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Prapanna Kaushlendra

Others

5.0  

Prapanna Kaushlendra

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वो चला गया पुरानी कोट पहन कर

वो चला गया पुरानी कोट पहन कर

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वो साथ बैठा था पास ही। मगर वो वो नहीं था। जो था वो तो कब का छोड़ चुका था। साथ तो था मगर उसका मन साथ नहीं था। साथ थी तो उसकी यादें। यादों में पुरानी बातें और पीछे घटी घटनाएँ। कॉरपोरेट जगत में ऐसा ही होता है। होता कुछ ऐसे ही है गोया किसी को ख़बर नहीं लगती। किसी को भी, कभी भी एक पल में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। और जिसे बाहर का रास्ता दिखाते हैं उसे मालूम होता है कि उसे किस तरह से जाना है। किसी को भी पता न चले और वो चला गया।

कॉरपोरेट जगत में यह बहुत आम बात है। एच.आर जिसे बुलाता है उसे दो ही विकल्प देता है- पहला, या तो आप जॉब छोड़ दो या फिर हम आपको निकाल देंगे। सामान्य तौर पर लोग पहला वाला विकल्प चुनते हैं, मैं ही इस्तीफ़ा देता हूँ। यह एक इज्ज़त वाला रास्ता है। कम से कम लोगों को वास्तविकता का तो इल्म नहीं होगा।

लेकिन इंसान है इंसान है तो उसकी कुछ संवेदनाएं होंगी। लेकिन कॉरपोरेट संवेदनाओं से नहीं चलती बल्कि यहां सिर्फ तर्क और तर्क काम करता है। विवेक और यथार्थ काम किया करता है। जिसे निकालना है उसे बहुत ही कठोर शब्दों में कह दिया जाता है कल से आपको आने की ज़रूरत नहीं। लेकिन जो कर्मी है वह इस शब्द के ध्वन्यार्थ को समझ नहीं पाता और अपने काम पर लौट आता है। इसका ख़मियाज़ा ज़लालत से पूरा करना पड़ता है। उससे अचानक लॉपटाप मांग लिया जाता है। मांगना नहीं बल्कि छीन लिया जाता है। तब कैसा महसूस होता होगा। इसका अनुमान नहीं लगा सकते हैं।

कहते हैं शब्दों के बीच की रिक्तता और अर्थों को समझ सकें तो वह समझदार हैं। भावनाएं कई बार हमें मजबूर कर देती है। कई बार हम भावनाओं में इस कदर बह जाते हैं कि हमें इस का एहसास तक नहीं होता कि क्या चल रहा है हमारी हवाओं में।

ज़्यादा कुछ नहीं कह सकता शायद कह न सकूं किन्तु विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास का शीर्षक हमने उधार ली। और कहा जा सकता है कि वो आया और पुरानी कोट पहनकर यूं चला गया कि अंत में औरों से अलविदा कहने का मौका भी मयस्सर न हो सका।

जो लोग सरकारी नौकरी किया करते हैं उनके लिए यह नया और मानिख़ेज अनुभव होगा। क्यों मत पूछें। क्योंकि सरकारी नौकरी में हायर किए जाते हैं, फायर करने में एड़ी चोटी की मेहनत लगती है। उस तुर्रा यह कि फायर करने की प्रक्रिया भी बहुत लंबी होती है। इसलिए सरकारी नौकरी वालों आपलोग कितने बदनसीब हैं कि आप उस तज़र्बे से बेख़बर हैं, जब किसी को रातों रात या दिन भर में कह दिया जाता है कि लैपटॉप जमा करें और कल से आने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में उस कर्मचारी के लिए सरकारी नौकरों जो कॉरपोरेट में वह महज एक ह्यूमन रिसोर्स होता है जिसे मैनेज करने के लिए एक विभाग काम किया करता है। इस विभाग में काम करने वाले सचमुच कितने मुश्किल दौर से गुज़रते होंगे इसका अंदाज़ शायद ही हमें हो। एचआर हेड जिसे सुबह गुडमॉनिंग कह आए थे, उसे ही दोपहर बाद कहना और बोलना पड़ता है कि आप इस्तीफ़ा देंगे या हम आपको आज ही फायर करें। बेहतर होगा आज आप इन कागज़ों पर दस्तख़त कर घर बैठ जाएं और नई जॉब तलाश करें। यह आपके सम्मान के लिए ठीक होगा। कोई यह तो नहीं समझेगा कि आपके पास नौकरी नहीं है। आदि आदि। इस तरह के या उस तरह के वाक्यों में एचआर विभाग बातें किया करते हैं। हस्ताक्षर में कोई कमी या बदलाव नहीं होते। जब वह ज्वाइनिंग के वक़्त किया करता है और वही दस्तख़त वह उस शाम या सुबह किया करता है जिसके बाद उसकी ज़िंदगी एक नई राह पर थम कर चला करेगी। इस दौरान उस व्यक्ति की जांच, उसके कामों एवं व्यवहारों पर पैनी नज़र रखी जाती है। कब आता है, क्यों आता है? उसके लैपटॉप में क्या क्या डेटा है आदि। तत्काल उससे सारे कामों का लेखाजोखा लेकर उसे कह दिया जाता है नमस्ते।

एक कहानी सुनाता हूँ । यह कहानी किसी भी मैनेजमेंट के छात्र या इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वालों के लिए उपयोगी केस स्टडी हो सकती है। विशेषकर मैनेजमेंट के छात्रों को कहानियों इन केस स्टडी के मार्फत किसी कंपनी की रणनीति, सफलता, प्रोजेक्ट में आने वाली चुनौतियों, बाधाओं, सक्सेस, लागत आदि की समझ मिलती है। और फलां प्रोजेक्ट में यदि विलंब हुआ तो क्यों हुआ इसका मूल्यांकन एवं प्रतिबिंबन रिफ्लेक्शन आदि निकाला करते हैं। बजाए कि मैंनेजमेंट का प्रोफेसर आपको सिद्धांत बताएं आपको किसी कंपनी या प्रोजेक्टर की पूरी कहानी बताते हैं और उस दौरान किसी लीडर व प्रोजेक्ट मैनेजर ने क्या रास्ते, रणनीति, कार्ययोजना, एक्शन प्लान बनाए और कैसे वह प्रोजेक्ट को सफलता की ओर मोड़ पाया आदि की व्यवहारिक समझ दिया करता हैं। आपसे पूछा जाता है कि यदि आप उस स्थिति में होते तो क्या, क्यों और कैसे कदम और निर्णय करते।

दिल्ली के सिग्नेचर ब्रीज को पूरा होने में पूरे आठ साल का विलंब हुआ। इसे एक केस स्टडी के तौर पर पढ़ और समझ सकते हैं। फर्ज़ कीजिए एक संस्था है जो पिछले पांच वर्षों में अपने तकरीबन दस व ग्यारह मुखिया देख चुका हो। उसके अनुभव कैसे होंगे? वह संस्था व प्रोजेक्ट भिन्न भिन्न प्रोजेक्ट मैनेजर की निगरानी में गति, प्रगति, ठहराव, स्थिरता, जड़ता आदि का भी नाम दे सकते हैं जिसे सुनने को मिले हों। जिस पर यही लांछन लगे हों कि यह संस्था तो सरकारी होती जा रही है। इस संस्था में कोई जान नहीं। कोई गति नहीं और न ही आगे बढ़ने, नया करने और नवाचार करने से गोया गुरेज़ हो आदि। क्या अनुमान लगाना इतना कठिन है कि आप समझ न सकें कि जिस संस्था व प्रोजेक्ट को पिछले पांच व छह वर्षों में ग्यारह मैनेजर मिले हों उस संस्था का क्या चरित्र और कार्य शैली बची होगी। तुर्रा इसपर यह आरोप कि यहां के कर्मी कामचोर और सरकारी हो गए हैं। क्या यह नहीं समझना जाना चाहिए कि जब जब मैनेजर बदले गए तब तब उस उस की कार्य शैली में संस्था और संस्था के लोग काम करने के भरपूर प्रयास किए होंगे। या फिर उन्हें यह सुनने को मिला होगा कि आपलोग को काम करना ही नहीं आता। नए मैनेजर को आपलोग स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं। ग़लती उसमें नहीं बल्कि आपलोगों में है। बज़ाए कि उस नए मैनेजर को अपनी अपेक्षाएं, लक्ष्य, औचित्य, मकसद आदि से चुनाव पूर्व व ज्वाईन करने के बाद समय समय पर बताया जाए या जाता। संभव है वह मैनेजर अपेक्षित उम्मीदों को पूरा करने में अपनी क्षमता और टीम की मदद लेता। लेकिन क्या उन मैनेजरों से नई नई अपेक्षाएं पालने वाले एवं तुरत फुरत में काम मांगने वालों की मैनेजरीयल स्कील पर सवाल नहीं उठता कि यदि आपने किसी नए को हायर किया है तो उसे कम से कम पर्याप्त मौका और मार्गदर्शन दिया जाए ताकि उसे काम करने का अवसर तो मिले। लेकिन जल्दी में हैं स्लेक्शल करने में और फायर करने में दोनों ही प्रक्रियाओं जल्दीबाजी ठीक नहीं होती। वह ज्वाईन भी कर लेता है किन्तु जब उसे पता चलता है कि यहां कि कहानी ही ऐसी है कि कई ऐसे हैं जिन्हें बेआबरू हो कर निकलना या निकाला गया है। सो आप की क्या हस्ती। ...और मैनेजर की संख्या में इज़ाफा होता रहा...।


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