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अवध की लोककथा

अवध की लोककथा

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हमारे अवध प्रांत में बहुत सी दंतकथाएं प्रचलित है, यही लोककथाएं हमारी संस्कृति को खास बनाती है। अवध में लोकगीतों और कथाओं की भरमार है, जो सभी मौकों पर रंग भर देते हैं। मेरी दादी द्वारा सुनाई जाने वाली यह एक कथा जो मुझे अत्यन्त प्रिय है, कहानी कुछ ऐसे शुरू होती है :-

                 

 एक गाँव में एक जमींदार का भरा-पूरा परिवार रहता था, परिवार में पति-पत्नी, उनकी बेटी और सात बेटे- बहू थे। लीलावती सभी भाइयों में सबसे छोटे होने के कारण सबकी लाडली थी, उसकी शादी आनेगांव के जमींदार के बेटे से हो चुकी थी , बस गौना बाकी था। एक दिन लीलावती और गाँव की कुछ सहेलियों ने तालाब पर नहाने जाने का तय किया। लीलावती के पास 'पटोर' नहीं था, उसने अपनी अम्मा से पटोर मांगा, पर उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि अब मेरे पास यह सब नहीं है , तुम अपनी भौजी (भाभी) से मांग लो, उनके पास होगा।

माँ के कहने के मुताबिक वह अपनी भाभियों से मांगती है, पर सभी भाभियां यह कहकर टाल देती कि बक्से में बहुत नीचे रखा है, छोटी से मांग लो। इसी तरह वह अपनी छः भाभियों से कहती और सभी ने यही जवाब दिया। अंत में अपनी सबसे छोटी भाभी के पास पहुंची और उन्होंने तुरंत बक्सा खोलकर पटोर निकाल कर दे दिया और कहा बिटिया ध्यान रखना।

पटोर पाकर अगले दिन वह अपनी सहेलियों के साथ तालाब पर पहुंच जाती है, वहां पर वे सभी बहुत मस्ती करती है। उन्होंने अपने कपड़े और सभी सामान तालाब के किनारे पर रख दिया था, तालाब से बाहर आकर लीलावती अपना पटोर देखती है, उस पर कौवे ने बीट कर दी थी। पटोर भाभी को अत्यंत प्रिय था, यह जानकर कि उसे कौवे ने गंदा कर दिया है उन्हें दुख होगा। उसने तालाब के पानी से उसे धो दिया, पर वह कच्चे रंग का था इसलिए उस जगह उसका रंग निकल गया और रह गया एक दाग ! बहन अभी भी बालपन में थ , वह दाग देखकर घबरा गई थी इसीलिए वह बिना कुछ बताए उनके बक्से में चुपचाप रख देती है ।

कुछ दिनों बाद जब छोटी भाभी अपने पटोर के दाग को देखती है, वह सब समझ जाती है कि बिटिया ही तालाब पर ले गई थी और वहीं पर यह दाग पड़ा होगा। जैसा कि उसे अपना पटोर अति प्रिय था, इसीलिए वह लीलावती पर बहुत नाराज़ होती है और खुद बिस्तर पकड़ कर लेट जाती है। जब शाम को सबसे छोटा भाई काम से लौटकर आता है तो उसे ऐसे ओढ़े हुए देख कर पूछता है, ' रानी क्या हुआ ? '

'मेरी तबियत बहुत खराब है , अब मैं बचूंगी नहीं । '

'ऐसा ना कहो , रानी ! कोई तो उपाय होगा '

'सिर्फ एक शर्त पर मैं ठीक हो जाऊंगी '

'बताओ, मैं हर शर्त पूरी करूंगा '

'जब मेरा पटोर अपनी बहन के खून से रंग कर मुझे ओढ़ाओगे मैं ठीक हो जाऊंगी '

'बस इतनी सी बात, कल ही लो'

 

अगले ही दिन छोटे भाई ने गाँव के बच्चों को इकट्ठा किया और 'गुल्लर-गदिया'  खाने का तय किया। सभी को जाते देख लीलावती का ‌भी चलने को मन हुआ और उसने भी साथ ले जाने को कहा, भाई ने कहा जल्दी से तैयार होकर आ जाओ। सभी जंगल पहुंचते हैं, छोटा भाई गूलर के पेड़ पर चढ़ गया और गदिया तोड़ तोड़ कर सभी की ओर फेंकने लगा, पर लीलावती को खाने को नहीं मिली। उसने अपने भाई से कहा ' भैय्या मुझे भी दो '

' बहना कहाँ पर दूँ ? भूं पर डालूंगा तो भुएंइध आएगी। '

' तो कोछे में दो '

' नहीं , कोछे में कोछैंइध आएगी '

' तो भैय्या सीधे मुंह में ही डाल दो '

' हां ये ठीक रहेगा '

 वह अपना मुंह खोलती है और भाई ऊपर से गदिया की जगह चाकू डाल देता है , जो सीधे उसके हलक में उतर जाता है और वह उसी जगह दम तोड़ देती है। भाई ने उसके खून से पटोर रंग लिया और अपनी पत्नी को दे दिया। अपना पटोर पाकर भौजाई बहुत खुश हुई और इधर लीलावती उसी गू्लर के पेड़ में समा गई।

कुछ सालों बाद लीलावती के ससुराल वालों ने गौना करने के लिए अपने नाई को जमींदार के घर भेजा। नाई आराम करने के लिए गाँव के किनारे लगे गूलर के पेड़ के नीचे छाया में रूक गया। थोड़ी देर में वहां एक आवाज़ गूंजी-

'' नौव्वाऊ भाई , नौव्वाऊ भाई !

  आत ना छुएओ , पात घर आए ,

   भाई के नगरी इम , याहै चारि ,

   बहिन मारि कै रंगै पटोर ,

   पापिन भौजी करै सिंगार । ''

 नाई ने आसपास देखा उसे कोई नजर नहीं आया, तब तक एक बार फिर से वही आवाज़ सुनाई दी। उसने देखा यह आवाज़ उसी पेड़ से आ रही है जिसके नीचे वह बैठा था। यह लीलावती की आह थी, जो इस पेड़ में समा गई थीं। वह डरकर सीधे अपने गाँव वापस चला गया और जाकर लीलावती के ससुर से सारी बात कह दी। उन्होंने उसकी बात पर यकीन नहीं किया और सोचा यह जाना नहीं चाहता इसीलिए कामचोरी कर रहा है, मैं ही वहां जाता हूं और गौने की बात कर आऊंगा। अगली बार लीलावती के ससुर आते हैैं और उन्हें भी पेड़ से वही आवाज़ सुनाई देती है ,

'' ‌‌ससुर जी, ससुर जी !

  आत ना छुएओ, पात घर आए ,

   भाई के नगरी इम , याहै चारि ,

   बहिन मारि कै रंगै पटोर ,

   पापिन भौजी करै सिंगार । ''

  वह भी डरकर लौट जाते हैं और फिर लीलावती के जेठ आते हैं, उन्हें भी वही आवाज़ सुनाई देती है ,

 '' जेठ जी , जेठ जी !

  आत ना छुएओ , पात घर आए ,

   भाई के नगरी इम , याहै चारि ,

   बहिन मारि कै रंगै पटोर ,

   पापिन भौजी करै सिंगार। ''

  वह भी वही से वापस लौट जाते हैं । इसी तरह करते करते गौने का दिन आ गया इसलिए अंत में लीलावती के पति तय करते हैं कि इस बार मैं जाऊंगा और उस पेड़ को ही काट कर ये सारा माजरा खत्म कर दूँगा और अपनी पत्नी को विदा करा लाऊंगा।

 गौने के दिन लीलावती के पति डोली, कहार , लकड़हारा आदि को लेकर लीलावती के गाँव जाने को निकलते हैं। रास्ते में वही गूलर का पेड़ मिलता है और उसमें से आवाज़ भी सुनाई देती है -

 '' पिया जी , पिया जी !

  आत ना छुएओ , पात घर आए ,

   भाई के नगरी इम , याहै चारि ,

   बहिन मारि कै रंगै पटोर ,

   पापिन भौजी करै सिंगार । ''

आवाज़ सुनकर वह तुरंत उस पेड़ को काटने को कहता है, लकड़हारे उस पेड़ को बीच से काटते है। पेड़ कटकर गिर जाता है और उसके कोटर से एक सजी-संवरी सुंदर लड़की निकलती है, वह और कोई नहीं लीलावती देवी थी। वह अपना परिचय सभी को देती है और आप बीती सुनाती है। उसके पति उससे कहते हैं कि जो हुआ जाने दो, अब इस गाँव से हमारा कोई वास्ता नहीं, तुम हमारे घर की अमानत हो, हमारे साथ चलो। '

इस तरह लीलावती देवी डोली में बैठकर अपने ससुराल चली जाती है, वहां उनका भव्य स्वागत होता है और खुशी खुशी रहने लगती है।

लीलावती की सलामती की खबर फैलते फैलते उनके मायके तक पहुँचती है। यह सुनकर उसकी भाभी छोटे भाई पर शक करती है कि तुमने उसके खून से पटोर नहीं रंगा था। वह कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता, लीला मेरे सामने ही बेजान हो गई थी। कुछ दिनों में करवा चौथ आ रहा था, सब मिलकर तय करते हैं कि करवा चौथ पर बहन के यहां करवा देने के बहाने जाना चाहिए और सच्चाई मालूम करनी चाहिए। 

अब पिछला जो भी हो गया, उसे भूलकर बहन के लिए अपना फर्ज निभाना है, यह सोचकर करवा चौथ पर लीलावती के भाई उसकी ससुराल में चूरा- लैय्या , अनाज , गगरी , करवा इत्यादि सामान लेकर आते हैं। लीलावती की सास उसे संदेश भेजती है कि तुम्हारे भैय्या करवा लेकर आएं हैं, बाहर आकर उनसे मिल लो। भाई के आगमन की सूचना पाकर लीलावती संकट में पड़ जाती है कि कैसे उस भाई से मिलूं , जिसने पत्नी के लिए अपनी बहन को मार दिया , वह बाहर आने से मना कर देती है। धरती माँ से प्रार्थना करती है कि मैं उनका चेहरा भी नहीं देखना चाहती, मैं तुम्हारी बेटी हूं, मुझे अपनी गोद में जगह दे दो। धरती माँ ने उनकी पुकार सुनी और उसी वक्त धरती फट गई और लीलावती देवी उसमें समा गईं।

                   

इस तरह लीलावती देवी की कहानी का अंत होता है। करवा चौथ पर कही जाने वाली कहानियों में यह प्रमुख है। दादीजी के द्वारा इन कहानियों से मौक़ों में रंग भर जाता था ।


शब्दावली -

आने गाँव - किसी दूसरे गाँव में

गौना - दुल्हन विदा करने की एक रस्म जो बड़े होने पर किया जाता था क्योंकि शादी तो छोटी उम्र में कर दी जाती थी ।

पटोर - एक प्रकार की ओढ़नी जिसमें किनारों पर गोटापट्टी लगी होती है, जिसे स्त्रियां बाहर ओढ़ने के लिए इस्तेमाल करती है।

गुल्लर गदिया - एक प्रकार का जंगली फल

भुएंइध - भूमि की गंध

कोछा - पल्ला या आंचल

कोछैंइध - कपड़े की गंध


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