जीने की राह
जीने की राह
सुषमा के चिल्लाने की आवाज़ सुनकर रमा सकते में आ गई। जल्दी से गैस बंद करके उसके घर की तरफ दौड़ी। संयोग से दरवाज़ा खुला था तथा सुषमा मोंटी को गोद में लिये बेताहशा रोये जा रही थीं।
‘क्या हुआ मोंटी को...?’
सुषमा की निरीह तथा पथराई दृष्टि उसे विचलित कर रही थी। क्या मोंटी मर गया ? पिछले कुछ दिनों से वह बीमार चल रहा था। उसे मालूम था कि सुषमाजी के लिये उसकी अहमियत क्या थी। उसी के साथ उनका दिन प्रारंभ होता था तथा उसी के साथ खत्म होता था।
‘क्या हुआ सुषमाजी को ? ’ उसी की तरह सुषमा के बेताहशा रोने की आवाज़ सुनकर पहुँची बीना ने अंदर आते हुए पूछा। वस्तुस्थिति जानकर वह मुस्करा उठी...मानो कह रही हो हम तो कुछ और ही समझे थे।
रमा समझ गई कि उसके कहने का आशय क्या है। वस्तुतः सुषमा के पति विमल को कुछ दिन पूर्व हार्ट अटैक आया था। स्थिति काफी नाज़ुक हो गई थी। काफी मुश्किल से उन्होंने जिंदगी की जंग जीती थी।
उसने उससे कहना चाहा...मुस्कराना बंद करो बीना, स्थिति की नज़ाकत को समझो पर प्रकट में कहा,‘ तुम यहाँ बैठो बीना, मैं ज़रा फोन करके आती हूँ।’
बाहर आई तो अपार्टमेंट के कुछ लोग दरवाज़े के पास असमंजस की स्थिति मे खड़े थे...रमा के बताने पर कि सुषमा का कुत्ता मोंटी मर गया है, बीना की तरह ही व्यंग्यात्मक मुस्कराहट लिये कुछ लोग तो बाहर से ही लौट गये, कुछ अंदर गये। जो अंदर गये वह भी सहानुभूतिवश नहीं गये थे वरन् शायद इस विचित्र स्थिति में सुषमा की मनःस्थिति का आनंद लेने गये थे। रमा को लोगों की यह मानसिकता विचलित कर रही थी। किसी के लिये किसी का क्या महत्व है, इसका निर्णय दूसरा भला कैसे कर सकता है ?
अपने विचारों को रोकते हुए उसने विमलजी तथा दीपेन्दु को फोन किया। फोन पर सूचना देकर वह पुनः सुषमाजी के घर गई। वह पहले की तरह ही बिलख-बिलखकर रो रही थी। अब तक सुषमा की आवाज़ सुनकर अपार्टमेंट की लगभग सभी महिलायें पहुँच गई थीं किन्तु उन सबके चेहरे पर बीना जैसे ही भाव रमा को परेशान कर रहे थे पर रमा ने अपने मन में आते विचारों को यह सोचकर झटका कि यदि वह स्वयं सुषमाजी को वर्षो से नहीं जानती होती तो शायद वह भी लोगों की इस जमात में सम्मिलित होती।
रमा के पति दीपेन्दु तथा सुषमा के पति विमल दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे। दोनों में पारिवारिक मित्रता थी अतः जब घर खरीदने की बात आई तो उन्होंने एक ही अपार्टमेंट में फ्लैट बुक करवाया था तथा साथ ही साथ इस अपार्टमेंट में आये थे। उनके अलावा इस अपार्टमेंट में दस फैमिली और थी पर विमल और दीपेन्दु के वर्षो से एक साथ काम करने के कारण उनमें आपस में कुछ ज्यादा ही लगाव और अपनत्व था।
सुषमा को अपने पति और बच्चों से इतना अधिक मानसिक एवं भावनात्मक लगाव था कि उनके आँफिस तथा स्कूल से आने में जरा सी भी देरी होने पर वह चिंतित हो उठती थीं। स्वयं तो परेशान होती ही थी, अपने साथ दूसरों को भी परेशान कर डालती थीं। करीबी दोस्त होने के कारण ऐसी स्थिति में उसे ही उन्हें समझाना पड़ता था। कभी-कभी लगता था कि कहीं वह मानसिक रूप से अस्वस्थ तो नहीं हैं लेकिन ऐसा कुछ नहीं था क्योंकि राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर उनकी पकड़ इतनी अच्छी थी कि उसके बारे में ऐसा सोचना अपने ही विचारों को दूषित करना था।
ऐसे ही परेशानी भरे एक क्षण में सुषमा उससे बोली थीं, ‘ रमा, शहरों में इतना ट्रेफिक रहता है कि जब तक विमल और बच्चे घर नहीं आ जाते, तब तक एक अव्यक्त डर मन में समाया रहता है। पता नहीं ऐसा मुझे ही होता है या अन्य सबको भी होता है।’
‘ऐसी स्थितियों में परेशान तो सब होते हैं सुषमा, लेकिन तुम्हारे जैसा मानसिक संतुलन कोई नहीं खोता....जब जो होना होता है वह होता ही है फिर बेवजह चिंता क्यो ? सदा नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना, बेवजह काल्पनिक घटनाओं के बारे में सोच-सोच कर सदा परेशान रहना अपने स्वास्थ को ही खराब करना है।’ रमा ने उन्हें समझाते हुए कहा ।
‘इन विचारों पर मेरा कोई वश नहीं है रमा...।’ विवशतायुक्त स्वर में उन्होंने कहा था।
रमा चाहकर भी उन्हें कभी समझा नहीं पाई थी। मन के अव्यक्त डर के कारण उन्हें कभी-कभी नींद की गोली खाकर भी सोना पड़ता था। बातों-बातों में एक दिन विमलजी से ही पता चला कि जब वह मात्र दस वर्ष की थीं, एक दिन उनके पिता उनको शाम को बाहर घुमाने का वायदा कर आँफिस से जल्दी आने के लिये कहकर गये थे। वह तैयार होकर उनका इंतजार कर रही थीं पर वह नहीं आये...आया तो उनका शव। इस घटना ने उनके मस्तिष्क पर गहरा असर किया था। एक अव्यक्त डर ने उनके मन में ऐसी जड़ें जमा लीं जिससे वह आज तक निजात नहीं पा सकीं हैं। यही कारण है कि उनके या बच्चों के आने में जरा भी देर होने पर वह विचलित हो उठती हैं।
सुषमा के पुत्र उपमन्यु का मेडिकल में चयन हो गया। उसे पूना जाना था। पहले तो वह उसे वहाँ पढ़ने भेजने के लिये तैयार ही नहीं हो रही थीं। सबके समझाने पर बुझे मन से तैयार भी हुई तो उससे एक वायदा लिया कि वह उनसे रोजाना बात किया करेगा...उसने अपना वायदा निभाया भी था।
कुछ ही दिनों पश्चात् बेटी सुनयना का विवाह तय हो गया। लड़के वाले महीने भर के अंदर ही विवाह चाहते थे। थोड़े सुख तथा थोड़े दुख के साथ उन्होंने यह भी स्वीकार कर लिया। विवाह खूब धूमधाम से हुआ लेकिन पुत्री के विवाह के पश्चात् पसरा सूनापन उनसे उनकी हँसी छीन ले गया। जब उपमन्यु या सुनयना आते तभी उनके घर में रौनक होती।
मेडिकल की पढ़ाई पूरी होते ही उन्होंने उपमन्यु का विवाह भी धूमधाम से कर दिया। बहू नमिता भी डाक्टर थी। वह चाहती थीं कि उपमन्यु यहीं उसी शहर में एक नर्सिग होम खोल ले जिससे कि वह साथ-साथ रह सकें लेकिन उपमन्यु और पढ़ना चाहता था। उसे स्टेट्स के एक कॉलेज में एडमीशन भी मिल गया था। माँ के दबाव में उसने विवाह तो कर लिया था पर बाहर जाने की अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। नमिता को जल्दी बुलाने का वायदा करके अंततः वह चला ही गया।
वह फिर वही तनाव झेलने लगीं...जब तक उसका फोन नहीं आता परेशान रहतीं। न जाने वह कैसा होगा ? ढंग से खाना मिलता होगा या नहीं तरह-तरह की चिंतायें उन्हें परेशान करने लगी थीं। कभी वह उनसे मिलने जाती तो सिवाय शिकायतों और परेशानियों के उनके पास कुछ नहीं रहता था। नमिता जब तक रही तब तक वह थोड़ा खुश नजर आती रही लेकिन उसके जाने के पश्चात् तो जैसे उन्होंने वैराग्य ही ले लिया था।
एक दिन आधी रात को काॅलबेल की आवाज़ सुनकर रमा ने दरवाज़ा खोला...घबराई हुई सुषमा थी...हाँफते-हाँफते बोलीं, ‘ रमा पता नहीं इनको क्या हो गया है, समझ में नहीं आ रहा है क्या करूँ ?’
उसने दीपेन्दु को जगाया। जाकर देखा तो पाया कि विमल अपने सीने को दबाये तड़प रहे हैं। दीपेन्दु ने जल्दी से गाड़ी निकाली तथा उन्हें अस्पताल ले गये। उन्हें सीवियर अटैक आया था । उनको तुरंत आई.सी.यू. यूनिट में एडमिट कर लिया गया। साथ आई सुषमा की डर और घबराहट के कारण बिगड़ती हालत देखकर डाक्टर को सुषमा को भी नींद का इंजेक्शन देना पड़ा था।
दवा का असर समाप्त होते ही सुषमा के असंतुलित व्यवहार को देखकर डाक्टर ने उनको विमल से दूर रखने को कहा पर क्या पत्नी को पति से दूर रख पाना संभव है...? दीपेन्दु ने उनसे कहा भी कि वह घर जाकर आराम करें पर उन्होंने मना कर दिया।
स्थिति यह हो गई थी कि दीपेन्दु जहाँ विमल को देख रहे थे वहीं सुषमा को रमा को संभालना पड़ रहा था। उसे उनकी हालत देखकर कभी दया आती तो कभी क्रोध...वह समझ नहीं पा रही थी कि उनका यह व्यवहार विमल के प्रति अतिशय प्रेम के कारण है या अपनी असुरक्षा की भावना को लेकर है।
सुषमा की ऐसी हालत देखकर रमा को कभी-कभी लगता...कहीं वह दिखावा तो नहीं कर रही हैं…!! प्यार तो सब करते हैं, लेकिन ऐसे कोई सुधबुध नहीं खोता। पति की देखभाल जितनी अच्छी तरह से पत्नी कर सकती है उतना अन्य कोई नहीं, पर वह तो समझना ही नहीं चाहती थीं। बस एक जगह बैठी विमल को टकटकी लगाकर देखती रहती। रमा यदि ज़िद करके उन्हें कुछ खिला देती तो खा लेती वरना वैसे ही भूखी ही बैठी रहती। हर समय वह एक ही रट लगाये हुए थी,‘ हे भगवान, मुझे उठा लो पर इनको कुछ मत होने देना...इनके बिना मैं कैसे रहूँगी ?’
पता नहीं डाक्टरों की दवा काम में आई या सुषमा की दुआ, विमल ठीक होकर घर आ गये। तब जाकर सुषमा सहज हो पाई। ठीक होने पर विमलजी ने आँफिस जाना प्रारंभ कर दिया था पर विमल की बीमारी के कारण उत्पन्न चिंता या असुरक्षा की भावना ने उन्हें और भी असहज बना दिया था। जब भी वह आतीं या वह मिलने जाती वह जमाने भर की शिकायतें लिये असहाय और बेबस नजर आती...विमल भी उनकी हालत देखकर परेशान नजर आते थे।
एक दिन वह उनसे मिलने गई तो उसे देखकर बोली, ‘रमा, यह कैसी जिंदगी है ? जिनके लिये इतना सब किया वही हमें छोड़ अपनी नई दुनिया बसाने चले गये। आज वे अपनी दुनिया में इतने रम गये हैं कि उन्हें इस बात की परवाह ही नहीं है कि उनके अपने माता-पिता कैसे हैं ?’
‘सुषमा, तुम्हें तो यह सोचकर खुश होना चाहिये कि तुम्हारे दोनों बच्चे सुखी जीवन जी रहे हैं। उपमन्यु ने अगर अपने लिये एक अलग सपना देखा है तो तो इसमें बुरा क्या है ? सुनयना, वह अपना घर बार छोड़कर बार-बार तुमसे मिलने कैसे आ सकती है ? जरा उनकी सोचो...जिनके संतान नहीं है या है भी तो अपाहिज या बीमार या अपने माता-पिता के साथ अमानवीय बर्ताव करती है !! जिंदगी को स्वस्थ नज़रिए से देखना सीख । इस संसार में सब अपना-अपना भाग्य लेकर कर्म करने आये हैं । कब तक मोह ममता के बंधन में उन्हें बाँधकर रखोगी । सुख-दुख इंसानी जीवन के अहम हिस्से हैं जिनसे होकर हर इंसान को गुजरना पड़ता है। जो होना है वह तो होकर ही रहेगा अतः व्यर्थ की चिंता छोड़ो...स्वयं भी जीओ और उन्हें भी जीने दो । इंसान वही है जो हर परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढाल सके तथा अपना संतुलन न खोये। इतना समझ लो...दुखी इंसान के पास कोई नहीं आता...आखिर आये भी क्यों ? वह स्वयं भी दुखी रहता है तथा दूसरों को भी दुखी कर देता है। जरा विमलजी की सोचो...क्या हालत हो गई है उनकी ? कहीं तुम्हारे इस व्यवहार के कारण ही तो उन्हें अटैक नहीं आया !! उनके पास सिर्फ घर की ही नहीं बाहर की भी समस्यायें हैं। यदि तुम अपना ही रोना रोती रही तो वह अपनी समस्यायें किसको बतायेंगे !! यदि अब भी तुम अपने नज़रिये में बदलाव नहीं ला पाई तो कहीं ऐसा न हो कि एक दिन तुम उन्हें ही खो दो।’
सुषमा फटी-फटी आँखों से उसे देखती रह गई। वह उनसे यह सब कहना नहीं चाहती थी लेकिन आज पता नहीं कैसे मन का गुबार निकल गया था। पता नहीं विमल कैसे सह पाते होंगे उन्हें...? सदा एक नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना तथा दुखी होते रहना...पता नहीं कैसा शौक बन गया था उनका...? वर्षो की जानपहचान थी अतः न चाहते हुए भी वह स्वयं को उनके घर जाने से रोक नहीं पाती थी। पता नहीं यह उसका उनके प्रति उसका अतिशय लगाव था या सहानुभूति थी।
एक दिन वह उनसे मिलने घर गई तो देखा कि वह बोतल से छोटे से पिल्ले को दूध पिलाने की कोशिश कर रही हैं...उसे आश्चर्य से देखते देखकर बोली,‘ रमा, जीना तो है ही, अकेले मन नहीं लगता था। खाली घर काटने को दौड़ता था। कोई साथ में रहेगा तो व्यस्त रहूँगी। व्यर्थ इधर- उधर की बातें सोचकर परेशान नहीं होंगी, उससे भी बड़ी बात कम से कम यह हमें छोड़कर तो नहीं जायेगा, सोचकर इसे ले आई। देखो कितना प्यारा है...बाल तो एकदम रेशम जैसे...छूकर तो देख इस।’ बालसुलभ उत्सुकता से उन्होंने कहा था।
‘कम से कम यह हमें छोड़कर तो नहीं जायेगा...।’ उनके इस वाक्य में उसे उनमें एक अनोखा आत्मविश्वास नजर आया था। शायद यही कारण था कि उस बेजुबान ने उनके अंदर एक अदम्य साहस और चेतना का संचार कर दिया था। लगता था कि उन्होंने एक नई जिंदगी प्रारंभ कर दी है जिसमें वह थीं, उनका मोंटी था। अब उनकी सारी बातें उसके इर्द गिर्द ही घूमने लगी थी मसलन उसने क्या खाया...उसको क्या पसंद है...यहाँ तक ठंड प्रारंभ हुई तो उनके हाथों में ऊन सलाई देख पूछ बैठी,‘ किसके लिये स्वेटर बुन रही हो ?’
‘मोंटी के लिये...।’ सहज स्वर में उत्तर दिया था। थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे लेकर सुबह शाम घूमने जाने लगीं। जिंदगी चल निकली थी लगता था कि उनके जीवन का बुरा अध्याय समाप्त हो गया है और अब यह घटना...समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उन्हें दिलासा दे....?
विमल और दीपेन्दु डाक्टर को साथ लेकर आने से रमा के विचारों पर ब्रेक लग गया। डाक्टर ने आते ही उन्हें नींद का इंजेंक्शन लगा दिया। विमल और दीपेन्दु जाकर उस बेजुबान को दफ़ना आये। सब चले गये किन्तु वह उनके पास ही बैठी रही। विमल के लौटने पर वह घर आ गई पर मन बेहद विचलित था उसे चिंतित देखकर उसकी छह वर्षीया पोती शिखा जो सुबह से पूरे घटनाक्रम को देख रही थी, ने तोतली आवाज़ में कहा, ‘ दादी, क्या मोंटी वाली दादी का मोंटी मल गया...?’
‘हाँ बेटी...।’ रमा ने उसे अंक में छिपाते हुए कहा ।
‘दादी, वह अब कभी नहीं आयेगा...।’ उसकी आँखों में प्रश्न था ।
‘हाँ बेटी...।’ इस बार रमा की भी आँखों में आँसू आ गये। ये आँसू मोंटी के प्रति श्रद्धांजली थे या अपनी अभिन्न मित्र सुषमा के दुख से द्रवित होने के कारण थे, वह समझ नहीं पाई ।
‘क्या इसीलिए वह लो रही हैं...? मेला यह सिल्की उन्हें दे दीजिए...वह चुप हो जायेंगी...।’ शिखा ने सिल्की को सहलाते हुए कहा।
‘लेकिन बेटा, यह तो तुम्हारा है, तुमने ज़िद करके इसे मँगाया था...।’
‘तो क्या हुआ ? मैं दादाजी से कहकर दूसरा मँगवा लूँगी...।’
शिखा अक्सर मोंटी से खेलने सुषमा के घर जाती रहती थी तथा उन्हें मोंटी वाली दादी कहकर बुलाती थी। इस संबोधन पर सुषमा को भी कोई एतराज नहीं था वरन् वह उसकी प्यार भरी बातें सुनकर खुश ही होती थीं। कुछ दिन पूर्व सुषमा को अपनी ननद के लड़के के विवाह में जाना पड़ा। तब शिखा मोंटी को न पाकर उस जैसा ही पप्पी लेने की ज़िद करने लगी तो दीपेन्दु ने ही उसे वैसा ही पप्पी लाकर दे दिया थ । तब शिखा नेे उसके मुलायम रेशमी बालों को देखकर उसका नाम सिल्की रखा था अतः उसके अप्रत्याशित प्रस्ताव को सुनकर रमा आश्चर्यचकित रह गई तथा पुनः बोली,‘ लेकिन बेटा, यह तो तुम्हारा है...।’
‘तो क्या हुआ दादी, जब मेले पास यह नहीं था तब मोंन्टी वाली दादी मुझे अपने मोंटी से खेलने देती थीं...अब जब उनके पास मोंटी नहीं है तब मैं अपना सिल्की उन्हें दे दूँगी। वैसे भी दादी, यह मेले साथ खेलता ही नहीं हैं, छोटा है न, बस चुपचाप बैठा लहता है...औल कपड़े गंदा करता रहता है।’ अपनी गीली फ्राक को दिखाते हुए उसने तोतली आवाज़ में कहा।
शायद ऐसा कहकर वह अपनी बात को उचित ठहराने का प्रयास कर रही थी वरना जब से वह आया था, स्कूल से आने के बाद वह उसके साथ खेलती रहती थी यहाँ तक कि अपने पास ही उसे लेकर ही सोती थी। हाथ में लेकर चलने में कहीं गिर न जाए इसलिये एक छोटी सी बास्केट में कपड़ा बिछाकर वह आराम से उसमें बिठाती तथा उसमें रखकर घूमती थी।
शिखा की बातों को सुनकर रमा की आँखों में आँसू आ गये...सच कितना अंतर है हम बड़ों में और बच्चों में...कहने को तो हम बड़ा होने का दावा करते हैं लेकिन किसी के मन के अहसास को समझ नहीं पाते...तभी लोग सुषमा के दिल के अहसास को समझने की बजाय उसका मजाक बनाने से नहीं चूके । क्या प्यार इंसान, सिर्फ इंसान से ही कर सकता है...? यह संकुचित सोच इंसान को कितना ओछा बना देती है...?
सुषमा की स्थिति पर हँसने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हैं, इंसान न केवल सजीव चीज वरन् निर्जीव चीज से भी प्यार करता है तभी तो वह अपनी पुरानी से पुरानी चीज सहेज कर रखता है । लोग तो अपने लगाये पेड़ पौधों को भी मुरझाने नहीं देते फिर मोंटी तो सजीव था और सुषमा का सब कुछ...उनका बच्चा, उनका साथी, उनका हमदर्द...सच कहें तो उसने उनकी जिंदगी को नई दिशा दी थी । सुषमा की जिस पीड़ा को वंदना जैसी महिलायें नहीं समझ पाई थी, उसे इस नन्हीं जान ने समझ लिया था तथा उसका उपाय भी सोच लिया था। उसे अपने अंश पर गर्व हो आया था...वास्तव में इंसान वही है जो किसी के दुख में दुखी हो न कि उसका मजाक बनाये।
‘क्या सोच रही हो दादी, चलो न मोंटी वाली दादी के घर...।’ वह उसका हाथ पकड़कर उनके घर ले आई ।
सुषमा अपने बेड पर बैठी मोंटी की उस तस्वीर को निहार रही थीं जो उन्होंने उस समय खींची थी जब वह एक साल का हुआ था। पास में बैठे विमल उनसे कुछ खाने का आग्रह कर रहे थे पर उनकी आँखों से आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
‘मोंटी वाली दादी, मोंटी आपके पास नहीं लहा तो क्या हुआ, आप मेला सिल्की ले लीजिए.।’ उसने छोटी सी बास्केट जिसमें सिल्की था, उनको देने का प्रयास करते हुये कहा ।
‘नहीं बेटा, यह तो तुम्हारा है...।’ सुषमा ने अपने आँसू पोंछते हुए उससे कहा ।
‘दादी, यह आपका भी तो है, जब मेले पास यह नहीं था तब आप मुझे अपने मोंटी से खेलने देती थीं। अब जब आपके पास आपका मोंटी नहीं है तब आप इसके साथ खेलिये...मैं अपने इस डाॅगी से खेल लूँगी...।’ उसने अपने दूसरे हाथ में पकड़े साफ्ट टाॅय वाले खिलौने की तरफ इशारा करते हुए कहा ।
‘युग-युग जीओ मेरी बच्ची, तुमने मेरे लिये इतना सोचा वही मेरे लिये बहुत है पर तुम्हारी दादी तुमसे तुम्हारा सिल्की कैसे ले सकती है ?’ कहते हुए उसने शिखा को गोद में उठाकर अपने सीने से लगा लिया।
‘मैंने जिसे चाहा वही मुझसे दूर चला गया पर अब मैं किसी के मोह के जाल में नहीं फसूंगी...अब मैं जीऊँगी तो सिर्फ अपने लिये।’ सुषमा ने अपने आँसू पोंछते हुए उससे ज्यादा शायद स्वयं से कहा।
‘तुम्हीं कहती थी न कि छोड़ दो मोह ममता...व्यर्थ की चिंता...जो होना होगा वह होगा ही...शायद तुम ठीक थीं रमा। अब मैं किसी के मोह के जाल में नहीं फँसूगी...सिर्फ अपने लिये जीऊँगी।’ रमा को आश्चर्य से अपनी ओर देखते देखकर सुषमा पुनः बोली।
रमा सोच रही थी कि मोह के जाल का तिलस्म सच बड़ा ही दुखदाई होता है। वस्तुतः जो इससे छूट पाता है वही सुख शांति से रह पाता है पर आज तक क्या कोई तिलस्म से निकल पाया है ? कहना आसान है पर अमल में लाना बहुत ही कठिन है पर फिर भी सुषमाजी के दृढ़ निश्चय से कहे वाक्य ने एक नई सुबह का संकेत दे ही दिया था। मोह के जाल के दायरे में कैद जिंदगी को जीने की राह मिल गई थी।