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Kamlesh Ahuja

Drama

5.0  

Kamlesh Ahuja

Drama

जीवन का सार

जीवन का सार

5 mins
1.8K


"माँ तुमसे कितनी बार कहा है, बात बात पर पूजा से बहस ना किया करो लेकिन आप मानती नहीं रोज क्लेश करती रहती हो।"

सोमिल गुस्सा होते हुए रमा से बोला।

"तू तो हर बार मुझे ही गलत समझता है और बहू को कुछ नहीं कहता।"

"मैंने इसे मायके वालों को फोन करते सुना था कि मेरी सास कोई काम नहीं करती। दिन भर मैं ही खटती रहती हूँ। बस ये ही सुनकर मुझे बुरा लगा और मैंने इसको बोल दिया।" कहकर रमा रोने लगी।

रमा बहुत हँसमुख थी। पति के अचानक चले जाने से घर परिवार और दो बच्चों की जिम्मेवारी ने उसे तोड़कर रख दिया था। उस पर परिवार का साथ ना मिलने से वह बहुत दुःखी रहती थी। सोचती थी बेटे की शादी के बाद शायद उसकी ज़िंदगी मे खुशियाँ फिर से लौट आएगीं किन्तु ऐसा नहीं हुआ। रोज उसे ऐसे तानों से दो चार होना पड़ता था।

समय के साथ साथ सहनशक्ति भी कमजोर हो रही थी इसलिए इतना दुःख सहने वाली रमा अब छोटी-छोटी बातों पर आहत हो जाती और अपनी प्रतिक्रिया दे देती थी।

पूजा ने रमा से बात करना बंद कर दिया। सोमिल ने बहुत समझाया- "बड़ी हैं, दुःखी है बोल दिया तो क्या हुआ ? फिर गल्ती तो तुम्हारी ही है। क्यों तुमने अपने घर वालों से झूठ बोला कि माँ कुछ काम नहीं करतीं। दिन भर तुम्हारे साथ काम में हाथ बँटाती हैं। इससे ज्यादा और क्या कर सकती हैं इस उम्र में ?"

सोमिल की बातें तीर की भाँति चुभ गई पूजा को। तुनककर बोली- "तुम तो अपनी माँ का ही पक्ष लोगे। मैं ही बुरी हूँ, चली जाती हूँ इस घर से। करवाते रहना अपनी माँ से सेवा।"

"वो..मैं तो बस बात संभालने की कोशिश कर रहा था, मेरा ऐसा मतलब बिल्कुल नहीं था। मैंने माँ को भी तो बोला है ना।"

बात बिगड़ते देख सोमिल बोला। अब पूजा ने पति से भी बात करना बंद कर दिया। कुछ कहना या पूछना होता तो बेटे से कहलवा देती। रमा को पूजा के व्यवहार से बहुत दुःख हुआ। वह अपने को कसूरवार समझने लगीं। उसे लगा, शायद उसकी वजह से ही बेटे के दाम्पत्य जीवन में कड़वाहट आ रही है अतः अपने शहर वापिस जाने का मन बना लिया। सोमिल ने भी सोचा कुछ दिन माँ दूर रहेंगी तो पूजा का गुस्सा भी शांत हो जाएगा। दो दिन की छुट्टी लेकर उन्हें घर छोड़ आया। अपने घर आकर दो तीन दिन रमा साफ सफाई में व्यस्त रही तो उसे समय का पता ही नहीं चला पर उसके बाद उसे घर खाने को दौड़ने लगा। साल भर बाद जो आई थी। बिल्डिंग में भी कोई किसी के घर ज्यादा आता जाता नहीं था। सब अपने में व्यस्त रहते थे।

अब तो दिन-रात उसे यही चिंता सताने लगी कि कैसे पहाड़ सी जिंदगी गुजारेगी ? बहू को उसका साथ पसंद नहीं। बेटे को दुःखी देख नहीं सकती। क्या होगा उसका भविष्य में ?किसके सहारे जिएगी ? ऐसे तमाम प्रश्न उसके दिमाग में हर पल चलते रहते थे।

किसी से मिलने का मन नहीं करता था उसका। अपने आप को घर में कैद करके रख लिया था। बहुत जरूरी होता तभी बाहर निकलती। बेटे को भी फोन नहीं करती थी। वो ही हर रोज उसकी कुशलक्षेम पूछ लेता था व उनकी पोते से बात करवा देता था।

परिवार वालों का कभी फोन आता तो उन्हें उलाहना देती- "मैंने हमेशा तुम सबका साथ दिया और तुम सबके पास मेरे लिए वक्त ही नहीं।"

धीरे-धीरे परिवार वाले भी कटने लगे और फोन करना कम कर दिया।

'इसने ये कहा', 'उसने वो किया' बस सारा दिन रमा के दिमाग में यही चलता रहता था। नकारात्मक सोच का प्रभाव उसकी सेहत पर भी दिखने लगा था। रात को नींद नहीं आत। ब्लड प्रेशर भी हाई रहने लगा था। डॉक्टर ने दवाइयों का अंबार लगा दिया और दस हिदायतें भी दे दी थीं। रमा को अपनी ज़िंदगी बोझ लगने लगी। जहाँ तक की अब वो अपनी मृत्यु की कामना भी करने लगी थी।

चाय का प्याला हाथ में थामे रमा किचन से निकली ही थी कि डोर बैल बजी। दरवाजा खोला तो देखा- सामने १४-१५ साल की लड़की खड़ी थी। नमस्ते करते हुए बोली-"आंटी जी आज शाम 5 बजे हमारे घर सत्संग है,आप जरूर आना, हम ग्यारवें माले पर रहते हैं।"

"बेटा मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।" रमा आश्चर्य से बोली।

"हाँ आंटी जी हम बस चार पाँच महीने पहले ही यहाँ शिफ्ट हुए हैं।" इतना कहकर लड़की चली गई।

"क्या करूँगी जाकर ? फिर वहाँ बिल्डिंग वाले मिलेंगे और वही पुरानी बातें करेंगे- "कैसे हो रमा जी ? बच्चे कैसे हैं ? आप अकेले क्यों रहते हो इस उम्र में ? बच्चों के साथ रहा करो।"

रमा फिर से नकारात्मक बातों में उलझने लगी तभी उसे लगा वैसे तो कोई बुलाता नहीं है, गर इतने अनुरोध से किसी ने बुलाया है तो जाना चाहिए।

रमा शाम को तैयार होकर सत्संग में पहुँच गई। काफी लोग थे.उसमें पुराने परिचित भी थे। सबको हाथ जोड़कर नमस्ते की फिर एक कोने में जा कर बैठ गई। सत्संग शुरू हो गया था। संगत को संबोधित करते हुए गुरु जी बोलने लगे...

"मन में चल रहे युद्ध को विराम दे,

खामख्वाह खुद से लड़ने की कोशिश न कर।

कुछ बातें भगवान पर छोड़ दे,

सब कुछ खुद सुलझाने की कोशिश न कर।

जो मिल गया उसी में खुश रह, जो सुकून छीन ले वो पाने की कोशिश न कर...

सत्संग समाप्त होने के बाद रमा अपने घर आ गई.उसे गुरु जी द्वारा बोले वचन बार बार याद आने लगे.मानों उसे ही कुछ समझाने की चेस्टा कर रहे थे...."कुछ बातें भगवान पर छोड़ दे, सब कुछ खुद सुलझाने की कोशिश न कर।"

रमा को सत्संग में जाना अच्छा लगने लगा। चूंकि रोज 3 से 5 सत्संग होता था इसलिए उसे घर से निकलने का बहाना भी मिल गया। सभी सत्संगियों से मिलकर उसके जीवन से अकेलापन भी दूर होने लगा। प्रतिदिन मिलने वाले ज्ञान से उसके मन की नकारात्मकता दिन प्रति दिन दूर हो रही थी। फलस्वरूप उसका बैचेन मन शांत होने लगा। उसे जीने की वजह मिल गई। धीरे धीरे अपनों के साथ की चाह भी कम होने लगी। बस उठते-बैठते ईश्वर का शुकराना और सिमरन करती रहती थी। सच रमा को सत्संग का साथ ऐसे मिला- "जैसे डूबते को तिनके का सहारा।"

एक उम्र के पश्चात शायद सबको घर परिवार की मोह माया को त्यागकर सत्संग की शरण में अवश्य जाना चाहिए। यही है हमारे जीवन का सार।


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