वो प्यारी बुलबुल
वो प्यारी बुलबुल
वह घोंसला शायद ज्यादा दिनों तक सुरक्षित न रह पाता, अगर वो बुलबुल जैसे मनमोहक़ और आकर्षक पक्षी का घर न होता। हमारे बॉयज हॉस्टल के मुख्य द्वार के पास लगे बिजली मीटर के ऊपर एल बुलबुल ने अपना आशियाना बनाया था। काले रोयेदार पंख, काली लंबी पूँछ, सिर पर लाल मुकुट जैसी बनावट, जिसका रंग आँखों के पास तक आता था। इतने सुंदर पक्षी को कोई भी अपने घर में एक छोटा सा कोना देने के लिए तैयार हो जाता। इस बार यह अवसर हमको मिला था।
वह घोंसला उसने कब बनाया पता नहीं क्योंकि हम सब होली का त्यौहार मनाने अपने-अपने घर गये थे। जब वापस आये तो देखा, हमारे हॉस्टल परिवार में एक नया सदस्य आ गया है। हमारे हॉस्टल के वार्डन ने बताया कि हर वर्ष इन्हीं महीनों में कोई न कोई बुलबुल यहाँ आती है, अपना परिवार बढ़ाती और फ़िर परिवार सहित चली जाती है। हम उस हॉस्टल में नए थे इसलिए ये हमारा पहला अनुभव था। वैसे इक बात हम सब ने महसूस की थी कि उसके चहचाहने की आवाज़ सुनकर और उस मनोहर पक्षी को अपने घर-स्थल में देखकर एक अलग़ ही आनंद की अनुभूति होती थी।
इंजीनियरिंग के छात्रों में वैसे भी चपलता तथा समाज़ के बनाये कानूनों को तोड़ने और पालन न करने की हमेशा तत्परता रहती है इसलिए ये तो निश्चित ही था कि अगर वह बुलबुल का घोंसला न होकर मधुमक्खियों का छत्ता होता तो सबने मिलकर कब का उस छत्ते को तोड़ दिया होता क्योंकि पूर्व में ऐसे दो-चार अनुभव हमारे साथ हो भी चुके थे।
हमारा हॉस्टल के अंदर-बाहर ज़ाना लगा ही रहता था इसलिए दिन में दस-पंद्रह बार उस बुलबुल के दर्शन हो ही जाते थे। रात में जब वह सोती थी तो सर्द मौसम से बचने के लिए पंखों को फैलाकर अपने शरीर का आकार बढ़ा लेती थी क्योंकि हॉस्टल का मुख्य द्वार लकड़ी का न होकर लोहे का एक चैनल था जिससे इधर-उधर का आसानी से देख सकते थे इसलिए ताज़ी हवा के आने-जाने के लिए बहुत स्थान था। अगर उसे कभी लगता था कि कोई उसके समीप आ रहा है तो वह तुरंत अपने छोटे-छोटे पंखों द्वारा फुर्र से उड़कर चैनल के बीच बनी जग़ह से बाहर निकल जाती थी और हॉस्टल के सामने बने पतले सीधे ग्रिल पर बैठ जाती थी और किसी के ना होने पर पुनः घोंसले में आ जाती थी।
एक बार तो वह उड़ते-उड़ते रास्ता भटक कर हमारे कमरे में ही आ गई थी। एक कोने से दूसरे कोने वह उड़ रही थी परंतु बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूँढ़ पा रही थी तब हमने कमरे का दरवाज़ा बंद करके फ़िर खोला। दरवाज़े की ऐसी गति देखकर वह भांप गई कि यहीं से वह बाहर जा सकती है और बिना समय गँवाये ही वह बाहर चली गई। उस पक्षी की क्षण भर की व्याकुलता देखकर मैंने महसूस किया कि पक्षी हो या मनुष्य, क़ैद किसी को भी पसंद नहीं होती क्योंकि जब दूसरा कोई हमारी ज़िंदगी का फ़ैसला करने लगे तो आने वाली परिस्थितियों और कर्म करने के बाद आने वाले परिणामों से हम बंध जाते हैं। हँसती, खेलती असीमित आकाश में उड़ती बुलबुल सबका मन मोहती है और पिंजरे में, किसी की क़ैद में बंद कोई भी पक्षी अपने मनोहर कृत्य बंद कर देता है।
एक दिन हमने पाया कि घोंसलें में तीन अंडे रखे हैं। हल्के ग़ुलाबी रंग के तीन अंडे, जिन पर गहरे लाल रंग के बहुत सारे छोटे छोटे गोल धब्बे थे जैसे किसी बच्चे द्वारा खाई जाने वाली कैंडी पर होते हैं। अब वह माँ बुलबुल दिन भर उन अंडों को सेंती बस अपने लिए खाने का प्रबंध करने के लिए बाहर जाती थी। कुछ ही दिनों में अंडो का स्थान तीन छोटे छोटे बुलबुल के नवज़ात बच्चों ने ले लिया था। उनके शरीर के सारे अंग अभी तक ठीक से विकसित नहीं हुए थे इसलिए कहाँ पैर हैं, और कहाँ पंख, मालूम नहीं पड़ता था, आँखे भी ठीक से विकसित नही हुई थीं। त्वचा कमज़ोर और रंग हल्का गेरुआ था। दूर से तो वे केवल माँस का लोथ ही नज़र आ रहे थे। अगर उस समय उन्हें उनकी माँ के अलावा कोई और स्पर्श करता तो उनके विकास क्रम में अवरोध उत्पन्न होता और वे एक संपूर्ण बुलबुल ना बन पाते परंतु दस पंद्रह दिनों में उन नवजातों के शरीर में गति आ गई थी। त्वचा का रंग काला होने लगा था तथा रोएंदार पँख भी विकसित होने लगे थे।
अब उस माँ बुलबुल की ज़िम्मेदारी स्वतः ही पहले से ज़्यादा बढ़ गई थी। पहले तो उसे सिर्फ़ अपने लिए ही भोजन ढूँढ़ना पड़ता था परंतु अबसे उसे तीन शिशु बुलबुलों के भोजन के लिए भी मशक्कत करनी थी।
मुझे उस बुलबुल परिवार में कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी आ गई थी अतएव मैं उनकी हर गतिविधि पर अपनी नज़र बनाये हुए था।
एक दिन मैंने देखा की माँ बुलबुल अपनी चोंच में एक मृत कीड़ा दबाये घोंसले पर बैठी है और घोंसले में हर शिशु बुलबुल भूख़ से व्याकुल अपनी चोंच खोलकर मुख़ को ऊपर आसमान की तरफ करके अपनी माँ से मानों यह कहने का प्रयास कर रही है कि मैं अपने भाई-बहन से ज़्यादा भूखी हूँ इसलिए भोजन के इस टुकड़े की हक़दार मैं ही हूँ। घोंसले के किनारे बैठी माँ ये सोच रही थी कि एक कीड़े का तीन में बँटवारा कैसे हो ? अंततः उसने कीड़े को एक बच्चे के मुँह में छोड़ दिया और अन्य सदस्यों के लिए भोजन का प्रबंध करने हेतु फ़ौरन उड़ गई। जिसको भोजन मिला वह तो शांत हो गया था परंतु शेष दो अपनी व्याकुलता को अपनी शारीरिक भाषा से अभी भी प्रदर्शित कर रहे थे।
जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे शिशु बुलबुल के शरीर का आकार भी बढ़ता जा रहा था। रात को सोते समय पहले तो माँ बुलबुल आराम से घोंसले में सोती थी परंतु अब तो तीनों शिशु बुलबुल से ही घोंसला भर जाता था इसलिए माँ बुलबुल को सोने के लिए जग़ह नहीं मिल पाती थी। माँ चाहे पशु-पक्षियों की हो या मनुष्यों की, माँ का रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है। उदाहरणतया अगर माँ के पास एक बच्चा है और वह उसके लिए एक रोटी बनाती है, तो तीन बच्चे होने पर वह एक रोटी के तीन टुकड़े नहीं करती बल्कि अब वह अपनी सीमाओं तथा क्षमताओं का कुछ ऐसे विस्तार करती है कि अब से अपने बच्चों के लिए वह तीन रोटी बना सके।
जैसा की हम सब को ज्ञान था कि जब ये बच्चे उड़ने में सक्षम हो जायेंगे तो माँ सहित यहाँ से चले जायेंगे क्योंकि पक्षियों का वास्तविक घऱ तो असीमित आकाश होता है, पेड़ों और घोंसलों को तो बस प्रजनन करने और रात्रि विश्राम करने के लिए प्रयोग करते हैं। अन्ततः वह दिन आ ही गया जब घोंसले में ना माँ बुलबुल थी और ना ही उस बुलबुल के बच्चे और न ही उनका चहचहाना। बस, रह गए थे तो हम मानुष जीव और एक ख़ाली घोंसला जिसे उस बुलबुल ने एक महीने के लिए अपना आशियाना बनाया था।