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बदलते रिश्तें

बदलते रिश्तें

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“आप चिंता न करे मैं स्टेशन से उनको रिसिव करती आउंगी,आप घर पर इंतजाम देख लें प्लीज" सुहासिनी ने अपने पति रवि को फ़ोन पर कहा.“ड्राईवर हटिया स्टेशन चलो, देखो आठ बजे ट्रेन आती है हम देर ना हो जाएँ”

कह कर टैक्सी की पिछली सीट पर सुहासिनी निढाल सी पड़ गई।  दो रातों से वह सो नहीं पाई थी,अब सौ किलोमीटर तय करने में कम से कम दो-अढ़ाई घंटे तो लगेंगे ही, पर चिंता और घबराहट से नींद किसी और ही द्वार जा बसी थी।  कोई दो दिन पहले उसके पापा को मामूली सा हार्ट अटैक आया था, खबर मिलते वह दौड़ी-दौड़ी अपने ससुराल रांची से हजारीबाग जा पहुंची थी। “अभी पिछले महीने ही मिल कर गयी थी तब बिलकुल स्वस्थ थे”, सुहासिनी का मन विचलित हुआ जा रहा था। 
 दो दिनों तक सारे टेस्ट और जांच पड़ताल में व्यस्त रही।  पापा अभी अस्पताल में ही थें, पर आज रक्षाबंधन था और दोनों ननदें अपने बच्चों सहित आ रहीं थी सो उसका आज लौटना आवश्यक था।  बूढी माँ को जरुरी हिदायत दे चलते वक़्त वह रो पड़ी थी।  पीठ पर उन बुढ़ाती नजरों की बेबसी की चुभन उसे व्याकुल किये जा रहा था, बहते नीर और मायके की चिंता को दुपट्टे में समेट उसने देखा कि वह रांची पहुँचने ही वाली हैं।  रास्तें में एक हलवाई की दुकान से उसने अपनी बड़ी ननद की पसंद के गुलाबजामुन पैक कराये और छोटी के लिए रसगुल्ले।
ठीक वक़्त पर स्टेशन पहुँच वह गेट के पास खड़ी हो गयी और मां से पापा के बारें में पूछने ही वाली थी फ़ोन पर कि, दोनों ननदें आ कर लिपट गयी. 
“भाभी–भाभी”, के स्नेह बोलों से भींगती सुहासनी कुछ क्षणों के लिए पापा की बीमारी भूल गयी.टैक्सी में खुशियाँ भर कर जब वह घर पहुंची तो सबके चेहरे खिल गए,जिठानी ने नाश्ते का प्रबंध कर रखा था और मिठाइयाँ फल वह लेते ही आई थी। 

कुछ ही देर बाद नहा-धो कर बहिनें राखियाँ निकाल थाल सजाने लगीं। इसी बीच जिठानी के बड़े भाई भी आ पहुंचे थें और अब वे भी व्यस्त हो चली थी।  सुहासिनी पर अब थकान हावी हो रही थी, उसने एक दर्दनिवारक टेबलेट गटका और घर में छूट रहें खिलखिलाहटों और खुशियों के फौवारों में भींगने की कोशिश करने लगी। पर उसका रीता मन, कोरा व् अछूता रहने को विवश कर रहा था ज्यूँ पानी में कमल के पत्तें।

उसे अपने छोटे भाई सुमन की याद आ रही थी, जिसकी व्यस्तता पिताजी की बीमारी पर भी हावी हो गयी थी. जाने कितने वर्ष बीत गए जो उसने ऐसे सामने बिठा उसे राखी बाँधी होगी।  हर वर्ष डाक से वह कोई एक महीने पहले ही भेज दिया करती थी। सुमन की पत्नी यानि उसकी भाभी को अपने ससुराल से शिकायतों की फेहरिस्त इतनी लम्बी थी कि रिश्तों का बंधन लघुतर व् कमजोर साबित हो गया।  न माँ ने बड़प्पन दिखाया और न भाभी ने समझदारी और उलझी रही सुहासिनी रिश्तों के मकड़जाल में। 

 उसने फिर आँचल में अपने इस दर्द समेटा और कमर में खोंस जिठानी संग रसोई में व्यस्त हो गयी. अगले कुछ घंटों में उन दोनों ने कई पकवान तैयार कर लिए थे।  
“रवि, मैं अब इधर संभालती हूँ प्लीज तुम जाओ न पापा के पास. मुझे बहुत चिंता हो रही है. अभी भी खतरा टला नहीं है. माँ अकेले परेशान हो रहीं होंगी”,
रवि ने उसके कंधे को अपनी हथेलियों से दबाते हुए कहा,
“सुहासिनी तुम एक कुशल मैनेजर हो।  मायके ससुराल सब संभाल लेती हो, मैं निकलता हूँ हजारीबाग के लिए. डॉक्टर से पूछ उन्हें रांची ही लेता आऊंगा”.
रवि को भेज अब वह कुछ हल्का महसूस कर रही थी। ननदों और उनके बच्चों के आने से घर गुलजार था। हर सावन स्नेह लुटाने आतीं इन बहनों की कूक की शहनाई सुनते-सुनते जाने वह कब सो गयी थी. दूर से मानों कोई आवाज आ रही थी,
“भाभी-भाभी, आँखे खोलो देखों कौन आया है”, छोटी ननद उसे झकझोर रही टी। 
बमुश्किल उनींदी आँखों को खोला, सहसा विश्वास नहीं हुआ...

सामने सुमन बैठा हुआ था, यह क्या...

अचानक सुमन उसके क़दमों के पास बैठ गया और जेब से एक राखी निकाल उसकी कलाई पर बाँधने लगा। 

“अरे! अरे! बुद्धू ये क्या कर रहे हो, कहीं भाई बांधते हैं राखी?”, सुहासिनी ने चौंकते हुए कहा.

“मुझे बाँधने दो, मैं तो सिर्फ जन्म से बेटा हूँ वास्तव में तो तुम.....”, कहता अश्रुसिक्त सुमन उसके गले लग गया। 


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