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एक छोटी सी डिक्शनरी

एक छोटी सी डिक्शनरी

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बचपन में गुब्बारे बेचता था मैं। होली पे रंग, दीवाली पे पटाखे, रक्षा-बन्धन पे राखी, और इसी तरह के और भी छोटे-छोटे काम करना पड़ता था। गाँव के स्कूल में आठवीं पढ़ने के बाद, अब शहर जाके पढ़ाई करने के लिए पैसे नहीं थे। तब मेरे मुमताज मामू ने अपनी शादी के दहेज़ में नई-नई मिली साइकिल मुझे दी और कहा, “इससे तुम शहर पढ़ने जा सकते हो” और मेरे शकील मामू ने पाँच सौ रुपए दिए कि, “इनसे तुम अपनी किताबें ख़रीद लेना।” इस तरह मेरी आगे की पढ़ाई का इन्तिज़ाम हुआ।

दसवीं में मेरा दिन कुछ ऐसा बीतता था कि मैं सुबह साढ़े छ: बजे घर से निकलता था, फिर सात से साढ़े नौ तक गाँव के ही एक कॉन्वेन्ट स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाता था, जिसके बदले में मुझे ढाई सौ रुपए महीना मिलता था, जिससे मैं अपने कॉलेज की फ़ीस भरता था। फिर आधा घण्टा साइकिल चलाके शहर, ‘मुहम्मद हसन कॉलेज’ जाता था। वहाँ दस बजे से चार बजे तक अपनी पढ़ाई करता था। चूँकि इस बार बोर्ड के इक्ज़ाम होने वाले थे, तो मैंने सोचा, “फ़िजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स की कोचिंग कर लेता हूँ।”

इसके लिए मैं अपने मैथ्स के टीचर डा. बाबू ख़ाँ साहब के पास गया और उनसे कहा, “मुझे आपके यहाँ कोचिंग करनी है लेकिन मेरे पास फ़ीस देने के पैसे नहीं हैं।” उन्होंने थोड़ी देर सोचा, फिर कहा, “कोई बात नहीं, आप मुझे फ़ीस नहीं दे सकते, तो मुझसे भी फ़ीस मत माँगिएगा।” मैंने कहा, “मतलब?” तब उन्होंने कहा, “भई, मुझे लगता है कि आपका ज़ेहन अच्छा है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप मेरे बच्चों को पढ़ा दिया करें। न मैं आपसे पैसे माँगूँगा और न आप मुझसे माँगिएगा।” इस तरह मेरी कोचिंग का इन्तिज़ाम हुआ। अब मैं चार से छ: डॉ. बाबू ख़ाँ साहब के बच्चों को पढ़ाता था और छ: से आठ उन्हीं के यहाँ ख़ुद कोचिंग पढ़ता था।

अब डॉ. बाबू ख़ाँ साहब के बच्चों को इंग्लिश पढ़ाते हुए मुझे दिक़्क़त होती थी, इसके लिए मैं अपने इंग्लिश के टीचर जनाब शुएब साहब के पास गया और कहा, “जी, ऐसी-ऐसी बात है, मैं कुछ वर्ड्स नोट करके आपके पास आऊँगा और आप मुझे उनका मतलब बता दिया करेंगे, तो बड़ी मेहरबानी होगी।” अब वो इतने अच्छे आदमी कि उन्होंने बिना कुछ सोचे ही ‘हाँ’ कह दिया।

अब मैं रोज़ रात को आठ बजे के बाद शुएब साहब के पास जाता और जिन शब्दों का मुझे मतलब नहीं पता होता था, उनसे पूछ लिया करता था। फिर वापस घर पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज जाते थे। अगले दिन फिर वही रूटीन।

कुछ दिन ऐसे बीते, फिर शुएब साहब ने एक दिन कहा, “आप इतनी दूर से साइकिल चला के आते हैं। दिन में एक बार ही खाते हैं। बहुत दिक़्क़त होगी आपको। आप ऐसा कीजिए, मंगलवार को मुझसे कॉलेज में मिलिए। मैं आपको एक डिक्शनरी दूँगा। फिर आपको इस तरह बार-बार मेरे पास आने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी। और आप घर जल्दी पहुँच सकते हैं। इस उम्र में थोड़ा आराम भी करना ज़रूरी है।”   

उन्होंने तो ये कह दिया लेकिन मेरे अन्दर से एक आवाज़ आ रही थी कि, “मुझे ये डिक्शनरी नहीं लेनी है।” और इसलिए मैं मंगलवार को कॉलेज गया ही नहीं। लेकिन शुएब साहब मुझसे भी ज़्यादा ज़िद्दी निकले। वो डिक्शनरी लेकर सीधे डॉ. बाबू ख़ाँ साहब के घर पहुँच गए और उनसे कहा, “भई ये लड़का थोड़ा ज़्यादा ख़ुद्दार लग रहा है। मैंने उसे ये डिक्शनरी देने के लिए बुलाया था, लेकिन आज वो कॉलेज ही नहीं आया। तो आप इसे उसे दे दीजिएगा।” अगले दिन जब मैं कोचिंग में पहुँचा तो डॉ. बाबू ख़ाँ साहब ने बुलाया और वो डिक्शनरी मुझे देते हुए बोले, “ये शुएब साहब छोड़ गए थे आपके लिए।” अब मेरे न चाहते हुए भी डिक्शनरी मेरे हाथ में आ गई थी। लेकिन मुझे लेनी नहीं थी, इसलिए मैं सीधे शुएब साहब के पास पहुँचा और कहा, “माफ़ कीजिए, मैं ये नहीं ले सकता।” 

उस दिन हम-दोनों के बीच कुल सात घण्टे बात हुई। वो एक से बढ़के एक दलील देते रहे, मैं इनकार करता रहा, लेकिन उनकी फ़िलॉसफ़ी के आगे आख़िर में मैं हार गया और एक बार फिर वो डिक्शनरी मेरे हाथ में थी। शुएब साहब ने कहा, “अब आप ज़्यादा न सोचिए, घर जाइए और इसका इस्तेमाल कीजिए।”

मैं बेमन से उनके बड़े से लोहे के गेट से बाहर निकला, अपनी साइकिल पे बैठा और घर की तरफ़ चल दिया। अब रास्ते में वो छोटी सी डिक्शनरी मुझे इतनी भारी लग रही थी कि मुझसे आगे बढ़ा ही नहीं जा रहा था, इसलिए मैं एक बार फिर वापस मुड़ा और शुएब साहब के घर पहुँच गया। गेट खटखटाया तो इस बार उनकी भतीजी ने गेट खोला। मैंने सोचा, “ये सही मौक़ा है।” मैंने तुरन्त वो डिक्शनरी उस लड़की को पकड़ाई और कहा, “इसे शुएब साहब को दे दीजिएगा।” और इतना कहके वापस अपनी साइकिल पे बैठा और तेज़ी से अपने घर की ओर चल दिया। मुझे डर था कि, “कहीं मुझे पीछे से आवाज़ देके शुएब साहब वापस न बुला लें।”

घर पहुँचा तो बड़ा सुकून था। लेकिन मन में एक बात उठ रही थी कि, “कहीं शुएब साहब नाराज़ न हो गए हों?” इसलिए अगले दिन कॉलेज में जाके उनसे माफ़ी माँग ली। वो अन्दर से भरे हुए थे। ख़ूब सुनाया मुझे, “अमाँ मियाँ! हमारे यहाँ लोग आते हैं, रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, पैसे दे दो, फ़ीस भरनी है। कपड़े दे दो, सर्दी बहुत है। आपने हमारा एक छोटा सा तोहफ़ा क़ुबूल नहीं किया, कोई बात नहीं।” 

मैंने चुपचाप सब सुन लिया और अन्त में बस इतना कहा, “माफ़ कीजिए। मैं आपकी नाराज़गी समझ रहा हूँ लेकिन मेरा मन अन्दर से गवाही नहीं दे रहा था कि मैं वो डिक्शनरी आपसे लूँ।” इसके बाद मेरा शुएब साहब के यहाँ जाना बन्द हो गया। फिर जब मैं ग्यारहवीं में था तब मेरा सिविल इंजीनियरिंग में सेलेक्शन हो गया। रिज़ल्ट देखके मैं इतना ख़ुश हुआ क्योंकि मेरे ख़ानदान में अब तक कोई इंजीनियर नहीं बना था। मैं अपने गाँव में भी पहला लड़का था, जिसका इंजीनियरिंग में सेलेक्शन हुआ था।

मैं रिज़ल्ट लेके सबसे पहले डॉ. बाबू ख़ाँ साहब के पास गया। वो बहुत ख़ुश हुए। उन्होंने कहा, “अब मान गए आपको।” फिर मैं पहुँचा शुएब साहब के पास। वो वहीं बरामदे में वुज़ू कर रहे थे। मैं वहीं खड़ा हो गया कि “ये पहले वुज़ू कर लें, तब मैं इन्हें अपना रिज़ल्ट दिखाऊँ।”

उन्होंने वुज़ू किया और खड़े हुए। मैंने बिना कुछ कहे, बस अपना रिज़ल्ट उनके सामने कर दिया। अब वो तो इतने ख़ुश हुए कि लगे दुआएँ देने, “माशाअल्लाह! बहुत ख़ूब! बहुत बहुत मुबारक हो! अब एक दरख़्वास्त है आपसे। लेकिन पहले आप कहिए कि आप मना नहीं करेंगे।”

अब मुझे तो पता नहीं था कि वो क्या कहने वाले हैं इसलिए मैंने ‘ठीक है’ कह दिया। और मेरे ‘ठीक है’ कहते ही उन्होंने कहा, “ये फ़ीस हम भरेंगे।” ये सुनके तो मेरे मुँह से कुछ निकला ही नहीं।

ये बात है सन दो हज़ार की। उस वक़्त हमारे यहाँ डिप्लोमा इंजीनियरिंग की फ़ीस सात हज़ार रुपए थी, जबकि मेरे पास सात रुपए का भी इन्तिज़ाम नहीं था। अब मुझे समझ में आ गया कि शुएब साहब उस छोटी सी डिक्शनरी का बदला ले रहे हैं। लेकिन ये बदला इतना बड़ा था कि मैं कुछ कह नहीं पाया।

तो इस तरह एक गाँव में पैदा हुआ, और गुब्बारे बेचने वाला लड़का इंजीनियर बना। दिल्ली में नौकरी शुरू की। फिर 2009 में जब मैं एक इंजीनियर की हैसियत से लंडन गया तब लगा कि “ये ज़िन्दगी कितनी आसान है, बस ज़रूरत है तो किसी चीज़ को दिल से चाहने की।” अब इंजीनियरिंग से मेरा पेट भर चुका है और मैंने इंजीनियरिंग की नौकरी हमेशा के लिए छोड़ दी है। अब मैं पूरा समय लिखने-पढ़ने में बिताता हूँ और सच कहता हूँ, “ज़िन्दगी का एक अलग ही मज़ा आ रहा है।”

आज भी उस छोटी सी डिक्शनरी की बहुत याद आती है। आज मेरे ख़ुद के पास छोटी-बड़ी मिलाके कुल ग्यारह डिक्शनरीज़ हैं, लेकिन नहीं है, तो बस, वो एक छोटी सी डिक्शनरी, जो शुएब साहब ने मुझे देनी चाही थी और मैंने नहीं ली थी। और जिसे मैं उस वक़्त ले लेता तो शायद आज मैं आपके सामने नहीं होता।


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