अंतर्द्वंद्व
अंतर्द्वंद्व
बहुत ख़ामोश रहे हैं बादल इस बार , कहने को उनके पास कुछ भी नहीं. गुज़रे महीने मैंने फोन किया था तुमको ,तुमने कॉल उठाई ही नहीं. याद तो आते हो तुम बहुत मगर अब दोबारा फोन करने की हिम्मत नहीं होती. मैं घंटो बैठे-बैठे नंबर तकती रहती हूँ तुम्हारा. कल बाहर थी, शाम में तुम्हें फोन करने का मन हुआ मगर अपना मोबाईल ले जाना भूल गई थी. किस्मत अच्छी थी की पास में एक पी सी ओ मिल गया नंबर मिलाना चाहा तुम्हारा पर याद ही नहीं आया... हताश हो वापस चली आई । दिन भर फिर क्या घूरती रहती हैं मेरी आँखें कि नंबर तक तुम्हारा याद हुआ नहीं ! झल्ला उठी मैं समझ गयी थी कि यह वही दीवानों वाला हाल है जिसकी चपेट में आने से तुम डरा करते थे और मैं बस खिंची चली आई थी.तुम डरते थे मेरी दीवानी सी मोहब्बत से,मगर कोई और सलीक़ा तो प्रेम का आया था ही नहीं मुझे .............
बहुत घबराई हुई थी उस दिन... सड़क पार करते हुए इसी सोच में डूबे-डूबे एहसास तक नहीं हुआ कि कब ट्रक के सामने आ गयी. होश आया तो अस्पताल के वार्ड में... वार्ड -८ हँस पड़ी! नर्स को कहा की बहुत ज़रूरी है एक फोन करना है वो मना करती रही पर मैंने ज़िद्द न छोड़ी तो आख़िरकार वो ले आई फोन. फिर नंबर मिलाने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया तो एहसास हुआ नंबर तो याद ही नहीं.ये फोन-बुक से सब तबाह हो गया है! आवाज़ सुनने को तुम्हारी तड़प रही थी मैं. जानती थी एक्सीडेंट के बारे में सुनोगे तो डाँटोगे मगर फोन तो उठाओगे. मिलने आ जाओगे दौड़े दौड़े ..........मुंबई से दिल्ली का सफर तब कुछ नहीं लगेगा. मगर सोचा अब कोई और रास्ता है नहीं ।घर जाकर संध्या से नंबर लेकर ही करुँगी तुम्हे कॉल मेरा मोबाईल तो चकनाचूर हो ही चुका है. दो हफ्तों बाद घर आई तो फटाफट संध्या से तुम्हारा नंबर माँगा.. और बिना कुछ ज़्यादा कहे सुने फोन रख दिया. कॉल उठा तो सही मगर आवाज़ तुम्हारी नहीं थी फिर भी पूछा मैंने," अरुण है?" कोई लड़की बोली, "नहीं! वो तो बाहर गए हैं... आप कौन?" मैं चुप रही फिर पूछा,"अच्छा आप अरुण की बहिन हो? दिव्या?" वो खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली," नहीं!मैं उनकी पत्नी बोल रही हूँ." मेरे हाथ से फोन छूट गया! तुमने बताया नहीं अरुण? तुमने कुछ कहा नहीं? कुछ कहा क्यों नहीं?..............................................?