मन चंगा तो कठौती में गंगा
मन चंगा तो कठौती में गंगा
हिंदू धर्म की विशेषताओं में एक है मन चंगा तो कठौती में गंगा। कहते हैं कि गंगा स्नान से सारे पाप धुल जाते हैं। एक साहब हुए राज कपूर गाते हुए मेरा नाम राजू, घराना अनाम, बहती है गंगा जहां मेरा धाम। जब उनकी जवानी के दिन थे, उम्र बढ़ी तो घोषित कर दिया राम तेरी गंगा मैली। भारी झूठ। राम के पास तो सरयू है। गंगा तो हमेशा शिव के पास रही। कहते हैं कि सर्पराज का फुंकार का विष गंगा में जाता रहता है जिसे कछुए – सोस ( अब यह डॉलफिन कहा जाता है ) उस विष को पी कर उसे शुद्ध बनाते थे। अब न रहे सोस तो गंगा तो मैली हो गई। वैसी हालत में नागराज के गद्दे पर विश्राम करते हुए विष्णु को कुछ न कुछ करना ही था। सो कर दिया। उनके एक भक्त को इस योग्य की घोषणा कर सके कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। पर यह इतना सरल नहीं था। विष्णु में साहस नहीं था कि विप्र गण के शाप से टकरा सकें। अब वह नरसिंह राव हो चुके थे – मौन व्रत के सरकारी प्रवक्ता।
अब कठौती का किस्सा तो आपको मालूम ही है। उस काल के पंचतत्व वाले राजन थे। उन्हें नहीं मालूम था कि काला धन संजो के रखने वाले देश स्वीडन की गंगा राइन नदी में मछलियां जब मरने लगीं तो एक आंदोलन बन गया जो इंडिया के मूर्ख अनुवादकों और सरकारी कामकाज करने वालों के कारण पर्यावरण आंदोलन हो गया। लेकिन पहले से ही हिंद में सोच था छिति – जल- पावक – गगन – समीरा यानी पंचतत्व। और यह भी आप जानते हैं कि इस आंदोलन और हर प्रकार के आंदोलन की ऐसी की तैसी करने का इंडिया माहिर है। पर वह राजन नहीं था। मछली मरे नहीं, इसलिए उसने मछली को कठौते में डाल दिया। मछली बड़ी होती गई, कठौता बड़ा होता गया। इसलिए भक्त का कठौता काफी बड़ा था।
होता यह था कि विष्णु को गाहे बगाहे कभी कृष्ण बन कर, कभी राम बन कर बहुत पांव पैदल चलना पड़ता था। ऐसी हालत में उन्हें जूता – चप्पल की ज़रूरत पड़ती थी। यह भक्त ही तो जूता – चप्पल बनाता था। उसके कठौते में सूखा चमड़ा मुलायम होने के लिए पड़ा रहता था। बस उस भक्त की एक ही बुरी आदत थी। नदी तीरे जिस ओर विप्र गण स्नान करते थे उसकी उलटी दिशा में यह भी सूर्य को जल अर्पित करता था। विप्र जन से दूर जल अर्पण करने के कारण वह अपने कठौते के पास विलंब से पहुंचता था जिस कारण राम – कृष्ण का जूता –चप्पल विलंब से राम – कृष्ण तक पहुंचता था। इस विलंब के कारण असुर गण आश्रम में जा कर उनकी गायों का भक्षण कर लेते थे। विप्र गण केवल शाप देते रहते थे। लेकिन गौ भक्षण से शिव की सवारी नंदी को बड़ा कष्ट हुआ। प्रश्न उसके वंश का था, ‘हे भोले भंडारी, मारी जा रही है मेरी नारी, कुछ करें भोले शंकर – मेरा वंश रह जाएगा बंजर।’
नंदी के बचन सुन कर शिव ने अपनी नंदी की सवारी गांठी और पहुंच गए चमड़ों को मुलायम करते हुए भक्त के पास और पुकारा ‘हे दास, पूरी हो तुम्हारी आस।’ भक्त अपने आप में मगन गाता – गुनगुनाता हुआ कह रहा था ‘चमड़ा कहे चमार से, तू का रोंधे मोय, एक दिन ऐसा आएगा – मैं रोधूंगी तोय।’
अब भक्त ने देखा साक्षात शिव को, साक्षात दण्डवत कर बोला, ‘हे विश्वनाथ, न तो आपसे वर मांग रहा हूं, न दान। गाना तो मैं चमड़ा का गाता हूं, इसी के बल पर दाल रोटी चलाता हूं। बताइए – कैसा पदत्राण चाहिए। धरती पर आइए – चरण का नाप दे दीजिए।’
‘हम तुमसे प्रसन्न भये दास, तुम मांगो या ना मांगो, तुमको दिए जाते हैं तुम्हारी कठौता में गंगा।’ बस गंगा बोले ही और माथे के बाल के जू में फंसी गंगा कहना था कि शिव की जटा में फंसी गंगा कठौते में समा गईं। शिव को भी लगा कि सिर हल्का हो गया। फिर बोले, ‘आज से तुम्हारा नाम रवि दास, गंगा किनारे रवि दर्शन को न जाओगे, यहीं कठौते में रवि दर्शन कर पाओगे। पर हां गंगा किनारे जा कर समय बरबाद न करना, बस राम कृष्ण के चरण पादुका तैयार रखना – क्यों। तो बताओ नंदी।’
हिंदी पिक्चरों के जूनियर कलाकारों के समान नंदी को भी बोलने का अवसर मिला। वस्तुत: कैलाश से पृथ्वी की ओर आते हुए उन्होंने अमुल का विशाल होर्डिंग देखा था जिसमें कृष्ण से अमुल बाला कह रही थी, ‘माखन चोरी ही कृष्ण का चोरी चरित्र है, माखन लगाना ही इंडिया का चरित्र है ’।वही दुहरा दिया नंदी ने और शिव जैसे आए थे वैसे ही चले गए बोलते हुए ‘राम – कृष्ण को चरण पादुका की कमी न हो रवि दास !
बात यहीं खत्म ना हुई। रवि दास का कामकाज चल निकला हुआ यह था कि जब से राज कपूर ने ऐलान कर दिया था कि राम तेरी गंगा मैली और मैली गंगा में बिच्छु की जान बचाने के लिए साधु धर्मेंद्र देव ने सत्यकाम की भूमिका निभाई थी, तब से रवि दास की कठौता में नहाने वालों की लाइन लगी रहती थी। हुआ कुछ ज्यादा नहीं था। मामूली सी बात थी। कठौता शिव का दिया था, गंगा उसमें बहती थी। पर उस काल में ऐसे लोग हो गए थे जो पर्यावरण की रक्षा के लिए देश विदेश घूम आए थे। उन्हें यह ज्ञान मिला था कठौता यानी स्वीमिंग पूल में स्नान पूर्व भी स्नान करना ज़रूरी होता है और स्नान के बाद भी।
गया वह युग जब बहता पानी निर्मला कहते थे। यहां तो भक्तों के स्नान से हरिद्वार की गंगा मैली हो गई थी। यह तो कठौता था। चमड़ा भी यहां मुलायम होने के लिए पड़ा रहता था। यह तो वास्तविक मैली गंगा है। तो उस पर्यावरणविद ने मधुमेह के चिकित्सक के यहां से साफ सुथरी सैनिटाइज शीशी प्राप्त की – एक नहीं दो। और पहुंचा रवि दास की मन चंगा कठौती में गंगा के पास। अब उसके सामने नया संकट था। रवि दास के नामकरण के बारे में वह जानता नहीं था और मोची राम कहना उसे उचित न लगा। तब तक दलित शब्द का प्रयोग आरंभ हो गया था। उसे लगा यही उचित संबोधन है, ‘दलित श्री, दो बूंद अपनी गंगा जल का दे दें, हम इसका परीक्षण करवाएंगे कि यह शुद्ध है या नहीं है। ’
रवि दास ने उन्हें ध्यान से देखा और उत्तर दिया ‘शिव की जटा की गंगा है, जटा में धूल – माटी – भी हो सकता है – आप इसका अवश्य परीक्षण कराएं, शुद्ध हो तो प्रमाण पत्र न देना क्योंकि शुद्ध गाय का पानी मिला अपवित्र दूध जब पवित्र हो सकता है तो शुद्ध जटा की गंगा कैसे अपवित्र हो सकती है, जाएं परीक्षण कराएं।’
पर्यावरणविद को लगा कि केवल रवि दास के कठौता का जल का परीक्षण उचित नहीं है। गंगा जल का भी परीक्षण होना चाहिए। अतएव वह गंगा जहां से गंगा हो जाती है हरिद्वार पहुंचे। पर्यावरणविद ने वहां देखा कि धर्मेंद्र देवल सत्यकाम के अशोक कुमार के समान साधु रूप में गंगा जल में जब भी डुबकी लगाने का प्रयास करते थे तभी एक बिच्छु उनकी राह में गंगा जल में बहते हुए आ जाता था । धर्मेंद्र ने हमेशा बहते हुए लोगों को बचाने का काम किया था – फिल्मों में ही सही, किया तो था। साधु रूप में तो उनका कर्तव्य ही था कि बहते हुए को बचाएं। पर एक पेंच पर्यावरणविद को दिख रहा था, बिच्छु को धरती फेंकने के बजाय उसे जल में ही फेंक देते थे। पर वह बिच्छु तो राजनीतिक दलों या यूं समझें कि समाज वादियों – वाम पंथियों के समान था कि लाख बचाने की कोशिश करो, बचता ही नहीं था। उलटा फिर धारा के बहाव में साधु की तरफ आ जाता था और डंक मारता था।
पर्यावरणविद को लगा कि यह कैसा साधु है, बार बार डंक मारता है बिच्छु और बार बार उसे जल बहाव में छोड़ देता है साधु। उसे लगा कि रहस्य क्या है – पर्यावरणविदों की आदत ही होती है रहस्य को खोलने की और लोगों को डंक से बचाने की। फिर यह पर्यावरणविद जीव – जंतुओं का भी प्रेमी था। उसकी जंतु प्रेम वाली कविता के कारण उसकी प्रसिद्धि भी थी।
कविता कुछ ऐसी थी :
‘एक दिन तड़के, वह निकला
देखा केंकियाते हुए मुलायम पिल्लों को
उठा लाया टाट के टुकड़े
जीव दया समिति का सचिव!
उसने साधु से कहा, ‘साधु जी, आप बार बार बिच्छु को डंक मारने के बाद भी उसे जल धारा में ही छोड़ देते हैं – आपको न तो अपनी देह की चिंता है,न जीव हत्या की। बिच्छु को धरती की मिट्टी की ओर फेंक दीजिए। धरती का जीव है,धरती में समा जाएगा।’
साधु ने पर्यावरणविद की ओर देख कर कहा, ‘मेरे डंक की चिंता न करो, बिच्छु प्रेमी हमने वह दस्ताना पहन रखा है जिसके कारण डंक का कोई असर मेरे ऊपर नहीं पड़ता – और अगर इस प्राणी को धरती पर फेंक दूंगा तो तुरंत मर जाएगा।’
पर्यावरणविद सोच में पड़ गया। उसे सोचता देख रवि दास ने कहा ‘यूं तो मेरा काम वित्त का नहीं है, यह काम मैंने एक अनपढ़, एक औरत और एक अंधे पर छोड़ दिया है, फिर भी संगत से गुन होत हैं, संगत से गुन जाए के तरज पर हमने भी कुछ वित्त रचा है।
पर्यावरणविद को अजीब लगा एक अनपढ़, एक औरत और एक अंधा कौन है। पूछा भी उसने ‘ये कौन लोग हैं ?’
‘अनपढ़ हैं कबीर, औरत है मीरा और अंधा हैं सूरदास जिनकी तर्ज पर मैं हुआ रवि दास,’ रवि दास ने जानकारी दी।
अब पर्यावरणविद को लगा कि यह साधु तो कुत्ता – कमीना, मुश्किल कर दूंगा जीना टाइप का कवित्त सुनाएगा सो उसने निवेदन किया, ‘महाराज मैं परीक्षण नहीं कराऊंगा – कवित्त का शुभ विचार त्याग दें।’
‘लो त्याग दिया, पर एक लाइन सुन लो – मेरा नहीं बहुत बड़े कवि का है। नाम है जिसका नाम कोई न जाने अज्ञेय। तो उन्होंने कहा कुछ कुछ ऐसा कहा था सांप तुम तो शहर में रहते नहीं, फिर विष कहां से पाया, डंसना कहां से सीखा। आप चाहो हो कि बिच्छु को हम शहर में छोड़ दें और यह समय से पहले मारा जाए।‘
यह वचन सुनकर उसने परीक्षण कराने का विचार त्याग दिया और कठौती लोकप्रिय होता गया। अब आप तो जानते ही हैं कि जब किसी की दुकान चल पड़ती है तो वह सहारा हो जाता है। रवि दास भी सबके सहारा हो गए। धन बरसता था, उनके जूते – चप्पल के लिए नहीं,उनकी कठौती में डुबकी लगाने के लिए। इस तरह जगत में प्रसिद्ध हुआ – मन चंगा तो कठौती में गंगा।
अब यहां एक ही प्रश्न है कि मन चंगा हो तो कठौती में गंगा। इसी बात पर एक नारा का पैरोडीकरण हुआ। नारा था और हमेशा रहेगा : मेरा भारत महान, पैरोडी बनी – सौ में निन्यानवे बेईमान! आखिर हम हैं भारत की संतान ! करते रहें आप हिंदू – मुसलमान ! भूल जाए इस नारा को जो कहता है हिंदू – मुस्लिम – सिख –ईसाई, हम सब आपस में भाई –भाई !
हिंदू ने शामिल कर लिया अपने में जैन और बौद्ध को! और मुसलमान कोई एक नहीं हैं। वोहरा हैं, मेमन हैं, सुन्नी हैं, शिया हैं और हैं अहमदिया। चूंकि धर्म वाले हैं, इसलिए आपस में झगड़ा वगैरह करते रहते हैं – जैन हैं तो श्वेतांबर और दिगंबर हैं, किसी की खुली आँख तो किसी की बंद। बौद्ध भी नव बौद्ध हैं। अब हैं तो हैं।