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पहाड़ों की धूप और दीवाली की रात

पहाड़ों की धूप और दीवाली की रात

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दीवालियों की रौनक देखते बन रही है पटाके खील बताशे सब दुकानों पर सजे हैं वहीं राजेश दीवाली की सर्दी में पलायन की मार झेल रहे अपने गांव में अंगीठी के साथ कुर्सी पर बैठे दूर पहाड़ पर चमकती धूप को देख रहा है। बेटा बहु और नाती शहर में रहते हैं छुट्टियां तो हैं पर दीवाली का त्योहार मनाने बहु की जिद पर वो सब मायके चले गये। राजेश कोट में से बीड़ी निकालकर सुलगाता तभी किसी के कदमो की आहाट शांति को तोड़ती है एक लड़का पूडी हलवे की थैली को उसकी ओर देते हुए कहता है दादाजी ! दीवाली की मिठाई मां ने भिजवाई है | बड़ी दूर से आया है | रात होने वाली है राजेश अनायास ही लड़के को बोल पड़ता है पर चल आज रात पूरियां ही पेट भटेंगी पहले से ही ये बांटने का रिवाज चला आ रहा है पर अब रह ही कौन गया है गांव में ?.. राजेश अपनी बात को जारी रखते हुए कहता है सब तो शहर की भागदौड़ में भाग रहे हैं बचे हैं तो हम जैसे बूढे जिनके दिन किसी से बातचीत की आस में कट जाते कभी कभार ऐसे ही (लड़के की तरफ इशारा करके) कोई आ जाता है हालचाल पूछने पर रात नहीं कटती गांव में रात शहरों की तरह चकाचौन्ध लेकर थोड़े ही आती है। लड़का राजेश की हाँ में हाँ मिलाता है और रात का हवाला देकर चला जाता है ।पहाड़ों की सर्दियाँ कहीं रोमांच तो कहीं उदासी लेकर आती है | राजेश को ये दीवाली का त्योहार कुछ ज्यादा ही अकेलेपन की ओर धकेल रहा था | पिछले साल ही पत्नी लक्ष्मी के निधन ने सर्द रातों में बतियाने का साथी भी छीन लिया । राजेश ने बीड़ी को बुझाते हुए अंगीठी में फूंक मारने का प्रयास किया पर निकल चुके दांतों की वजह से फूंक में वो तीव्रता नहीं थी लोहे के एक पाइप जो कि आग सुलगने के लिए रखा था उसे उठाकर राजेश अंगीठी में फूँक मारता है और उड़ती हुई राख को बालों से साफ़ हुए मन ही मन सोचता वो भी दिन थे जब अखरोट को वो दांतों से ही तोड़ डालता फिर अनायास ही अपनी सफेद हो चुकी ढाढ़ी पर हाथ फेरता जिसे वह रोज काले रंग से रंग देना चाहता पर हर बार टाल देता उसे लगता ये झुर्रियों वाला चेहरा काले बालों को नहीं जचता काला हहहह हाँ वो सफेद कागज़ भी तो काला हो गया था जिस पर उसने अपने प्रेेम का पहला खत लिखा था कैसे महीनों पहले लिखकर वो उसे लक्ष्मी को देने के मौके ढूंढता रहता रोज जेब मे रखकर सोता | लालटेन उसकी पैंट और खत दोनों थोड़ा-थोड़ा रोज काली कर जाती बिजली तो थी नहीं| अरे! बाहर का बल्ब भी जलाना पड़ेगा अंधेरा हो गया न जाने कहाँ से कोई बाघ घात लगाए हो बिजली का खयाल आते ही राजेश मन ही मन बुदबुदाया।और कुर्सी से उठकर बरामदे में लगे स्विच की ओर चल देता है| धूप पहाड़ों पर से जा चुकी है रात का अंधेरा गहराने लगा है दीवाली की ये रात राजेश के लिये हर रोज की तरह नहीं थी ये रात डर और अंधेरे के साथ साथ कुछ पुरानी यादों का सागर भी लेकर आई थी वो यादें जो हसीन थीं और उन यादों के बीत जाने का दर्द उतना ही उदासी भरा।


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