सुई-सी लड़कियाँ
सुई-सी लड़कियाँ
सर्दियों ने दस्तक दे दी थी, और आज समय निकाल कर मैं बक्से से गर्म कपड़े निकालने लगी, तभी हाथ अचानक अपने ही बनाये मेजपोश पर पड़ा देखकर ऐसा लगा आजकल कहाँ ये सब चलता है। उस समय कितनी भागमभाग हुआ करती थी इन सबके लिये। कहीं कोई नया डिजाइन दिखा नहीं की उसे सीखने की होड़ ! हमेशा लड़कियाँ इन्हीं कामों से ही गुणी आंकी जाया करती थीं, लेकिन लड़कियाँ होती भी तो सुई-सी बारीक जो अपने भीतर एक छेद करके कब रिश्तों की दो उधड़ी हुई परतों को जोड़ती हैं, कब केवल दिखावे के लिये रिश्तों के धागे से एक खूबसूरत-सा डिजाइन बना कर देखने वाले को मोहित कर दिया करतीं ! बिना इस ओर इशारा किये कि उसने कितने उतार चढ़ाव के बाद इतना सुंदर मोहक रूप लिया ! कब वो सलाई के दो छोर बनकर रिश्तों की गर्माहट लिये ऊन का खूबसूरत-सा गर्म स्वेटर बुन देती थीं ! आज कल ये सब क्यों नहीं होता ? शायद इसका जवाब भी यही है कि लड़कियों ने अब खुद को सुई बनाना छोड़ दिया जो अपने भीतर एक छेद लिये दुनिया भर के सब रिश्ते हर रंग में जोड़ती है। और सहसा मुझे खुद ही लड़कियों के इस फैसले पर गर्व होने लगा।