भूख की भाषा
भूख की भाषा
" अरे यार, अब घर चल, कब तक इस कंपकंपाती ठंड में खड़ा रहेगा " चिमनलाल ने बिरजू से कहा।
" बस एक- दो फेरे ओर कर लूँ तो रोटी के साथ दवाई का जुगाड़ हो जाएगा। पारो को बहुत तेज बुखार है यार " कहते हुए बिरजू की आँख से निकल- कर दो गरम आँसु उसके ठंडे बदन में फना हो गये।
पारा दस डिग्री से भी नीचे पहूँच गया था। एक पूरानी बंडी और धोती में बूढ़ा बदन मानो हरे कीर्तन कर रहा था।
बिरजू की नजर आती - जाती सवारियों फर थी।
" बाबूजी चलना है " उसने राहागीर से पूछा।
" जाना तो है पर साइकिल रिक्शे में .....बहुत समय लग जाएगा " राहागीर ने जवाब दिया।
"जी जल्दी ही पहूँचा दूँगा " बिरजू ने कहा पर तब तक तो राहागीर ने किसी ओटो रिक्शे को रोका और ये जा...वो जा...।
" सर आप चलेंगें," उसने सामने से आते हुए एक मोटे - तगड़े सेठजी को फिर आवाज लगाई।
" नहीं भाई, रहने दो, किसी ने देख लिया या किसी पत्रकार ने फोटो ले लिया तो शोषण के नाम पर वायरल होकर बदनाम हो जाऊँगा।" कहते हुए उसने टैक्सी को इशारे से रोका।
बिरजू की रूलाई फूट पड़ी, उसने जेब से पैसे निकाल कर गिने। सिर्फ साठ रूपये थे। रोटी, दवाई, दूध, माँ, पत्नी,और बच्चे बारी - बारी से आँखों के आगे गुड्ड- मुड्ड होने लगे। तभी एक हिचकी आई और बिरजू की साँसों ने उसके संघर्ष का साथ देने से इंकार कर दिया।
सुबह अखबार में उसका फोटो ठंड के कहर से मारे गये लोगों के बीच थी। उसकी आँखों में नाचते रोटी, दवा और दूध के सपने को कोई देख नहीं पाया।
हाँ सच ही तो है, भूख की भाषा पेट के अलावा कोई नहीं है।