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पाखंड

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आखिर, पारिवारिक कलह और गार्ड की नौकरी से क्षुब्ध होकर भगवानपुर के मोहन लाल के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। परिणाम स्वरूप नौकरी छोड़कर उसने सन्यास ले लिया। सिक्योरिटी कंपनी को भी न जाने क्या सुझा कि कम पढ़ा-लिखा होने पर भी उसे नौकरी पर रख लिया। कुछ दिन तक फरीदाबाद में नौकरी करने के बाद उसका तबादला चंडीगढ़ हो गया। आँफिस के दूसरी ओर हरे राम, हरे कृष्ण नामक भव्य मंदिर है। जो इतना मनोहर है कि उसकी सुंदरता देखते ही बनती है, घंटों की टंकार और आरती-भजनों की मधुर ध्वनि जब कानों में पड़ती है तो जीवन को सुखमय और आनंदमय बना देती है। मंदिर में प्रातःकाल से देर रात तक कथा और प्रवचन आदि चलते रहते हैं। उसके लंगर में दीन-दुखियों को मुफ्त भोजन भी मिलता है। अतः वहाँ सारे दिन मेला सा लगा रहता है। मंदिर का वातावरण देखकर मोहन का मन अपनी ड्यूटी में बिल्कुल न लगता था। एक तो रात की चौकीदारी, दूसरे खाकी वर्दी पहनने की मजबूरी से उसके मन में घुटन सी होने लगी। आखिर, नई जगह पर उसका कोई मित्र भी तो न था। जिसके साथ कुछ देर आनंद से गप्प-शप्प कर सके। एक दिन वह यकायक सोचने लगा - लोग दूर-दूर से चलकर मंदिर का दर्शन करने आते हैं और मैं यहीं रहकर मंदिर से वंचित रहूँ, यह ठीक नहीं है। इसलिए रोज़ सुबह दफ्तर से छूटते ही वह स्नान आदि करके मंदिर पहुँच जाता। वह वहाँ भजन और प्रवचन सुनकर आत्मविभोर हो जाता। बीच-बीच में भोग लगाने के लिए खूब प्रसाद भी मिलता। प्रसाद खा लेने के बाद उसकी भोजन की जरूरत समाप्त हो जाती। अब देखिए न ! जहाँ बिना कुछ किए ही दोनों वक्त एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व्यंजन मिलता हो, मानो, वहाँ साक्षात ईश्वर का दरबार ही है। उसे नियमित रूप से मंदिर आते-जाते देखकर एक दिन एक महात्मा ने उससे पूछा - बेटा, क्या नाम है? जी, मोहन लाल। उसने जवाब दिया। कहाँ रहते हो? साधु ने पुनः पूछा।

तब मोहन बोला - कहीं दूर नहीं, यहीं बगल वाले आँफिस में वाच मैन हूँ। इसके बाद उसने अपना पूरा परिचय देते हुए कहा - महाराज, मुझे न तो घर-परिवार में शांति मिलती है और न दफ्तर में। संसार में मुझे चारों ओर दुःख ही दुःख दिखाई देता है। मेरे कष्टों का कभी अंत ही नहीं होता। घर में देखिए तो रात-दिन महाभारत मची रहती है। बाबा, अभावों के बीच रहकर जीना कोई जीना नहीं है। आँफिस में बात-बात पर अफसरों की डाँट-फटकार सुनकर हृदय में अपार कष्ट होता है। इसलिए मैं इस सांसारिक माया मोह से बिल्कुल दूर रहना चाहता हूँ। मुझे अपने चरणों में स्थान देकर आप अब अपने शरण में ले लीजिए। कृपा करके मुझे भी प्रभु सेवा में रहकर शांतिमय और निशपाप जीवन जीने का मार्ग दिखाइए। मुझे अपना शिष्य बनाकर मेरे जीवन का अंधकार दूर करें। यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।

उसकी बातें सुनकर महात्मा जी गदगद हो गए। अंधे को और क्या चाहिए? बस, दो आँखें। वह यही तो चाहते थे। उसे परखने की गरज से उन्होंने उसे समझाते हुए कहा - बेटा मोहन, भक्तिमार्ग को लोग जैसा समझते हैं, सच में वह वैसा बिल्कुल सरल और निष्कंटक नहीं है। बल्कि, तमाम काँटों से भरा हुआ है। फिर, तुम्हारी तो अभी उम्र ही क्या है? युवावस्था से लेकर आजीवन ब्रहमचर्य का पालन करना बड़ा ही दुष्कर है। बेटा, गेरूआ वस्त्र तो कोई भी पहन सकता है। पर, सच्चा संत वही है, जो ढोंग से बिल्कुल दूर रहे। एक बात और, संत बनने के इच्छुक व्यक्ति को घर-परिवार से अलग रहकर तमाम महात्माओं की सेवा करके पहले उनकी श्रद्धा का पात्र बनना पड़ता है। तुम्हें भी ऐसा ही करना होगा। इसलिए कोई कार्य करने से पहले उसका परिणाम जान लेना बहुत ही जरूरी है। भलीभाँति बिना विचार किए ही कोई कार्य करना ठीक नहीं है। प्रभु चरणों में मन लगाना आग पर चलने के समान है। मेरी मानो तो पहले तुम खूब विचार मंथन करो। इसके बाद ही संन्यास लेने की सोचना। तभी हम तुम्हें अपना शिष्य बना पाएंगे, इस प्रकार कुछ दिन तक सोच-विचार करने के बाद एक दिन बिल्कुल भोर में ही मोहन हरे राम, हरे कृष्ण रटता हुआ मंदिर में जाकर कबीर की भाँति महात्मा जी का पैर पकड़कर बोला - बाबा जी, यह सिर अब सदैव आपके चरणों में ही रहेगा। न जाने क्यों, मैं सारी रात सो नहीं पाता। सदा जागता रहता हूँ। इसलिए, मैंने अपना जीवन यहीं प्रभु सेवा में ही व्यतीत करने को ठान लिया है। अब मुझे अपना शिष्य बना ही लीजिए। यह सिर आपके चरणों पर से तभी हटेगा। मोहन लाल का कबीर हठ देखकर महात्मा जी असमंजस में पड़ गए। अन्य साथी साधुओं से विचार-विमर्श करने के बाद उन्होंने कहा - अच्छा मोहन, यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो मेरी बात ध्यान से सुनो। पहली बात यह कि संन्यासी बनना सबके वश की बात नहीं। हालांकि, पारिवारिक जीवन नर्क है। प्रवचन और सतसंग का मार्ग सीधे स्वर्ग को जाता है। साथ ही साधु को किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता और न भिक्षा के लिए उसे किसी के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है। प्रभु कृपा से बिना मांगे ही उन्हें सब कुछ मिलता है। लोग भागकर आशीर्वाद लेने के लिए पैरों पर गिरते हैं। चारों ओर उनका आदर और सत्कार होता है। दावतों में अच्छे -अच्छे स्वादिष्ट व्यंजन मुफ्त खाने को मिलते हैं। संतों का सर्वत्र डंका बजता है। दूसरी बात यह कि जिस कार्य में मनुष्य का मन लगता है, वह उसी में सफल भी होता है। मैं तुम्हें बता दूँ कि उपासना सबसे बड़ा धर्म है। धर्म वह शक्ति है जो हमारे अंतः करन में ओजस्वी विचार उत्पन्न करता है और मनुष्य के जीने का उद्देश्य मात्र धर्म ही होना चाहिए।

महात्मा जी का यह प्रवचन सुनते ही मोहन बोला - बाबा, आप धन्य है। मेरा जीवन सार्थक बन गया। मेरी चिंता अब दूर हुई। इसके बाद मठाधीश बाबा नित्यानंद से मोहन के मिलने का समय तय किया गया। मठाधीश ने मंत्रोच्चारण के साथ मोहन के ऊपर जल छिड़क कर पहले उसे पवित्र किया। तत्पश्चात उसके सिर का मुंडन हुआ। स्नान कर्म के बाद मोहन ने गेरूआ वस्त्र धारण किया और मठाधीश ने उसके कानों में मंत्र फूँक कर उसे संत घोषित किया। तत्पश्चात वह सभी साधुओं का चरण रज लेकर आशीर्वाद ग्रहण किया।· इस प्रकार महंत जी ने दीक्षा देकर उसे अपना शिष्य बना लिया। इसके साथ-साथ मोहन लाल का नाम भी बदल गया। अब वह मोहनानंद हो गया। मंदिर के नियम, उपनियम के साथ संतों के आदेश- निर्देश भी उसे अच्छी तरह समझाए गए। धीरे-धीरे छः माह की प्रशिक्षुता अवधि पूरी होने पर मोहनानंद को मथुरा मंदिर पीठ के मठाधीश परमानंद जी के साथ सह महात्मा नियुक्त किया गया। मथुरा प्रवास के दौरान उसे वहाँ खूब दूध, घी खाने को मिला। स्वादिष्ट भोजन का तो मानो, वहाँ भंडार ही था। वहाँ नियमित व्यायाम और ब्रह्र्मचर्य पालन से उसकी सेहत में बड़़ा अनुपम सुधार हुआ। सिर बड़ा तथा मुरझाया हुआ मुखमंडल कांतिमय हो गया। उसका पेट बिल्कुल सपाट और वक्ष सिंह जैसा चौड़ा हो गया।

कभी-कभी मनुष्य की अपूर्ण कल्पनाएं उसके स्वप्न में पूर्ण होती हैं। सपना देखना सुखद भी होता है और दुःखद भी। सपनों का प्रभाव कभी सीधा तो कभी बिल्कुल विपरीत होता है। सपनों के कारण एक रात मोहनानंद को अपने शयन कक्ष में सारी रात जागकर बिताना उसे बड़ा कष्टप्रद लगा। नींद मानो, उसके नेत्रों से दूर चली गई। वह रात भर कृष्ण और गोपियों के अटूट प्रेम के विषय में सोचता रहा। सारी रात जाग कर राधा और कृष्ण की रासलीला का मनन करके आनंदित होता रहा।· फिर, वह अचानक सोचने लगा कि काश, मेरी भी कोई राधा होती तो मैं भी आज रास रचाता। इस रंग-रंगीली दुनिया का भरपूर आनंद उठाता। यह सोचकर वह खुद से प्रश्न करने लगा कि क्या एक प्रेयसी के बिना भी कोई जीना है? पुरूष का जीवन आनंदमय और सुखी एक प्रेमिका ही बना सकती है।

इसी तरह धीरे-धीरे कुछ दिन व्यतीत हुए। किन्तु, अब हर रात एक से बढ़कर एक सुंदर तरूणियों के साथ आहार-बिहार करने के सपने मोहनानंद के जीवन में आकर दखल देने लगे। जिससे वह बेचैन हो जाता। उसका अंतस्तल कमजोर होने लगा और पैर डगमगाने लगे। स्वप्न में उसे जिस अपूर्व सुख की अनुभूति होती, वह उसे यथा शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहता था। अब उसे युवावस्था में साधु होने पर बड़ा पश्चाताप होने लगा। वह शीघ्रताशीघ्र उससे मुक्त होने का उपाय तलाशने लगा। साधुपन से उसे एकदम घृणा होने लगी। गुरू मंत्र देने वाले साधु गुरूओं को वह केवल ढोंगी समझने लगा। उसका मन संन्यास से ऊबने लगा। नाच न जाने, आंगन टेढ़ा। खुद को बचा कर सारा दोष उनके सिर मढ़ने लगा वह बार-बार यही सोचता कि यह अंधी दुनिया दूसरों को भी आजीवन अंधा ही बनाए रखना चाहती है। यह दुनिया कितनी ख़ुदग़र्ज़ है? खुद तो कोई महात्मा ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करता। बस, दूसरों को बड़ी सरलता से उपदेश देता फिरता है। जबकि, स्वयं अंधकार में पड़ा हुआ कोई भी संन्यासी किसी और को प्रकाश नहीं दे सकता। मेरे पास इस वक्त शरीर बल और धनबल दोनों है। बैंक बैलेंस भी है। पर, यह सब किसके लिए? क्योंकि, जीवन का उद्देश्य मात्र धन संचय ही नहीं है। देवालयों में कैसी-कैसी रूपसी युवतियाँ मुस्कराती हुई आती हैं। क्या मेरे भाग्य में इनमें से एक भी नहीं? मगर, मैं क्या करूँ? मैंने अपने पाँव में कुल्हाड़ी खुद ही तो मारी है। अपना नसीब खुद ही बिगाड़ा है। मनुष्य समाज में पैदा होता है और बड़ा होकर उसी में मरता भी है। समाज सेवा से बचकर पुरूष को संन्यासी बनने का कोई अधिकार नहीं तो यह वैराग्य का एकाकी जीवन क्यों? इसलिए, मनुष्य का सबसे उत्तम धर्म मानव सेवा ही है। यही ईश आराधना है। हृदय शुद्ध न होने पर देवोपासना व्यर्थ है। मनुषय को अपनी बुद्धि और विवेक से काम लेना चाहिए। बड़ों की अनुचित आज्ञा का पालन करना सबसे बड़ी मूर्खता है, कोई दूसरा कष्ट अन्य लोगों को बताने से अपने हृदय का बोझ तो कम हो जाता है। किन्तु, कामदेव के सताने पर किसी से कुछ कहा ही नहीं जा सकता। अंततः मन में दुविधा उत्पन्न होने पर मोहनानंद ने एक दिन महंत जी से तीर्थ भ्रमण की इच्छा व्यक्त की। महंत परमानंद जी अनुभवी होने के साथ-साथ बहुत ही शांत और बुद्धिमान पुरूष भी थे। सभ्य और दयामय भी। बातें बहुत ही कम करने वाले। एक साधु होने पर भी मानो, वह न्याय और विचारशीलता के देवता थे। उनकी नजर इतनी तेज़ कि शक्ल देखकर ही किसी की मनोदशा पहचान लेते। उन्होंने युवा हृदय की पीड़ा का अनुभव किया और एक माह की सहर्ष छुट्टी देकर मोहन को अपने मनपसंद तीर्थ पर जाने का आदेश दे दिए। मोहन को मानो, मुँह मांगी मुराद मिल गई। आदेश पाते ही वह पिजरे में बंद तोते की भाँति फुर्र से उड़ गया और खुले आसमान तले विचरण करने लगा। मंदिर से बाहर निकलते ही उसकी बोल चाल भी बदल गई। कोई बच्चा हो या जवान, वह हर पुरूष को बच्चा कहकर संबोधित करता। लेकिन, स्त्रियों को माई कहकर ही बुलाता। चाहे वह कोई बुढ़िया हो या युवती। एक बालयोगी के मुँह से बच्चा शब्द सुनकर युवतियाँ असमंजस में पड़ जातीं।

शनैः-शनै :एक महीने में इलाहाबाद, वाराणसी, ऋषीकेश और हरिद्वार की यात्रा पूरी होने के साथ कोणार्क के सूर्यदेव मंदिर तथा जगन्नाथपुरी की परिक्रमा भी पूरी हो गई। पर, कहीं भी उसके मन को शांति न मिली। वह संन्यासी शब्द से ही कुढ़ने लगा। लेकिन, मिली हुई रोज़ी रोटी को वह छोड़ना भी न चाहता था। क्योंकि, मरते दम तक भी धन का मोह छोड़ना मनुष्य के लिए बड़ा ही दुष्कर होता है। पकवान खा लेने के बाद सादा भोजन बिल्कुल नीरस लगता, तीर्थ यात्रा प्रवास के दौरान इलाहाबाद में मोहनानंद की मुलाकात अन्य हम उम्र बाल सन्यासियों से होने पर उसे पता चला कि वे भी उसी की तरह निज कर्मों से कुंठित और निराशामय जीवन जीने को विवश हैं। धीरे-धीरे सभी बाल साधु एक-दूसरे से आपस में घुल मिल गए। इसके बाद अपने अंदर दहकती हुई कामाग्नि शांत करने के लिए सबने मिलकर एक गुप्त योजना बनाई। आखिर, योजनानुसार अपनी-अपनी मनपसंद सुंदरियाँ ढूँढ़ कर उन्हें भी सन्यासिनी बनाना तय हुआ। तदंतर जगह-जगह घूम-घूमकर युवतियों को अपने मोह जाल में फँसाने के लिए उन्होंने रात-दिन एक किए और काम के वंशीभूत होकर सत्य ने छल-प्रपंच की चादर ओढ़ ली, मन में कपट का बसेरा होते ही सत्य और धर्म कोसों दूर चला जाता है। सभी बालसंत शीघ्र ही हस्त रेखा विशेषज्ञ और भविष्य ज्ञाता का रूप धारण कर गली-गली भटकने लगे। कोई तरूणी पसंद आने पर बाल साधु उसे अपने मन के आईने में बिठा कर पहले उसकी बुद्धि परखता। इसके बाद उसका पूरा विवरण लाने का काम उनका दूसरा साथी पूरा कर देता। दर-असल, उन्हें कुछ आता-जाता तो था नहीं, इसलिए पहला साधु लड़की के हाथ की लकीरों को पढ़ने का असफल प्रयास करता और उसे बता देता - तुम्हारी हस्त रेखाएं स्पष्ट बता रही हैं कि तुम बहुत बुद्धिमान हो। तुम्हारे ऊपर ईश्वर की बड़ी कृपा है। लेकिन, साथ ही तुम्हें सन्यासिनी बनने का योग भी है। तुम्हारे हाथ में हमेशा दौलत ही दौलत होगा, पर यह बात मात्र उन्हीं तरूणियों को बताई जाती जो रूपसी तो थी, किन्तु,स्वभाव से बिल्कुल अल्हड़ थीं। यदि कोई लड़की सन्यासिनी बनने में अनिच्छा व्यक्त करती तो संन्यासी जाप विधि द्वारा उसका भाग्य लेख बदलने का मशविरा देते। शर्त यह रहती कि ऐसा किसी एकांत स्थान पर ही किया जा सकता है। जहाँ कोई अन्य व्यक्ति न हो और किसी को इसका पता भी न चले। अन्यथा, जाप खंडित हो जाएगा, आखिर,एक दिन अलका नाम की एक कमसिन और अल्हड़ सी लड़की मोहन के भी जाल में फँस ही गई। अनुपम होटल में एक कमरा पहले से ही बुक था। भोली-भाली कंचन के वहाँ पहुँचते ही मोहन ने उसे एक गुलाब का फूल देकर सूँघने को कहा। फूल अपनी नाक के पास ले जाते ही वह बेचारी बेहोश हो गई। गुलाब में छिपा नशीला पाउडर वायुकण के साथ उसकी स्वासों में प्रविष्ट हो गया। यकायक वह निढाल होकर गिर पड़ी, अवसर पाते ही मोहन उन्मादित होकर बेहोश अलका के खूबसूरत अंगों से खेलने लगा। वह उसकी गदराई बदन से मनमानी करके तृप्त होता रहा। काफी दिनों से जागृत अपनी प्यास शांत करता रहा। धीरे-धीरे इस खेल में सारा दिन व्यतीत हो गया। अंत में आधी रात को जब उसे होश आया तो मोहन ने उससे कहा - कंचन, तुम प्रेतों के चंगुल में फँसी हो। तुम्हारे ऊपर भूतों का साया है। बड़ा ज़बरदस्त शैतान है। लेकिन, तब तक उस नादान अभागन को अपनी आबरू लूटने का अहसास हो चुका था। यह सुनते ही वह भूखी शेरनी की भाँति दहाड़ने लगी। वह गरजते हुए मोहन पर झपट पड़ी और बोली - मक्कार कहीं का। तू साधु नहीं, ढोंगी है। भूत कोई और नहीं, बल्कि तू है। तुझसे बड़ा शैतान और कौन होगा? कमीने, मैं पुलिस में तेरी शिकायत करूँगी। दरिन्दे, तुझे जेल भिजवाऊँगी।

पुलिस का नाम सुनते ही मोहन के हाथों के तोते उड़ गए। उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। सांस मानो, अटक गई। इसलिए अपनी जान बचाने के लिए कुछ साहस जुटा कर बोला - देवी, मेरे पास अपार दौलत है। तुम आजीवन सुख भोग सकती हो। वरना, सोच लो कितनी बदनामी झेलनी होगी? अतः हम दोनों ऐसा क्यों न कर लें कि विवाह बंधन में बँध कर निष्कंटक जीवन बिताए। इसी में हम दानों की भलाई है। यह सुनते ही अलका ने मोहन के मुंह पर थूक दिया और बोली- शादी, वह भी तुझसे? कुत्ते, तेरे जैसे मक्कारों से अब कोई समझौता नहीं हो सकता। मैं मरना पसंद करुंगी पर, तेरे साथ हरगिज नहीं रह सकती। मोहन उसका विचार सुनकर बड़ा शर्मिंदा हुआ। वह आत्मग्लानि से भर उठा। तुरंत साधु रूपी ताना-बाना फेंककर पिंजरे से निकले पक्षी की तरह मुक्त हो गया। वह फिर लौटकर आश्रम में भी न गया।

अतीत को याद करके आगामी कल को खोना बुद्धिमानी नहीं है। यह सोचकर विवश अलका ने झट उसे चुल्लू भर पानी में डूब मरने को लज्जित कर दिया और अपना सब कुछ गँवाने के बाद सिसकते हुए मुंह छिपाकर चुपचाप अपने घर की ओर चली गई। लेकिन,अपने मां-बाप के पास न जाकर गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गई। मोहन जैसे कपटी साधु के फेर में उसका जीवन तबाह और बर्बाद हो गया।


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