तरह रखती थी। पूरे दिन वह अपने पिता के साथ ढाबे में काम करती, और रात में दूसरे बच्चों से, जो स्कूल जाते हैं माँग कर उनकी किताबे पढ़ती। जीतू के लिए किताबे 'संजीवनी' से कम नहीं थी, दिन भर ढाबे में थक कर चूर होने के बाद भी किताबें उसे फिर से ऊर्जा से भर देती और जीतू में फिर से जान आ जाती।

"अरे वाह ! जीवनी की किताब, इसमें तो सभी महापुरषो की जीवनी है।" जीतू हरताज़ की लाई हुई किताबें देखने लगती है तो हरताज़ जीतू के पिता के पास जाता है, "क्या द्वारिका चाचा ढाबे की काया ही पलट दिए।"

"अरे जीतू बिटिया ही यह सब किया करती है" द्वारिका ने धीमी आवाज में कहा।

तो हरताज़ बोला "ठीक ही तो है, देखो ना अब ढाबे की भीड़ दुगनी हो गई है।"

जवाब में द्वारिका हल्का सा मुस्कुराया और फिर काम में लग गया।

हरताज़ द्वारिका के पास गया और कंधे पर हाथ रखकर भारी मन से बोला, "चाचा ! जीतू बहुत होशियार है, पढ़ेगी-लिखेगी तो एक दिन बहुत नाम करेगी, इसका स्कूल में दाखिला क्यों नहीं कराते ?"

पहले तो चुप रहा फिर जीतू की तरफ देखते हुए द्वारिका बोला, " जानता हूँ साहब ! जीतू बहुत होशियार है, लेकिन ढाबे की देखभाल और बच्चों की देखरेख सब जीतू के ऊपर है और सच तो यह है कि इसकी पढ़ाई-लिखाई का खर्चा तक नहीं उठा सकता मैं। अब नियति से कोई कितना लड़ेगा साहब ! " द्वारिका की आँखों में आँसू छलक आए थे।

हरताज़ निःशब्द रह जाता है और गहरी सोच में डूब जाता है। तभी जीतू की आवाज उसका ध्यान तोड़ती है, " दोस्त जल्दी आओ सब कुछ मैंने खुद बनाया है तुम्हारी पसंद का, वरना टीका भैया सब चट कर जाएँगे।"

हरताज़, टीका और जीतू साथ मिलकर खाना खाते हैं। खाने के बाद विदाई का समय आता है तो हरताज़ जीतू से पूछता है, "इस बार क्या लाऊँ शहर से ?"

"किताबें !" जीतू ने चहकती हुई मुस्कान के साथ कहा।

"इस बार भी किताबें, अच्छा और कुछ ?"

"अब कब आओगे" जीतू के आँखों में आँसू थे।

"रोती क्यों है पागल ! जल्द ही आऊँगा" कहकर हरताज़ जल्दी से आके ट्रक में बैठ गया क्योंकि हरताज़ के लिए भी वहाँ रुकना मुश्किल था वह जीतू की हालत देख हलकान हुआ जा रहा था।

वापसी में दोनों चुप थे...हरताज़ को ज्यादा परेशान देख टीका ने खुद ड्राइविंग करने के लिए कहा, तो हरताज़ ने सहमति दिखाई और दोनों ने अपनी सीट बदल ली। टीका जानता था कि उस्ताद का मूड जब तक ठीक नहीं हो जाता वह एक शब्द भी नहीं बोलता है, इसीलिए वह भी चुप था और साथ ही वह हरताज़ का जीतू से लगाव का कारण भी जानता था, इसलिए उसने हरताज़ को समय देना ठीक समझा। थोड़ी देर बाद हरताज़ ने चुप्पी तोड़ी और बोला, " टीका ! मैं जीतू को दूसरा हरताज़ बनते नहीं देखना चाहता।" दरअसल हरताज़ पढ़ाई में अव्वल था और हमेशा पहला स्थान लाता था। बचपन से ही उसने एक डॉक्टर बनने का सपना बुन रखा था। लेकिन दसवीं के बाद अचानक पिता का देहांत हो जाने के कारण उसकी पढ़ाई रुक गई। फिर तीन-तीन बहनों की शादी, माँ की बीमारी का खर्च और कर्ज़ के बोझ ने उसकी जिंदगी ही बदल दी और ना चाहते हुए भी उसे ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राईवर की नौकरी करनी पड़ी और उसके सारे सपने चकनाचूर हो गए। आज कई सालों के बाद फिर से हरताज़ को वो भयानक दिन याद आ गए थे, जिसने उसकी जिंदगी पलट के रख दी थी। जीतू के भविष्य में खुद को देख इमैजिन कर वह अंदर तक जला जा रहा था। अंततः उसने फैसला किया कि अगर जीतू को पढ़ा पाया तो समझेगा कि उसके सारे सपने पूरे हो गए। उसने द्वारिका को फोन लगाया और कहा, " चाचा ! अपनी जीतू भी पढ़ेगी, स्कूल जाएगी। आप ढाबे में मदद के लिए किसी और का बंदोबस्त कर लो। और हाँ खर्चे की चिंता मत करना, मैं जल्द ही आऊँगा जीतू का स्कूल में दाखिला कराने। और जीतू से बात कराना जरा ! जीतू अब तुम्हें किसी और से किताबें माँगने की जरुरत नहीं है, तुम खुद पढ़ोगी, अपनी किताबें।"

जवाब में जीतू कुछ ना बोल पाई। थोड़ी देर बाद बोली, "दोस्त तुम कब आओगे ?"

"बहुत जल्द आऊँगा।" फोन रखते ही हरताज़ के चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी, मानो कब से तपती धूप में चलते हुए राही को हल्की सी पेड़ की छाया मिल गई हो।

अगले ही दिन से हरताज़ पैसों के इंतजाम में लग गया क्योंकि इसी सत्र से वह जीतू का दाखिला करवाना चाहता था। उसने मालिक से पैसे उधार लेने का सोचा और अगले ही महीने नेपाल जाने का मन बनाया। एक दिन हरताज़ जीतू को खबर करने के लिए फोन करता है, "दोस्त मैं अगले महीने आ रहा हूँ।"

जीतू ने सहमी-सी आवाज में कहा, "जल्दी से आ जाओ दोस्त, ऐसा लगता है कोई मेरे सपने छीन के ले जा रहा है। कल सुबह मैने सपना देखा कि कोई मेरी किताबें ढाबे की भट्ठी में जला रहा है। सुना है दिन के सपने सच हो जाते है।" कहते-कहते वह रोने लगी।

हरताज़ ने उसे समझाते हुए कहा, "अरे ! मेरी बहादुर दोस्त रोती भी है क्या ? सब अच्छा होगा और बहुत जल्द होगा। अब हँसो जल्दी से !"

जीतू मुस्कुराई और बोली, " जल्दी आना दोस्त।"

एक महीने बाद हरताज़ नेपाल जाने की तैयारी में था। कंपनी के मालिक से पैसे लेकर आज ही उसे निकलना था। वह कंपनी पहुँचा ही था कि इत्तफ़ाक से टीका भी वहाँ मिल गया। हरताज़ बोला, " टीका आज सच पूछो तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। लगता है जैसे मैं अपने सपने को पूरा करने जा रहा हूँ। अगर जीतू पढ़-लिख के कुछ बन पाई तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होगी।" दोनों चाय की चुस्की ले ही रहे थे कि रेडियो की एक खबर ने दोनों के होश उड़ा दिए। नेपाल में भयानक भूकंप आया था जिसमें सैकड़ो लोगों के मारे जाने की आशंका जताई जा रही थी। नेपाल के "लामजुंग" में भूकंप का केंद्र था जो कि जीतू के गाँव से ज्यादा दूर नहीं था। हरताज़ के चेहरे की हवाइयाँ उड़ गई थी, वह हलकान हुआ जा रहा था। हरताज़ ने अपना बैग उठाया और तेज कदमों से वहाँ से जाने लगा। टीका ने हरताज़ को रोकेते हुए कहा, " उस्ताद मैं तुम्हे रोकूंगा नहीं, लेकिन वहाँ के हालात ठीक नहीं है, तुम्हारा वहाँ अकेले जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। हरताज़ के मना करने के बावजूद जब टीका नहीं माना तो दोनों नेपाल के लिए रवाना हो गए।

भूकंप को आए हुए 24 घंटे से ऊपर हो रहे थे, लेकिन अभी भी बचाव कार्य जारी होने की खबरें आ रही थी। इन खबरों को सुनकर हरताज़ और भी बेचैन हुआ जा रहा था। टीका भी बहुत परेशान था लेकिन हरताज़ की हालत को देख खुद को मजबूत बनाए हुए बार-बार कह रहा था, "उस्ताद परेशान ना हो सब सही होगा।" भूकंप के कारण नेपाल जाने की मेन रोड ब्लॉक कर दी गई थी, इसलिए पहुँचने में और समय लग रहा था। जगह-जगह पर रेस्क्यू टीम तैनात थी और अफरा-तफरी का माहौल था इसलिये अगले दिन शाम तक दोनों जीतू के गाँव पहुँच पाए। लगभग सभी कमज़ोर मकान धराशाही हो गए थे, और हर जगह अपनों के खोने का गम था। दोनों ढाबे की ओर बढ़े जा रहे थे और उनका कलेजा मुँह को आ रहा था। लेकिन वहाँ पहुँचने पर दोनों ने राहत की साँस ली क्योंकि ढाबा देखने में ठीक-ठाक लग रहा था, बस मामूली टूट-फूट हुई थी। दोनों ने उम्मीद जताई की जीतू और बाकी लोग भी ठीक होंगे। ढाबे में पहुँचने पर जीतू को देख हरताज़ के आँखों में चमक आ गई। वह दौड़कर जीतू के पास पहुँचा और उसे गले लगा लिया। लेकिन ये क्या ! जीतू ने तो जैसे उसे पहचाना ही नहीं था वह निर्जीव-सी खड़ी थी। हरताज़ उसे किताबें दिखाता, उसकी खैरियत पूछता, लेकिन जीतू जैसे कुछ सुन ही नहीं रही थी। ये सब देख हरताज़ का दिल बैठा जा रहा था, उसने चिल्लाकर कर जीतू को हिलाया तो उसका ध्यान टूटा और मुस्कुराकर बोली "साहब ! क्या लेंगे आप" ये सुनकर हरताज़ चौंक गया।

जीतू फिर बोली "रुकिए साहब अभी भट्ठी जलाती हूँ।"

जीतू का ये व्यवहार देख कर हरताज़ परेशान हुआ जा रहा था कि इतने में टीका धीमे कदमों से वहाँ आया और बोला, "द्वारिका बगल के गाँव में गया हुआ था जहाँ एक मकान के गिरने से दब कर उसकी मौत हो गई।"

हरताज़ सन्न रह गया और वहीं जमीन पर बैठ गया।

तभी जीतू बोली, "थोड़ी देर और रुको साहब ! लकड़ियाँ नहीं हैं। इन रद्दी कागजों से ही भट्ठी जलाती हूँ। बस थोड़ा समय और लगेगा।"

देखते ही देखते सारी किताबें भट्टी में जल गईं। उन किताबों की बलि देकर ही अब उसे अपना घर संभालना था। किताबे क्या, अब तो ये सब उसके लिए रद्दी कागज ही थे। किताबों के जलने से ज्यादा उसे भट्टी के जलने की चिंता थी क्योंकि अब यही उसकी जिंदगी थी। हरताज़ को रह-रहकर जीतू का वह सपना याद आ रहा था जो उसने दिन में देखा था और सच भी हो रहा था। यह सब देख कर हरताज़ पागल-सा हुआ जा रहा था। भट्ठी में किताबों के जलने की आग से वह अंदर तक जला जा रहा था। टीका ने हरताज़ को वहाँ से दूर ले जाना ठीक समझा और उसे उठाकर थोड़ी दूर ले आया। बदहवास-सा हरताज़ फिर से जमीन पर गिर पड़ा और एकटक जीतू की ओर देखता रहा। वह बार-बार एक ही बात बोल रहा था जो द्वारिका ने कही थी, "नियति से कोई कब तक लड़ेगा साहब ! नियति से कोई कब तक लड़ेगा साहब !" यह बोलते-बोलते हरताज़ बेहोश हो गया। और उधर जीतू ने "जीतू रेस्टोरेंट" का बोर्ड हटाकर फेंक दिया और फिर सेया और फिर से वही पराना बोर्ड लगा दिया जिसपर लिखा था "जीतू ढाबा"।।


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