मुट्ठी की रेत
मुट्ठी की रेत
हमेशा सुनती आई थीं कि करनी का फल इसी जीवन में मिलता है, कहीं वही तो फलीभूत नहीं हो रहा है ?
अंतरतम में सायास दफनाई हुई स्मृतियाँ मानों प्रेतावस्था में समक्ष आकर नर्तन करने लगी हैं। अब महसूस हो रहा है कि सुहानी जैसी भोलीभाली बहू को मित्र भी तो बनाया जा सकता था पर उस समय तो उसे मुठ्ठी में रखना ही जरूरी लगा था। क्या करतीं, एक डर सा लगता था उन्हें उससे .... उसके नये खून, उसकी कार्य क्षमता से .... उसकी पढाई लिखाई और समझ से....
कहीं वह सबका दिल जीतकर उन्हीं के घर में, जिस पर अभी तक वो राज करती रहीं हैं, उन्हें ही दरकिनार न कर दे। सौ बंदिशें लगाईं उस पर .... ससुर से घूँघट करा, उनसे बातचीत करने पर अंकुश लगाया, बेटे के सामने उसके कच्चेपन को, बिंदास स्वभाव और उम्रजनित आलस्य को बढ़ा-चढ़ा कर रखा कि कहीं वह उसके रूप यौवन में ही खोया न रह जाय !
फिर यही स्वभाव बन गया उनका और दूसरी बहू नूतन के आने पर भी उनके कायदे कानून यथावत् चलते रहे। संतुष्ट थीं वह .... माथा तो उस दिन ठनका जब वो किसी काम से अचानक छत पर गईं और वहाँ उन्होंने अपनी दोनों बहुओं को कोने में छिप, अंतरंग सहेलियों की तरह ठहाके लगाते देखा !
क्या कहिये इस मन को, विचित्र गति है इसकी ! असुरक्षा की अनुभूति अंदर तक सहमा गई थी उनको .... कहीं उनकी बुराइयाँ तो नहीं कर रहीं हैं ये, या मजाक उड़ा रही हैं ? इतनी दोस्ती कैसे हो गई इनके बीच ? ये दोनों मिलकर एक हो गईं तो उनका क्या होगा ?
कहीं कोई साजिश तो नहीं चल रही उनके विरुद्ध ? फिर तो हमेशा के लिए सावधान हो गईं थीं वह कि दोनों को साथ गुजारने के लिये कम से कम वक्त मिले। उन दोनों में स्वयं को बेहतर और एक-दूसरी को कमतर समझने की होड़ पैदा करना भी जरूरी था .... बिना बाँटे राज कैसे करतीं वह ? कोशिशें रंग लाई थीं और दोस्ती ने पैदा होने से पहले ही ईर्ष्या और असहिष्णुता की चादर ओढ़ ली।
यही तो चाहती थीं वह पर काश, सबकुछ बस यहीं तक रुका रहता ! काश, बहुओं के बीच की ये दुश्मनी उनके बेटों तक न पँहुचती ! काश, जिंदगी का वो बदरंग चेहरा उनके सामने न आता कि पंछियों ने न सिर्फ अपने अपने घोंसले बना लिये बल्कि नासमझी और आपसी कलह की न जाने कितनी सीढ़ियाँ चढ़, एक दूसरे के दुश्मन ही बन गए ! ..... या फिर काश, वो समय के पहिए को उल्टा घुमा पातीं और आज अपने इस राजमहल में अकेली न बैठी होतीं।