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पीर पराई

पीर पराई

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विमलेश त्रिपाठी की कुक जमुना भुनभुनाती हुई घर से निकली। वह मन ही मन बड़बड़ा रही थी। 

'सोंचा था बहुत हुआ तो बुढंऊ की चार रोटियां सेंकनी होंगी। इसलिए ये घर पकड़ लिया था। पर क्या पता था कि बूड्ढा सठिआया हुआ है। खुद तो एक बखत खाता है। पर दोनों बखत दस लोगों की रोटियां बनवाता है।'

वह इसी तरह गुस्से से चली जा रही थी तभी पीछे से मिसेज़ रस्तोगी ने आवाज़ दी। 

"जमुना सुनो...."

जमुना मिसेज़ रस्तोगी के पास जाकर बोली।

"क्या है भाभीजी....."

"अरे हम लोग कुछ दिनों के लिए घूमने जा रहे हैं। पीछे से मेरे ससुर के लिए खाना बना दिया करना। दस दिनों की बात है। जो कहोगी दे देंगे।"

जमुना ने कहा।

"तिरपाठी जी के यहाँ ही इतना बखत लग जाता है। हमारे पास टेम नहीं है।"

"अरे उन अकेली जान के लिए कितना बनाती होगी। मेरे ससुर भी बहुत कम खाते हैं।"

"दस जनों का खाना बनवाते हैं। खुद नहीं खाते। भिखारियों में बांट आते हैं। हम नहीं कर पाएंगे। किसी और से बात कर लो।"

जमुना ‌अपनी बात कह कर आगे बढ़ गई। मिसेज़ रस्तोगी भीतर जा रही थीं कि उन्हें विमलेश अपने घर से निकलते दिखाई दिए। हाथ में एक बड़ा सा टिफिन था। 

मिसेज़ रस्तोगी समझ गईं कि खाना बांटने के लिए ले जा रहे हैं। उन्होंने मन ही मन सोंचा अजीब सनक है इन्हें भी। कोई बहुत अधिक पेंशन भी नहीं मिलती है इन्हें। बेवजह इतना खर्च करते हैं। 

विमलेश हाथ में टिफिन लिए पैदल चल कर सड़क पार उस पट्टी पर पहुँचे जहाँ समाज से परित्यक्त कुछ मानसिक रूप से विक्षिप्त लोग बैठे भीख मांगते थे। 

विमलेश को देख सबके चेहरे खिल उठे। वह डब्बा खोल कर उनके बीच रोटियां बांटने लगे। 

उन लोगों को खाते देख विमलेश की आँखों में अजीब सी चमक थी। चेहरे पर परम संतोष था। 

वो उनकी पीर बांट कर अपने दिल का दर्द कम करते थे।


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