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Charumati Ramdas

Drama

4.0  

Charumati Ramdas

Drama

द्वंद्व - युद्ध - 04

द्वंद्व - युद्ध - 04

21 mins
471


लेखक : अलेक्सान्द्र कूप्रिन

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास



बाहर घनी, अंधेरी रात थी अत: शुरू में तो रमाशोव को अंधे की तरह टटोल टटोल कर रास्ता खोजना पड़ा। विशाल रबड़ के जूतों में उसके पैर घने, चीकट कीचड़ में गहरे धँस जाते और वहाँ से चपचप की आवाज़ करते, सीटी बजाते बाहर निकलते। कभी कभी तो एक जूता इतनी ज़ोर से अंदर घुस जाता कि उसके भीतर से बस पैर ही बाहर निकल आता, और तब रमाशोव को एक पैर पर संतुलन बनाते हुए अंधेरे में दूसरे पैर से अंदाज़ से कीचड़ में ग़ायब हो गए जूते को ढूँढ़ना पड़ता।


वह जगह मृतवत् हो गई थी, कुत्ते भी नहीं भौंक रहे थे। छोटे छोटे सफ़ेद घरों की खिड़कियों से धुंधला प्रकाश झाँक रहा था और पीली भूरी ज़मीन पर लम्बे तिरछे पट्टे बना रहा था। मगर गीली और चिपचिपी बागड़ से, जिनके किनारे किनारे रमाशोव सहारा लेकर चल रहा था, पोप्लर वृक्षों की कच्ची गीली छाल से, रास्ते के कीचड़ से कुछ बसंती सी, तेज़, ख़ुशनुमा, कुछ मदहोश कर देने वाली ख़ुशबू आ रही थी। सड़क पर चल रही तेज़, असमान गति से, रुक रुक कर, कँपकँपाते हुए, घबराते हुए, शरारत करते हुए।


निकोलायेव के घर के सामने पहुँच कर सेकंड लेफ्टिनेन्ट रुक गया एक मिनट के लिए कमज़ोरी और दुविधा में पड़ गया। छोटी छोटी खिड़कियों पर मोटे मोटे भूरे परदे लगे थे, मगर उनके पीछे से प्रखर प्रकाश का एहसास हो रहा था। एक स्थान पर परदा एक लम्बी, सँकरी चिप बनाते हुए कुछ मुड़ गया था। रमाशोव ने परेशान होते हुए और धीमें से साँस लेते हुए खिड़की के काँच से अपना चेहरा सटा लिया, मानो डर रहा हो कि कमरे के भीतर उसकी साँसों की आवाज़ कोई सुन न ले।


उसने चिर परिचित हरे कवर वाले दिवान पर सिर और कंधे झुकाए बैठी अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना का चेहरा और उसके कंधे देखे। बैठने के अंदाज़ से और शरीर में हो रही सहज हलचल से, झुके हुए सिर से ज़ाहिर हो रहा था कि वह कढ़ाई कर रही है।


अचानक वह सीधी हो गई, उसने सिर ऊपर को उठा। “वह क्या कह रही है?” रमाशोव ने सोचा। अब वह मुस्कुराई। “कितना अजीब है खिड़की से आप बात करते हुए व्यक्ति को देखते हो मगर उसे सुन नहीं पाते”


अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना के चेहरे से मुस्कुराहट ग़ायब हो गई, माथे पर बल पड़ गए। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए, ज़िद्दीपन से, जल्दी जल्दी, और अचानक फिर से मुस्कुराने लगे शरारत से, उपहास से। उसने सिर हिलाया धीरे से, “शायद, मेरे बारे में कुछ कह रही है?” रमाशोव ने सकुचाहट से सोचा।


इस युवा महिला से, जिसे वह इस समय ग़ौर से देख रहा था, कुछ शांत सा, साफ़ सुथरा, सुकून भरा सा बहकर रमाशोव की ओर आ रहा था। उसे ऐसा लगा वह कोई सजीव, लुभावनी, चिर परिचित तस्वीर देख रहा है। “शूरच्का” रमाशोव भाव विभोर होकर फुसफुसाया।


अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना ने अप्रत्याशित रूप से अपना सिर उठाया और फौरन उत्तेजना से खिड़की की ओर मोड़ दिया। रमाशोव को ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह सीधे उसकी आँखों में देख रही हो। डर के मारे उसका दिल सर्द होकर सिकुड़ गया और वह फ़ौरन दीवार के बाहर निकले कोने के पीछे छिप गया। एक मिनट के लिए वह हिचकिचाया। वह घर वापस जाने के लिए तैयार हो गया, मगर फिर अपने आप पर काबू पाकर छोटे से गेट से किचन में प्रविष्ट हुआ।


जब निकोलाएव का सेवक कीचड़ में सने उसके बड़े जूते निकालकर अन्दर के जूतों को किचन के कपड़े से साफ़ कर रहा था और रमाशोव चश्मे को अपनी निकट दृष्टिक आँखों के निकट लाकर उसके काँच पर जम आई धुंध को रुमाल से पोंछता रहा था, ड्राइंग रूम से अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी, “स्तेपान, क्या ये ऑर्डर्स लाए है?"


“यह, वो जान बूझ कर पूछ रही है” सेकंड लेफ्टिनेन्ट ने अपने आप से कहा। “जानती तो है कि मैं हमेशा इसी समय पर आता हूँ”


 “नहीं, यह मैं हूँ, अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना” वह दरवाज़े से बनावटी आवाज़ में चिल्लाया।


”आह! रोमच्का! अच्छा, आइए, आइए। आप वहाँ क्या कर रहे है? वोलोद्या, रमाशोव आया है”


रमाशोव अन्दर आया, संकोच और फूहड़पन से कमर झुकाते हुए और बग़ैर बात के हाथ मलते हुए।


 “कल्पना कर सकता हूँ, कि मैं आप लोगों को कितना बोर करता हूँ, अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना”


उसने यह बात ख़ुशी और बेतकल्लुफ़ी से कहने की कोशिश की, उसे फ़ौरन महसूस हुआ कि उसने इसे बड़े अटपटे और कृत्रिम ढंग से कहा है।


“फिर से बेवकूफ़ी” अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना चहकी। “बैठिए, चाय पियेंगे”


उसकी आँखों में बड़े ध्यान से, आरपार देखते हुए, उसने, आदत के मुताबिक़ जोश से अपने छोटे से, गर्म और नर्म हाथ से उसका ठंडा हाथ दबाया। निकोलाएव उनकी ओर पीठ करके किताबों, नक्शों और ड्राइंग्स से अटी मेज़ के पास बैठा था। उसे इस साल जनरल स्टाफ़ की अकाडेमी की परीक्षा पास करनी थी और पूरे साल वह बड़ी मेहनत से, बिना किसी छुट्टी के परीक्षा की तैयारी कर रहा था। यह उसका तीसरा साल था क्योंकि पिछले दो सालों से वह लगातार फ़ेल हो रहा था।


पीछे मुड़े बिना, अपने सामने रखी खुली किताब में नज़रें गड़ाए गड़ाए निकोलाएव ने कंधे के ऊपर से रमाशोव की ओर हाथ बढ़ाया और शांत, घन गंभीर आवाज़ में बोला, “नमस्ते, यूरी अलेक्सेइच। कोई नई ख़बर? शूरच्का ! इसे चाय दो। आप मुझे माफ कीजिए, मैं व्यस्त हूँ"


"सचमुच, मैं बेकार में ही आया” रमाशव ने फिर से निराश होकर सोचा, “आह, कैसा बेवकूफ़ हूँ मैं”


“नहीं, काहे की नई ख़बर? सेंटॉर मेस में लेफ्टिनेन्ट कर्नल लेख़ के बारे में भद्दी ख़बरें फैला रहा था। कहते है कि वह पूरी तरह नशे में धुत था। कम्पनी में हर जगह बुतों को तलवार से काटने की बात कर रहा है, एपिफ़ान को क़ैद करवा दिया”


“अच्छा?” निकोलाएव ने बेध्यानी से पूछा। “और बताइए, प्लीज़”


 “मुझ पर भी पड़ी। चार दिनों के लिए एक लफ़्ज़ में कहूँ, तो नई ख़बरें पुरानी ही है”


रमाशोव को अपनी आवाज़ कुछ पराई से कुछ घुटी घुटी सी प्रतीत हुई। “कितना दयनीय लग रहा हूँ मैं”, उसने सोचा और तभी उसने अपने आप को संयत कर लिया। उस आम तरीक़े से जिसका सहारा शर्मीले स्वभाव के व्यक्ति लेते है।


“जब भी तुम उलझन में पड़ जाते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है मानो इसे देख रहे है, मगर असल में सिर्फ़ तुम्हें ही इसका पता होता है, औरों को ज़रा भी नहीं”


वह शूरच्का की बगल में कुर्सी पर बैठ गया जो क्रोशिये को जल्दी जल्दी चलाती हुई कुछ बुन रही थी। वह कभी भी ख़ाली नहीं बैठती थी और घर के सभी मेज़पोश, रुमाल, लैम्पशेड्स और परदे उसी के हाथों से बुने गए थे।


रमाशोव ने सावधानी से हाथों में धागा लिया, जो गोले से उसके हाथ में जा रहा था, और पूछा, “इस बुनाई को क्या कहते है?”


 “गीप्युर। यह आप दसवीं बार पूछ रहे है”


शूरच्का ने अकस्मात् ध्यान से सेकंड लेफ्टिनेन्ट की ओर नज़रें उठाईं और फ़ौरन वापस बुनाई पर जमा दीं। मगर तभी दुबारा उसकी ओर देख कर मुस्कुराने लगी।


 “आप भी न, यूरी अलेक्सेइच। आप आराम से सीधे सीधे खड़े हो, सिर ऊपर जैसा आप की रेजिमेंट में कमांड देते है”


रमाशोव ने गहरी सांस लेकर तिरछी नज़र से निकोलाएव की मोटी गर्दन की ओर देखा, जो भूरे कोट के ऊपर से सफ़ेदझक् दिखाई दे रही थी।


 “ख़ुशनसीब है व्लादीमिर एफ़ीमिच” उसने कहा। “गर्मियों में पीटर्सबुर्ग जाएगा, अकाडेमी में प्रवेश लेगा”


”हूँ, देखना है” शूरच्का ने पति की ओर देखते हुए तंज़ से कहा। “दो बार शर्म से रेजिमेन्ट में वापस लौटे है। अब यह आख़िरी मौक़ा है”


निकोलाएव ने पीछे मुड़ कर देखा। उसका फ़ौजी और सुहृदय, मूँछों वाला चेहरा लाल हो गया और बड़ीबड़ी, काली, बैल जैसी आँखें क्रोध से दहकने लगीं।


”बकवास मत करो, शूरच्का ! मैंने कहा है, पास कर लूँगा तो बस, पास कर लूँगा” उसने पूरी ताक़त से हथेली के किनारे से मेज़ पर ठक ठक किया। “तुम बस बैठ कर कौए की तरह काँव काँव करती रहती हो। मैंने कह दिया”


 “मैंने कह दिया” बीबी ने उसकी नकल करते हुए कहा और उसी के समान, अपनी छोटी सी, साँवली हथेली से घुटने पर ठक ठक किया।


“अच्छा, तुम मुझे यह बताओ कि किसी टुकड़ी की युद्ध संरचना करते समय किन किन शर्तों को पूरा करना पड़ता है? आप को मालूम है”, आँखों में धृष्टता एवम् शरारत का भाव लाते हुए वह रमाशोव की ओर देख कर मुस्कुराई, “मैं इससे ज़्यादा अच्छी तरह लड़ाई के टैक्टिक्स जानती हूँ। हूँ, वोलोद्या, जनरल स्टाफ़ के ऑफ़िसर, कौन कौन सी शर्तों का?”


 “बकवास, शूरच्का , बन्द करो”, अप्रसन्नता से निकोलाएव गुर्राया।


मगर अचानक वह अपनी कुर्सी समेत बीबी की ओर मुड़ा और उसकी चौड़ी खुली, ख़ूबसूरत और बेवकूफ़ी भरी आँखों से उलझनभरी असमर्थता, लगभग डर, झाँकने लगे।


 “रुक, लड़की, वाक़ई में मुझे पूरा याद नहीं है। युद्ध संरचना? युद्ध संरचना इस तरह की होनी चाहिए कि गोलाबारी से उसका कम से कम नुकसान हो। फिर, आदेश देने की दृष्टि से सुविधाजनक हो। फिर रुक”


 “इस रुकने की क़ीमत चुकानी पड़ती है”, शूरच्का ने संजीदगी से उसकी बात काटते हुए कहा।


फिर उसने एक अच्छी स्कूली बच्ची की तरह अपनी आँखें बंद करके, आगे पीछे डोलते हुए तोते की तरह कहना शुरू कर दिया।


 “युद्ध संरचना करते समय इन शर्तों का पालन करना पड़ता है: फुर्ती, गतिशीलता, लचीलापन, कमांड की दृष्टि से सुविधाजनक होना, युद्धस्थल से अनुकूलनशीलता; गोला बारी से उसका कम से कम नुकसान हो, शीघ्रता से सिमटने और फैलने की एवम् फ़ौरन मार्चिंग संरचना में परिवर्तित होने की क्षमता बस”


उसने अपनी आँखें खोलीं, मुश्किल से साँस ली और अपने चंचल, मुस्कुराते हुए चेहरे को रमाशोव की ओर करके पूछा, “ठीक है?”


 “ओफ़, शैतान! क्या याददाश्त है” ईर्ष्या से, मगर उत्तेजना से निकोलाएव ने अपनी किताबों में डूबते हुए कहा।


“हम सब कुछ साथ ही करते है”, शूरच्का ने समझाया। “मैं तो यह इम्तिहान अभी पास कर लूँ। ख़ास बात यह है”, उसने हवा में क्रोशिए से मारते हुए कहा, “सबसे ख़ास बात है सिस्टम, एक तरीक़ा। हमारी सिस्टम मेरी अपनी खोज है, मुझे इस पर गर्व है। हर रोज़ हम थोड़ी सी गणित, थोड़ा सा युद्ध विज्ञान पढ़ते है। आर्टिलेरी, वाक़ई में मेरे बस की बात नहीं है। कैसे कैसे घिनौने फार्मूले होते है, ख़ास कर बेलिस्टिक्स में, फिर हम थोड़ा सा रूल्स और रेग्युलेशन्स के बारे में पढ़ते है। फिर एक दिन छोड़कर दोनों भाषाएँ, भूगोल और इतिहास”


 “और रूसी?” रमाशोव ने सौजन्यतावश पूछ लिया।


 “रूसी? वह तो बकवास है। ग्रोत की किताब से शुद्ध वर्तनी तो हम कर चुके है। और निबंध, सबको (“यदि शांति चाहते हो तो युद्ध की तैयारी करो” – अनु), अनेगिन का चरित्र उसके युग के संदर्भ में”


और अचानक जोश में आते हुए, सेकंड लेफ्टिनेन्ट के हाथों से धागा निकालते हुए जिससे कि उसका ध्यान कहीं और न बंटे, उसने शिद्दत से बताना शुरू कर दिया कि उसकी दिलचस्पी, वर्तमान में उसके जीवन का प्रमुख लक्ष्य क्या है।


 “मैं, नहीं रह सकती, नहीं रह सकती यहाँ, रोमच्का! मुझे समझने की कोशिश करो! यहाँ रुकने का मतलब है आपका पतन। रेजिमेंट की भद्र महिला बनना, आपकी जंगली महफ़िलों में जाओ। किस्से, कहानियाँ, सुनो, सुनाओ, षड़यंत्र करो, रोज़मर्रा के और गाड़ियों के खर्चों के बारे और फालतू चीज़ों के बारे में कुड़कुड़ाते रहो। “बुर्रर्रर्र” सहेलियों के साथ ये घृणित “बाल्स” आयोजित करो, ताश खेलो। आप कहते है कि हमारे यहाँ काफ़ी आरामदेह है। ख़ुदा के लिए इस बुर्जुआ शानो शौक़त के सामान को देखिए! ये लेसें और ये एम्ब्रोयडरी मैंने अपने हाथों से इन्हें बुना है। यह ड्रेस मैंने ख़ुद इसे दुबारा बनाया है। यह भौंडा, रोंएदार, टुकड़ों से बना हुआ फटीचर दीवान कवर, यह उबकाई लाने वाली चीज़ें, भौंडी! भद्दी! आप समझ रहे है, प्यारे रोमच्का, कि मुझे वाक़ई में एक बड़ी, वास्तविक सोसाइटी की ज़रूरत है। रोशनी, संगीत, जी हुज़ूरी, ख़ुशामद, ज़हीन लोगों से बातचीत। आप जानते है, वोलोद्या ने गोलेबारुद की ईजाद तो नहीं की, मगर वह ईमानदार, मेहनती आदमी है। उसे बस जनरल स्टाफ़ में प्रवेश मिलने दो, और क़सम खाती हूँ मैं उसका करीयर बेहतरीन बना दूँगी। मुझे भाषाएँ आती है, मैं किसी भी सोसाइटी में घुलमिल सकती हूँ। मुझमें मालूम नहीं उसे कैसे कहते है। रूह का वह लचीलापन है, कि मैं हर जगह अपने लिए जगह बना लेती हूँ। हर किसी से मेलजोल बना लेती हूँ। आख़िर में, रोमच्का, मेरी ओर देखो, ध्यान से देखो। क्या मैं इतनी नीरस इंसान हूँ, और क्या इतनी बदसूरत औरत हूँ, कि मुझे सारी ज़िन्दगी इस गन्दगी में सड़ना पड़े, इस घृणित जगह में, जो किसी भी भूगोल के नक्शे पर नहीं दिखाई गई है” और उसने फ़ौरन अपना चेहरा रूमाल में छुपा लिया लिया और कड़वे, स्वाभिमानी, गर्वीले आंसू बहाते हुए ज़ोर से रोने लगी।


चिंतित होकर पति असहाय और परेशान सा फ़ौरन उसकी ओर लपका। मगर तब तक शूरच्का ने अपने आप पर क़ाबू पा लिया था और चेहरे से रुमाल हटा लिया था। आँखों में अब आँसू तो नहीं थे मगर वे अभी भी हिकारत से दहक रही थी।


 “ठीक है, वोलोद्या, कोई बात नहीं है, प्यारे”, उसने हाथ से उसे हटाया।


और तुरंत हँसते हुए वह रमाशोव से मुख़ातिब हुई और उसके हाथों से धागा छीनते हुए शरारत और अदा से बोली, “जवाब दीजिए, अनाड़ी रोमच्का, मैं ख़ूबसूरत हूँ या नहीं? अगर महिला आपसे तारीफ़ चाहती है, तो उसे जवाब न देना बहुत बड़ी अशिष्ठता है”


 “शूरच्का, कुछ तो शर्म करो” निकोलाएव ने अपनी जगह बैठे बैठे भर्त्सना से कहा।


रमाशोव सकुचाते हुए शहीदों के अन्दाज़ में मुस्कुराया मगर उसने फ़ौरन संजीदगी और दर्द भरी कँपकँपाती आवाज़ में जवाब दिया, “बेहद ख़ूबसूरत है”


शूरच्का ने कस कर आँखें बंद कर लीं और शरारत के भाव से सिर को झटका दिया, जिससे उसके माथे पर कुछ घुंघराली लटें बिखर गईं।


 “रोमच्का, कितने अजीब है आप” उसने अपनी बच्चों जैसी पतली आवाज़ में मानो उसका दिल बड़ी बेदर्दी से तोड़ दिया।


सब ख़ामोश हो गए। शूरच्का ने जल्दी जल्दी क्रोशिया चलाना शुरू किया। व्लादीमिर एफ़िमोविच जो तुस्सेन और लंगेंशैद्ट की सेल्फ स्टडी बुक से वाक्यों का जर्मन में अनुवाद कर रहा था, हौले हौले नाक में उन्हें दुहराता जा रहा था। तंबू के आकार के पीले शेड़ से ढँके लैम्प से लौ की सनसनाहट और फड़फड़ाहट सुनाई दे रही थी। रमाशोव ने फिर से धागे को अपने हाथ में ले लिया और धीरे से, इतने धीरे से कि उसे ख़ुद को भी पता न चले, उसे युवा महिला के हाथों से खींचने लगा। उसे यह महसूस करके हल्की सी ख़ुशी का अनुभव हो रहा था कि कैसे शूरच्का के हाथ अनजाने ही उसके प्रयत्नों का प्रतिकार कर रहे है। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो इस धागे से होकर एक जोड़ने वाली, उत्तेजित करने वाली अदृश्य तरंग बह रही है।


साथ ही वह एक किनारे से, चुपचाप, मगर लगातार उसके झुके हुए सिर की ओर देखता रहा और सोचता रहा। होठों को मुश्किल से हिलाते हुए, मन ही मन ख़ामोश सी बुदबुदाहट से मानो शूरच्का से भाव विहल होकर कितनी निडरता से उसने पूछ लिया, “क्या मैं सुन्दर हूँ? आह! तुम ख़ूबसूरत हो! मेरी प्यारी! मैं बैठा हूँ और तुम्हारी ओर देख रहा हूँ कितना भाग्यशाली हूँ मैं! सुनो, मैं तुम्हें बताऊँगा कि तुम कैसी सुंदर हो। सुनो, तुम्हारा साँवला फीका मुख है। कामुक चेहरा है और उस पर लाल लाल जलते हुए होंठ, वे कैसे चूमते होंगे और आँखें हल्के पीले साये से घिरी हुई, जब तुम सीधे देखती हो तो तुम्हारी आँखें आसमानी हो जाती है। बड़ी बड़ी पुतलियों में धुंधली, गहरी नीलाई छा जाती है। तुम भूरे बालों वाली तो नहीं हो, मगर तुम में कुछ जिप्सियों जैसा है। मगर तुम्हारे बाल इतने साफ़ और इतने महीन है और उनका जूड़ा इतनी सादगी से, इतना बेफ़िकरी से, इतनी सफ़ाई से बनता है कि उसे छूने को जी चाहता है। तुम इतनी छोटी, इतनी हल्की हो कि मैं तुम्हें एक बच्चे के समान हाथों में उठा लेता। मगर तुम लचीली हो, सशक्त हो, तुम्हारा वक्षस्थल किसी बच्ची जैसा है, और तुम पूरी की पूरी इतनी जल्दबाज़, इतनी चंचल हो। दाएँ कान पर, नीचे की ओर, एक छोटा सा जन्म चिन्ह है, मानो इयर रिंग का निशान हो यह लाजवाब है”


“क्या आपने अख़बारों में ऑफ़िसर्स के द्वन्द्व युद्ध के बारे में पढ़ा है?” अचानक शूरच्का ने पूछा।


 रमाशोव हड़बड़ा गया और बड़ी मुश्किल से उसने उससे नज़र हटाई।


 “नहीं, नहीं पढ़ा। मगर सुना है। कोई ख़ास बात?”


 “बेशक़, आप, आम तौर से कुछ नहीं पढ़ते है। ये सच है, यूरी अलेक्सेयेविच, कि आप नीचे गिर रहे है। मेरे ख़याल से तो कोई बेवकूफ़ी हुई है। मैं मानती हूँ कि ऑफ़िसर्स के बीच में द्वन्द्व युद्ध एक आवश्यक और एकदम सही चीज़ है” शूरच्का ने दृढ़विश्वास के साथ बुनाई को सीने से लगा लिया।


“मगर ऐसी अव्यावहारिकता क्यों? सोचिये, एक लेफ्टिनेन्ट ने दूसरे का अपमान कर दिया। अपमान बड़ा गहन था और ऑफ़िसर्स की सोसाइटी ने द्वन्द्व युद्ध की घोषणा कर दी। शर्तें एकदम ऐसी जैसे कि मृत्यु दंड दिया जा रहा हो। पन्द्रह क़दम की दूरी और तब तक युद्ध करते रहो, जब तक गंभीर रूप से ज़ख़्मी नहीं हो जाते। अगर दोनों प्रतिद्वन्दी अपने पैरों पर खड़े है तो फिर से गोलियाँ दागी जाती है। यह तो क़त्ल हुआ, ये न जाने क्या है! मगर, ठहरिए, ये तो कुछ भी नहीं। द्वन्द्व युद्ध के स्थान पर रेजिमेंट के सभी अफ़सर आते है, न केवल उनकी पत्नियाँ साथ में होती है, बल्कि झाड़ियों में कहीं फ़ोटोग्राफ़र भी छुपा बैठा रहता है। यह भयानक है, रोमच्का! और अभागा सेकंड लेफ्टिनेन्ट, एनसाइन होता है, वोलोद्या के मुताबिक़, तुम्हारे जैसा, और ऊपर से वही, अपमानित, न कि अपमान करने वाला, तीसरी गोली के बाद पेट में गहरी ज़ख़म खाता है और शाम तक तड़पते हुए मर जाता है। पता चलता है कि उसकी एक बूढ़ी माँ है और बहन, ज़मीन्दार की बड़ी बेटी, जो उसके साथ रहती थी, जैसे कि हमारे मीख़िन के यहाँ है। आगे सुनिए, किसलिए, किसे ज़रूरत थी इस द्वन्द्व युद्ध से ऐसा ख़ूनी नाटक करने की? और यह, ध्यान दीजिए, द्वन्द्व युद्धों को मंज़ूरी मिलने के तुरंत बाद की, हाल ही की परिस्थिति है। मेरा यक़ीन कीजिए, यक़ीन कीजिए” शूरच्का चीख़ी, उसकी आखें मानो जल रही थी, “ऑफ़िसर्स के द्वन्द्व युद्धों के भावुक विरोधी, ओह, ख़ूब जानती हूँ मै आह, कैसा जंगलीपन है! वहशी युग के अवशेष! आह, अपने ही भाई की हत्या” 


 “मगर आप तो ख़ून की प्यासी है, अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना” रमाशोव ने फ़ब्ती कसी।


“नहीं, मैं ख़ून की प्यासी नहीं हूँ, नहीं” तीव्रता से उसने प्रतिवाद किया। “मैं तो बड़ी दयालु हूँ। अगर कोई कीड़ा भी मेरी गर्दन पर चढ़ जाए तो मैं उसे बिना कोई नुकसान पहुंचाए हल्के से निकाल देती हूँ। मगर, समझने की कोशिश करो, रमाशोव, यहाँ सिर्फ़ एक तर्क की बात है। अफ़सर किसलिए होते है? युद्ध के लिए। युद्ध के लिए सबसे अहम् ज़रूरत किस बात की होती है? बहादुरी की, स्वाभिमान की, मृत्यु के सामने भी आँखें न झपकाने की योग्यता की। ये सारे गुण शांति के दिनों में कहाँ प्रकट होते है? द्वन्द्व युद्धों में, बस, यही बात है। शायद, आप समझ गए है। ख़ास तौर से ग़ैर फ्रांसीसी अफ़सरों के लिए द्वन्द्व युद्ध ज़रूरी है, क्यों कि फ्रांसीसियों के तो खून में ही आत्म सम्मान की भावना, बढ़ चढ़ कर, होती है। जर्मनों के लिए भी वे ज़रूरी नहीं है, क्यों कि सभी जर्मन जन्म से ही सलीका पसन्द और अनुशासन प्रिय होते है, बल्कि हमें, हमें, हमें उनकी ज़रूरत है! तब हमारे यहाँ ऑफ़िसर्स के बीच अर्चाकोव्स्की जैसे पत्ताचोर नहीं होंगे, या हमारे नज़ान्स्की जैसे हमेशा नशे में धुत रहने वाले ओफ़िसर नहीं होंगे; तब ऑफ़िसर्स मेस में हमेशा होने वाली गाली गलौज और एक दूसरे के सिर पर ग्लास मारने की हरकत बन्द हो जाएगी। तब आप एक दूसरे का अपमान नहीं करेंगे। एक अफ़सर को हर शब्द तौल कर बोलना चाहिए। अफ़सर एक नमूना होना चाहिए सदाचरण का और फिर ये क्या नज़ाकत वाली बात हुई। गोली से डर जाना! आपका पेशा ही है जीवन को दाँव पर लगाने का। आह, और क्या”


उसने चिढ़ कर अपनी बात बीच ही में रोक दी और तन्मयता से अपने काम में डूब गई। फिर से ख़ामोशी छा गई।


 “शूरच्का , जर्मन में –प्रतिद्वन्द्वी शब्द का अनुवाद क्या होगा?” निकोलाएव ने किताब से सिर उठाते हुए पूछा।


 “प्रतिद्वन्द्वी?” शूरच्का ने सोचते हुए क्रोशिए से अपने नर्म बालों को छुआ। “पूरा वाक्य बोलो”


 “यहाँ लिखा है।अभी, अभी बताता हूँ, हमारा विदेशी प्रतिद्वन्द्वी”


 “Unser auslandischer Nebenbuhler”, शूरच्का ने फट् से अनुवाद कर दिया।


“उंज़ेर”, रमाशोव ने सपनों में खोकर लैम्प की लौ की ओर देखते हुए सोचा, "जब उसे कोई चीज़ उत्तेजित करती है," उसने सोचा, “तो उसके शब्द इतने दनादन्, खनखनाते हुए और साफ़ साफ़ निकलते है, जैसे चांदी की तश्तरी पर मूसलाधार बारिश हो रही हो” उंज़ेर कितना अजीब शब्द है उंज़ेर, उंज़ेर, उंज़ेर”


 “ये तुम क्या फुसफुसा रहे हो, रोमच्का?” अचानक अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना ने सख़्ती से पूछा। “मेरे सामने पागलपन करने की ज़रूरत नहीं है”


वह अनमनेपन से मुस्कुरा दिया।


 “मैं पागलपन नहीं कर रहा हूँ। मैं तो मन ही मन दुहरा रहा था, उंज़ेर। उंज़ेर, कैसा अजीब शब्द है”


“ये क्या बेवकूफ़ी है? उंज़ेर? वह अजीब कैसे हो गया?”


 “देखिए” वह सोचने लगा कि अपनी बात कैसे समझाए, “ अगर किसी एक शब्द को काफ़ी देर तक दुहराया जाए और उसके बारे में एकाग्रता से सोचा जाए तो वह अचानक अपना मतलब खो देता है और ऐसा हो जाता है। कैसे बतलाऊँ आपको?”


 “आह, जानती हूँ, जानती हूँ” जल्दी से और ख़ुशीखुशी शूरच्का ने उसकी बात काटी, “बस, अब यह करना इतना आसान नहीं है, जैसा कि पहले, बचपन में हुआ करता था, आह, कितना दिलचस्प था यह”


“हाँ, हाँ, बचपन ही में। हाँ”


“मुझे बख़ूबी याद है। वह लफ़्ज भी याद हो सकता है”। मैं बन्द आँखों से आगे पीछे डोलती रहती थी और दुहराया करती, “हो सकता है, हो सकता है, और अचानक पूरी तरह भूल गई कि उसका मतलब क्या है, फिर कोशिश करने लगी मगर याद ही नहीं आया। मुझे बस यही एहसास होता रहा जैसे वो दो पूँछों वाला कोई भूरा, लाल धब्बा हो। ठीक है ना?”


रमाशोव स्निग्धता से उसकी ओर देखता रहा।


“कितनी अजीब बात है कि हम दोनों के ख्याल एक से है”, उसने हौले से कहा। “और उंज़ेर आप समझ रही है, कोई बड़ी, महान चीज़ है, कोई दुबली पतली सी चीज़, डंक वाली। जैसे कि कोई लम्बा, पतला कीड़ा हो, और बहुत ज़हरीला”


 “उंज़ेर” शूरच्का ने सिर उठाया और आँखों को सिकोड़ते हुए दूर, कमरे के अंधेरे कोने में देखने लगी। रमाशोव के कथन को कल्पना में साकार करने की कोशिश करते हुए।


“नहीं, रुकिए, यह कोई हरी सी, तीक्ष्ण चीज़ है। हाँ, हाँ, बेशक कीड़ा ही है! टिड्डे जैसा, मगर और ज़्यादा घृणित और ज़्यादा ज़हरीला”


“हुंह, कैसे दीवाने है, रोमच्का”


 “और, ऐसा भी होता है”, रमाशोव ने भेद भरी आवाज़ में कहा, “वही बचपन में यह ज़्यादा स्पष्ट हुआ करता था। मैं किसी शब्द का उच्चारण करता और उसे जितना हो सके, लम्बा खींचने की कोशिश करता। हर लफ़्ज को खींचता जाता, खींचता जाता। अचानक मुझे बड़ा अजीब अजीब सा एहसास होने लगता, मानो मेरे चारों ओर की हर चीज़ ग़ायब हो गई हो। तब मुझे बड़ा अचरज होने लगता कि यह मैं बोल रहा हूँ, यह मैं ज़िन्दा हूँ, यह मैं सोच रहा हूँ”


“ओ, मुझे भी यह मालूम है” शूरच्का ने प्रसन्नता से उसकी बात को पकड़ते हुए कहा। “बस, ऐसे नहीं। मैं, अपनी साँस रोकने की कोशिश करती, जितना संभव होता, और सोचती, यह, मैं साँस नहीं ले रही, अभी भी साँस नहीं ले रही, अब तक, अभी तक, और तब यह अजीब बात होती। मुझे महसूस होता, कैसे मेरे सामने से वक़्त गुज़र रहा है। नहीं, ऐसा नहीं, वक़्त बिल्कुल ख़त्म हो जाता। इसे समझाना मुश्किल है”


रमाशोव ने उसकी ओर मुग्धता से देखा और शांत, प्रसन्न और हल्की आवाज़ में दुहराया, “ हाँ, हाँ, इसे समझाया नहीं जा सकता। यह अजीब है, यह समझाने से परे है”


 “अरे, मनोविशेषज्ञों, या जो भी तुम लोग हो, बस, बहुत हुआ, खाने का समय हो गया है”, निकोलाएव ने कुर्सी से उठते हुए कहा।


काफ़ी देर बैठे रहने के कारण उसके पैर सो गए थे और पीठ दर्द कर रही थी। उसने पूरी ऊँचाई में अपने आप को खींचा। हाथों को ज़ोर से ऊपर की ओर खींचा और सीने को बाहर की ओर निकाला और इस जोश भरी हरकत से उसके बड़े डीलडौल वाले, गठीले बदन की नस-नस में चरमराहट हो गई।


छोटे से मगर अच्छे डाइनिंग हॉल में, जो धुंधले सफ़ेद बल्ब की तेज़ रोशनी से प्रकाशित हो रहा था। कोल्डडिश रखी हुई थी। निकोलाएव तो नहीं पीता था, मगर रमाशोव के लिए वोद्का की छोटी सी सुराही रखी हुई थी। अपने चेहरे पर उलाहने का भाव लाते हुए शूरच्का ने लापरवाही से, जैसा कि वह अक्सर किया करती थी, पूछा, “ आपका काम तो इस घिनौनी चीज़ के बग़ैर नहीं न चल सकता?”


रमाशोव झेंपते हुए मुस्कुराया और घबराहट के कारण वोद्का के पहले ही घूंट में उसे ज़ोर का ठसका लगा।


“आप को शर्म भी नहीं आती” मेज़बान ने उसे डाँटते हुए कहा, “अभी पीना भी नहीं आता, और चले है। मैं समझती हूँ, आपके प्यारे नज़ान्स्की को तो माफ़ किया जा सकता है। वह तो अव्वल दर्जे का पियक्कड़ है, मगर आप को क्या ज़रूरत पड़ गई? इतने जवान है, अच्छे ख़ासे है, क़ाबिल है मगर बगैर वोद्का के मेज़ पर नहीं बैठेंगे आख़िर क्यों? यह सब नज़ान्स्की का किया धरा है, वही आप को बिगाड़ रहा है”


उसका पति जो अभी अभी लाए हुए रेजिमेन्ट के ऑर्डर्स पढ़ रहा था, अचानक चहका, “आह, इत्तेफ़ाक़ की बात है, नज़ान्स्की घरेलू कारणों की वजह से एक महीने की छुट्टी पर जा रहा है। च्, च्! इसका मतलब है, पी पीकर टें बोल गए। आप, यूरी अलेक्सेइच, शायद, उससे मिले है? क्या उसने बेहद पी ली है?”


रमाशोव संकोच से पलकें झपकाने लगा।


“नहीं, मैंने ग़ौर नहीं किया। मगर, लगता है, वह अक्सर पीता रहता है”


“आपका नज़ान्स्की घिनौना है” शूरच्का ने कटु, संयत और नीची आवाज़ में कहा। “अगर मेरे बस में होता, तो मैं ऐसे लोगों को पागल कुत्तों की तरह गोली मार देती। ऐसे ऑफ़िसर रेजिमेन्ट के नाम पर धब्बा है, घृणित”


भोजन के तुरंत बाद निकोलाएव, जिसने खाना भी वैसे ही दबाकर और दिल से खाया था, जैसे वह अपनी पढ़ाई करता था, जम्हाई लेने लगा और आख़िरकार उसने खुल्लमखुल्ला कह ही दिया, “दोस्तों, अगर मैं एक मिनट के लिए एक झपकी ले लूँ तो कैसा रहेगा? “झपकी लेना” जैसा कि पुराने उपन्यासों में लिखा जाता था”


 “बिल्कुल सही कहा आपने, व्लादीमिर एफ़ीमिच” रमाशोव ने, जैसा कि उसे स्वयम् प्रतीत हुआ, एक तत्पर एवम् चापलूसी भरी बेतकल्लुफ़ी से कहा. फ़ौरन ही मेज़ से उठते हुए उसने अलसाएपन से सोचा, “हाँ, यहाँ मेरे साथ किसी तरह की औपचरिकता नहीं दिखाई जाती। फिर मैं क्यों अड़मड़ाता हूँ?”


उसे ऐसा अनुभव हो रहा था मानो निकोलाएव उसे प्रसन्नता पूर्वक अपने घर से भगा रहा है। मगर फिर भी जानबूझकर शूरच्का से पहले उससे बिदा लेते हुए वह मगन होकर सोच रहा था कि बस, अभी अभी प्यारे ज़नाना हाथ का मज़बूत और सहलाता हुआ स्पर्श महसूस करेगा। हर बार बिदा लेते समय वह इस बारे में सोचता था। और जब वह घड़ी आती, तो वह इस सम्मोहक स्पर्श में तन मन से इतना खो जाता कि उसने यह भी नहीं सुना कि शूरच्का उनिकलते समय ही उन्हें समझ पाया।


“हाँ, मेरे साथ कोई तकल्लुफ़ नहीं किया जाता”, कड़वे अपमान की भावना से वह बुदबुदाया, जिसकी ओर उसके हम उम्र और तीव्र आत्म समान वाले नौजवानों का झुकाव होता है।

ससे कह रही है, “देखिए, आप हमें भूल न जाइए। यहाँ आपके आने से हम हमेशा ख़ुश होते है। अपने नज़ान्स्की के साथ बैठकर शराब पीने के बदले यहाँ बैठा कीजिए। बस, इतना याद रहे, हम आपसे कोई औपचारिकता नहीं बरतते”


उसने इन शब्दों को अपनी चेतना में सुना और केवल बाहर या और गहर हवा भी बस


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