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कुछ ख़लिश

कुछ ख़लिश

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घर में चारो और चहल पहल थी पर वो अपने ही ख़्यालो में खोये हुये थे। आँखों के सामने बीत गये बहुत से साल कुछ ऐसे ही भागे जा रहे थे, जैसे चलती ट्रेन की खिड़की से दिखते भागते हुये पेड़।

तभी बड़े बेटे ने उनके कंधे पर हाथ रखा और हैरानी से बोला " यह क्या पापा आप अभी तक तैयार नहीं हुए और आप खुश नहीं है क्या आज के दिन, मम्मा से लड़ाई हुयी क्या ?"

"लड़ाई और तेरी माँ से तुझे तो पता ही है ना जाने किस मिट्टी की बनी है तेरी माँ, जल्दी से गुस्सा ही नहीं आता उसको।"

" तो फिर क्यों उदास है आप पापा जबकी आपके लिये आज कितना बड़ा दिन है।"

" हाँ बेटा, सही कहा तुमने पता नहीं क्यों दिल में एक ख़लिश सी है जो कम ही नहीं होती, अच्छा तुम जाओ मैं तैयार होकर नीचे आता हूँ।" और जब वो तैयार होकर आये तो नीचे लगे मजमे को देखकर एक बारगी तो हैरान ही हो गये।

आज उनकी गोल्डन जुबली पर उनके ना जाने कितने यार दोस्त सामने खड़े थे और तो और उनकी जीवनसंगिनी भी इस उमर में भी इतनी दिलकश लग रही थी की वो भी एक बार तो दिवानों की तरह उन्हें देखे गये। सबने उनके आगे उपहारों का ढेर लगा दिया तभी श्रीमती ने भी शरमाते हुए एक चमकीला उपहार उन्हें थमा दिया। उपहार में झांक रहे पोस्टकार्ड को देखकर वो नामसमझी से अपनी अर्धांगिनी को निहारने लगे। तो उनकी श्रीमती जी बिल्कुल नयी नवेली दुल्हन सी शरमाती हुयी बोली " मै जानती हूँ जी आप ज़िंदगी भर इस बात पर नाराज़ रहे की एक अनपढ़ बिंदणी आपके पल्ले बांध दी गयी।आपने कई बार कोशिश भी की कि मैं कुछ लिख पढ़ लूँ पर मैं बस घर की जिम्मेदारी में ही उलझी रह गयी। कुछ दिन पहले ही मैनें सुना आप फोन पर अपने जिगरी दोस्त को बोल रहे थे मरते दम तक एक ख़्वाहिश अधूरी ही रहेगी की हमें आज तक कोई प्रेम पत्र नहीं मिला और जानते है आप आज आपकी पोती ने मुझ पर लगा अनपढ़ बिंदणी का यह टैग हटा दिया है।" सबके चेहरे पर खिलती मुस्कुराहट के बीच उनके दिल में बरसों से दबी ख़लिश चुपके से कही गुम हो गयी थी ।


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