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Dhairyakant Mishra

Abstract

3.0  

Dhairyakant Mishra

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उदास गर्म हवाएं

उदास गर्म हवाएं

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तुमको नहीं लगता आज सर्दी बहुत ज्यादा है , ऐसा लग रहा मानो गरम हवाएं उदास सी हो गयी , चलो न एक एक चोकोबार खाते है और उन गरम हवाओं को बुलाते है जो की शायद नाराज़ है |

अंसल मॉल के रेलिंग पे आज भी जब बैठता हूँ , ये बात बहुत कटोचती हैं ,कभी कभार खरोंचती भी है | मैं रूठ कर मॉल के अंदर किसी कोने में खरे सुनसान खम्भे में छुप जाता हूँ , शायद ये सोंच कर तुम्हारी यादें मुझको फिर न ढूंढ ले | पर नहीं , ये ढूंढ लेती ही हैं , सोंचता हूँ काश तुम्हारी यादें काले धन जैसी होती | काश !! काश !!!

परी चौक पर भदीलाल आइसक्रीम बेचने वाला पिछले २ महीनो से एक ही सवाल पूछ रहा है – “आज मैडम नहीं आई ” अब उसको क्या बताऊँ ? हाँ वही आइसक्रीम स्टाल , जहाँ हम दोनों चोकोबार खाते थे , वो अलग बात है मुझे खाना पड़ता था | आज जब आता हूँ तो आइसक्रीम के रैपर्स देख के पिघल जाता हूँ , सोंचता हूँ शायद, शायद कुछ दिन और साथ रहना चाहिए था |

जिंदगी चोकोबार से कब केसर पिस्ता जैसी नैरो हो गयी पता ही नहीं चला , पहले समतल और समान थी , अब नुकीली सी हो गयी जो बहुत चुभती है | कभी कभार आँखों से यादें तब छलक उठती है जब मुझे आइसक्रीम खाने के दरम्यान तुम्हारा वो लबो के ऊपर बर्फ की मूछें बन जाने का वाक़या अनायास याद आ जाता है | तुम जान बूझ कर करती थी , या ये अपने आप हो जाता था , मुझे आज तक नहीं चला पता | वो आखरी बार मैंने जो रूमाल से उसको मिटाया था , वो आइसक्रीम अभी तक रूमाल से पिघली नहीं है , शायद सूख चुकी है , मेरी तरह |

कोशिश करता हूँ आज भी परी चौक जाके अकेले आइसक्रीम खाने की , पर अब बहुत सख्त लगती है , उसको तोड़ने के चक्कर में खुद टूट जाता हूँ |
सर्दी ने फिर से दस्तक दे दी है , गरम हवा का तो पता नहीं , शायद तुम उदास हो इस बार |

एक बात कहूँ – चलो न एक एक चोकोबार फिर से खाते है और उन गरम हवाओं को बुलाते है जो की शायद नाराज़ है | उस रेलिंग पर मैं फिर तुम्हारा इंतज़ार करूँगा , अगर नहीं आई तो मैं दिल्ली वापस लौट जाऊंगा हमेशा के लिए और वो रूमाल उस स्टाल वाले को दे दूंगा , शायद उसको उसके सवाल का जवाब मिल जाये |

"धर्यकांत मिश्रा"


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