बेबस सफर
बेबस सफर
ऑफिस के काम ख़त्म करके मैंने दिल्ली से अपने गंतव्य की बस पकड़ी। हल्की सर्दियाँ शुरू हो चुकी थी। रोडवेज़ की वो बस अपने कंगन खनकाते हुए आगे बढ़ी जा रही थी, मुझसे पहले के किसी यात्री ने स्वाद या फिर बस ऐसे ही जुगाली करने के मूड से च्विंग गम चबाया होगा और जब उसकी मिठास ख़त्म हो गई तो उसे बस के शीशे के सुपुर्द कर दिया। उस च्विंग गम के अटके होने कि वजह से खिड़की पूरी तौर पर बंद नहीं हो पा रही थी। मेरे आगे की सीट पर एक भद्र - सी दिखने वाली महिला अपने नवजात शिशु के साथ बैठी थी। मैं यही सोच रहा था के इतने छोटे बच्चों के साथ लोग सफ़र ही क्यों करते हैं तभी उस महिला की खनकती आवाज़ मेरे कानों पर पड़ी। कुछ तिलमिलाई सी आवाज़ में वो बोली,
"भैया आप खिड़की बंद क्यूँ नहीं कर देते।"
उसकी बात सुनकर बस हाथ अपने आप ही उस च्विंग गम की ओर बढ़ गए। पर च्विंग गम भी हठी स्वाभाव की थी कुछ देर जतन करने के बाद मैंने भी हार मान ली।
मेरे बाजू वाली सीट पर एक 50-55 साल का अधेड़ व्यक्ति अपने ही आप में किसी उधेड़बुन में लग हुआ था। कभी अपना मोबाइल हाथ में लेता उसे उम्मीद कि नज़रों से देखता फिर उसे अपने पुराने और मैले से कुर्ते कि जेब में डाल लेता और बस थी कि फ़िल्मी गानों कि धुन पर नाचे जा रही थी। कई नए गानों के बीच बस के स्टीरियो ने जब किशोर कुमार का "तुम आ गए हो नूर आ गया है" बजाया बगल में बैठे बुजुर्ग कि आँखें चमक - सी उठीं। मेरी तरफ देखके बोले,
"आजकल के गानों में वो दम कहाँ जो किशोर और रफ़ी के गानों में थी। आजकल के गायक तो नाक, मुंह और गले से गाते हैंI किशोर दा दिल से गाते थे।"
और फिर वो मुझे किशोर और रफ़ी के किस्से ऐसे सुनाने लगे जैसे घर का - सा आना जाना हो। इन बातों में ऐसे मगन हुए की माथे कि शिकन दूर - सी होने लगी थी। तभी उनके फ़ोन कि घंटी बजी… "तुम आ गए हो, नूर आ गया है…" और वो मुंह को हाथ से दबाकर कुछ बात करने लगे।
फ़ोन कटने के बाद उनके चेहरे की मायूसी और बढ़ चुकी थी। जाने क्यूँ मेरा हाथ उनके हाथ पर चला गया और मेरे हाथ का स्पर्श मिलने के साथ ही उनके आँखों की हिम्मत टूट गई। मेरे मुंह में शब्द मानों जम से गए थे और मैं भी ठिठका - सा उनके चेहरे की ओर देखता रह गया। तभी पीछे से किसी ने पूछा,
"बाऊ जी क्या हुआ, कोई दिक्कत है क्या ?"
"नहीं नहीं बेटा कोई दिक्कत नहीं है बस यूँ ही, कोई परेशानी की बात नहीं है।"
मैंने भी उनका हाथ छोड़ दिया और खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा पर दिमाग में कई तरह के ख्याल तैरने से लगे। बड़ी हिम्मत जुटाकर मैं बाऊ जी की तरफ घूमा तो देखा वो अपना सामान समेट रहे थे। मेरी तरफ देख के बोले,
"बेटा कुछ कहूं तो मानोगे ?"
"जी बताइए।”
"बेटा स्त्री समाज की निर्मात्री भी होती है और इज्जत भी I हमेशा उसकी इज्जत करना।"
इतना बोलने के साथ ही बस रुकी और वो उतर कर चल दिए। मुझे अब उनपर खीज - सी आने लगी और उनकी मुफ्त की सलाह पर गुस्सा भी।
"आखिर मैंने ऐसा क्या किया जो बुड्ढा मुझे ही नसीहत देकर चला गया ! अब खिड़की बंद न होने में मेरा तो कोई दोष नहीं है।"
मैं सोच ही रहा था कि मेरा हाथ अख़बार पर पड़ा।
"लो जी बुढऊ अखबार तो संभाल नहीं सकता मुझे नसीहत दे रहा था।"
मैंने अनायास ही अख़बार के कुछ पन्ने पलट दिए। एक खबर को लाल पेन के निशान से घेरा हुआ था। मेरी नज़र के लिए यह कुतूहल का विषय था और मैंने अपनी आँखे उस खबर पर गड़ा दीं।
पर खबर पढ़ते ही मेरे हाथों में अजीब - सी कंपकपी महसूस होने लगी। खबर किसी और निर्भया के बारे में थी, जो जुल्मियों से लड़ते हुए मौत के कगार पर थी।
मेरे मुंह से बस इतना ही निकला,
"शायद ये एक पिता था...।"