जन्तर
जन्तर
आज की सुबह और थी। हाँ, आज की सुबह की बात ही अलग थी। वह आम नहीं थी। कल बीत चुके दिन ने इसे और भी खास बनाया था। कल मेरा जन्मदिन था। जब भी माँ सुबह स्कूल के लिए जगाती है तो मुझे अच्छा नहीं लगता। तब लगता है मानो यही क्षण है जब ज़माने भर की नींद मेरी ही आँखों में बसी है। बुरा लगता है। आज, पर आज तो मानो उठते ही इतनी ताज़गी का एह्सास हुआ कि मन कुरंग की भाँति उछल रहा था। हो भी क्यों न। कल मित्रों, रिश्तेदारों से मिले कई उपहार ऐसे थे जो अभी तक मैंने खोल कर भी नहीं देखे थे। जिसके बारे में पता न हो वो क्या है पर मिलना हमें ही है। कितनी सुखद कल्पना है यह जिसे सभी आजकल 'सरप्राइज' कहते हैं। कितना जादू है ना इस शब्द में। मेरे लिए इसका मतलब है बहुत अच्छा मिलने की आशा। आशा भी क्यों बल्कि यकीन कि अच्छे अच्छे उपहार मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सुनहरे चमचमाते पैकेट में जो उपहार बुआ ने दिया था, बुआ ने बता दिया था, "ले, तेरे लिए एक घड़ी"। बुआ ने तो सरप्राइज की छुट्टी कर दी। उसे मैंने पहन कर नहीं देखा था। जल्द पहनूँगा। कई जाने अनजाने उपहार थे किताबें, फुटबॉल, कपड़े, चॉकलेट जाने क्या क्या। स्कूल के लिए देर न हो इसलिए ज्यादा नहीं देख पाया। एक के आकर्षण में ही कई मिनट गवां दिए थे मैंने। आख़िर स्कूल गया मैं। घड़ी बाँधकर। सारे वक़्त अपने को शहंशाह समझता रहा। समझता भी क्यों न। "स्मार्ट वॉच "थी। महँगी। एक बार पापा को कहते सुना था। आदमी कैसा भी हो वॉच "स्मार्ट" होनी चाहिए। पता नहीं इस बात का क्या अर्थ था। फ़िलहाल मेरी घड़ी स्मार्ट थी और मैं इसका मालिक एकदम ख़ुश। अपने बाएं हाथ को मैंने इतने प्यार से कभी नहीं देखा था जितनी बार आज देखा था। इसी ख़ुमारी में छुट्टी भी हो गई। स्कूल बस में बैठते ही ख्याल आया, अरे !अभी तो नई किताबें भी देखनी हैं। नई किताबें, नया सामान, सब कुछ नया।
सोचते सोचते में बस की खिड़की से बाहर देखने लगा। रास्ते वही पुराने थे। स्कूल जाते समय तो बाहर देखने का मन नहीं होता था पर छुट्टी के समय अक्सर मैं मुक्त मन से बाहर रास्ते,सड़कों पर देखता हुआ आता हूँ। कभी कभी दोस्तों के साथ गप्पे भी मारता हूँ जब खिड़की से बाहर नहीं देख रहा होता हूँ। पर याद है वो दिन जब मैंने बाहर देख लिया था। मैं बस के साथ भागती सड़को को ही देख रहा था। उस दिन गप्पों के लायक शायद दोस्त भी कम ही थे। बस अचानक रुकी। किसी बच्चे का घर आ गया होगा। मैंने नहीं देखा कौन उतरा। पर जो मैंने सामने फुटपाथ पर देखा, ठीक मेरी खिड़की के आगे। वह दृश्य जबरन मेरे मन में उतरने लगा। और इसी दृश्य ने मुझे यह कहानी लिखने को उकसाया। यह मेरे जीवन की वास्तविक घटना है और उतना ही बड़ा सच जितना ये कि 'सूरज पूर्व से उगता है'। डर गया था मैं उसे देख कर। मेरा हम उम्र था वो। पर बहुत कुपोषित। उसका पेट नहीं था। विज्ञान में जिसे 'स्टमक' कहते है। वह कहीं दिखा नहीं उसके नंगे शरीर में। उसने कई छेदो वाली लाल रंग की निक्कर पहनी थी। बाकी तन पर कुछ नहीं। उसका पेट के नाम जो कुछ भी था वह पीठ से मिलने को आतुर था। वह बच्चा फुटपाथ से थोड़ी दुरी पर बे-अदबी से पड़े कूड़े के ढेर से चुन कर कुछ खा रहा था। उसी के पास एक कुत्ता गुर्रा रहा था। दोनों को एक ही चीज़ चाहिए। दोनों अलग। भूंख एक। हिंदी वाली अध्यापिका ने ऐसी चीज़ों के लिए जो शब्द हमे सिखाया था उसका उपयोग यहाँ सार्थक होता है। 'वीभत्स'। यानी डरावना। बहुत डर गया था मैं। ये भी होता है। क्या ऐसे भी होता है। ऐसे भी खाया जाता है। क्यों होता है ये सब ? इसके साथ आखिर क्या हुआ ? मेरा बाल मन सिहर उठा। कुरंग मानो चूहा बन गया। मेरी मुस्कान, मेरा बायां हाथ और मेरी घड़ी, लगा सब सिकुड़कर छोटे हो गए। वो जो मेरे सामने था हाहाकार कर विशाल होता जा रहा था। विज्ञान की किताब में कुछ कुपोषित बच्चों को देखा था। आज वह जीवंत मेरे सामने है। अचानक बस चल पड़ी। मुझे राहत महसूस हुई। पर ना जाने क्यों मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।
घर आकर मैंने उपहार में मिली पुस्तक को देखना शुरू किया। वह पुस्तक महा-पुरुषों की जीवनी के बारे में थी। एक पृष्ठ पर लिखा था - 'गाँधी जी का जंतर'। जंतर शब्द देख कर उसे पढ़ने का मन हुआ। जैसे-जैसे मैं उसे पड़ता गया, मुझे वह कुपोषित बच्चा याद आने लगा। कभी आप भी पढ़ना वह जंतर। भयानक सच था उसमें। उदास हो गया था मैं उसे पढ़कर। मेरी उम्र उस वक्त १० वर्ष की थी। पर मैं उसमे छिपे मर्म को समझ पा रहा था। मुझे मेरा जन्मदिन याद आ रहा था। वो महँगी घड़ी, महंगे उपहार, स्कूल में इतराना। ये सब उस बच्चे के किस काम आ सकते थे। मेरा अहम् मेरी विलासिता दूसरों के क्या काम आ सकती है। अपनी स्मार्ट वाच पहन कर खुली सड़क पर निकलना, मजबूर लोगों को देखना और सोचना की आपकी स्मार्ट वाच उनके किस काम आ सकती है। हमारी शिक्षा और हमारा मनुष्य होना तभी सार्थक है जब वह किसी का दुःख दूर कर सके। मैं अपना जन्मदिन मनाना छोड़ दिया। मेरा संदेह और अहम् तो वक्त के साथ उस जंतर से जाता रहा। आप एक बार कोशिश कर सकते हैं।