धुँध
धुँध
"माँ कुछ खास बनाओ ना छोले भटूरे य़ा इडली सांभर, कितना समय हो गया है तुमने कुछ अच्छा नहीं बनाया ! पापा थे तब कितना कुछ बनाती थी।" सात साल की नेहा जब मचल कर बोली तो मानसी का कलेजा मुँह को आ गया। उसे ईशारे से चुप करती तब तक दस वर्ष का वैभव बीच में बोल पडा " हमे माँ ने समझाया था ना की नये घर में जाकर कितनी समझदारी से रहना है।" कुछ दिन पहले कि घटना उसे य़ाद आई कैसे नेहा के हाथ से इतना महंगा बुत टूटने पर मानसी कितना घबरा गयी थी पर मानव ने कितना पुचकारा था नेहा को। इसी अजनबीपन के माहौल से बच्चो को दूर रखना चाहती थी पर ससुरालवालो ने तो पति के रहते ही कभी प्यार नहीं दिया तो बाद में क्या आशा रखती। पति की मृत्यु के बाद भाई के लिवा लाने पर पीहर रही दो साल तक पर अपनेपन को तरसती रही।
बड़ी बहन के कहने पर उसके दूर के रिश्ते के विधुर जेठ से पुनर्विवाह को तैयार हो गयी, ज़िनके बच्चे अपने पैरों पर खड़े होकर अपने अपने घर संसार में विदेश में रम गये थे पर पिता तथा दादी के बारे में सोचकर उनका विवाह करना चाहते थे। लेकिन मानसी खुद ना तो मानव को पूर्ण समर्पण कर पायी थी, ना ही उस पर य़ा उसके घर पर अधिकार जता पाती थी। शाम को जब ऑफीस से घर आई तो बाहर ही स्वादिष्ट पकवान की खुशबू आ रही थी, अंदर आकर देखा तो मानव को रसोई में खाना बनाते ओर अपनी सास को बच्चो को अपने हाथो से खाना खिलाते देख वो ठिठक गयी। रसोई में पहुचने पर मानव ने उसका चेहरा हाथ में लेकर कहा "ये घर तुम्हारा है ओर ये बच्चे मेरे।" उसके आँखो के आगे से धुँध हटने लगी ओर खुशी के आँसू बहने लगे।