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कठघरे से बाहर

कठघरे से बाहर

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सूने कमरों में बेमतलब चक्कर लगाना, बार-बार माँ की चीजों को छूना, रसोई घर में बिसूरते मसाले के डिब्बों, बर्तनों को माँ के बिना देखने की पीड़ा इतनी अधिक चुभन भरी थी कि मैं काँच सी बार-बार टूट कर झनझनाती रही हूँ। यह एहसास जानलेवा है कि अब वे मेरे साथ नहीं हैं। नीले आसमान में तारों की हमजोली बन गई हैं वे... भले ही गर्मियों की गहराती रातों में छत पर लेटे हुए मैं कितना ही उन्हें ढूँढने की कोशिश करूँ पर समझ ही नहीं पाती कि उन अनगिनत तारों में कौन-सी मेरी माँ हैं पर वे ज़रूर अपनी इस तीसरी बेटी को देख रही होंगी जिसे कोख से मिटाने के लिए दादी बेचैन थी। सोनोग्राफी की रिपोर्ट के बाद उन्होंने अपना फैसला सुना दिया था- “फिर से लड़की! एबॉर्शन करा लो बहू... कहाँ ता लड़कियाँ पालोगी?”

माँ ने पेट में मुझे ऐसे छुपाया था जैसे चिड़िया अपने परों के नीचे अपने अंडे सेती है। माँ ने खुद को दादी के फैसले के बाद कमरे में बंद कर लिया था और शाम को पापा के आने के बाद ही दरवाज़ा खोला था- “नहीं, मैं एबॉर्शन नहीं कराऊँगी। मैं अपनी अजन्मी बेटी की हत्या नहीं होने दूँगी, चाहे कुछ भी क्यों न हो।”

पापा निर्विकार, उन्हें कुछ भी फर्क नहीं पड़ा इस बात से। न वे दादी के विरोध में गये न माँ के... और फर्क नहीं पड़ा इसी बात की तो मुझे शिकायत है। क्यों नहीं उन्होंने माँ के पक्ष में दादी से बहस की? क्यों उन्होंने इस नाजुक वक़्त में माँ को अकेला छोड़ दिया। वे खुद भी अकेले ही हैं। न उनके कोई यार दोस्त हैं, न उनका कोई शौक। जो मिल गया खा लिया, पहन लिया। उन्हें तो अपनी बेटियों के स्कूल के नाम तक नहीं मालूम थे। न कक्षा, न वर्ग, न रिज़ल्ट से मतलब, न किताब कॉपी से। एक़दम तटस्थ... बस घर से ऑफ़िस और ऑफ़िस से घर तक की ज़िंदग़ी जीते रहे थे। जबकि माँ बेहद शौकीन... उनकी हर बात में सलीका था। घर साफ़ सुथरा, सजा हुआ। रसोईघर करीनेदार... एक से एक व्यंजन बनाने में निपुण। तीज त्यौहारों पर खूब धूमधाम रहती। रिश्ते निभाना वे बखूबी जानती थीं। उनकी सहेलियाँ उनकी ज़िंदग़ी का अहम हिस्सा थीं। माँ ने पापा के होते हुए भी पापा के बिना रहने की आदत बना ली थी। दुख, दर्द, पीड़ा छुपाकर सदा हँसते रहना, खुशियाँ बाँटना, सबकी मदद के लिए तत्पर रहना अब उनकी आदत में शुमार हो गया था। कभी-कभी मैं सोचती हूँ कैसे वे पापा की इतनी तटस्थता सह पाईं। मेरा सोनू मुझे ऑफ़िस पहुँचकर फोन नहीं करता तो मैं तड़प उठती हूँ। शाम को लौटने में देर करता है तो रूठकर बगीचे में जा बैठती हूँ... लेकिन तब भी मेरे कान सोनू की आहट सुनने को बेचैन रहते हैं... आँखें उसकी राहों में बिछी रहती हैं। आते ही वह मनाने लगता है- “सॉरी यार... ऑफ़िस से ही देर से निकला... अब मान भी जाओ जानेमन... मैं फ्रैश हो लेता हूँ फिर ‘फूड जंक्शन’ चलते हैं डिनर के लिए।” मैं भी मन ही मन खुश होते हुए सोनू को नहीं बताती कि डिनर तो मैंने पहले ही तैयार कर लिया है... अब नहीं खायेंगे तो बेकार जायेगा न क्योंकि मेरे लिए डिनर के बेकार होने से ज़्यादा अहम बात है सोनू के साथ बाहर जाना, मद्धम रौशन के ठन्डे केबिन में बैठकर गर्मागर्म डिनर का स्वाद चखना... टेबल पर हम दोनों के बीच। लाल गुलाबों का गुलदस्ता होना... लाल पंखुड़ियों के उस पार सोनू का नीली आँखों वाला खूबसूरत चेहरा होना और मेरा नीली जींस के ऊपर ब्लैक टॉप, ब्लैक कुंदन की जूलरी पहने होना जिसका चुनाव खुद सोनू ने किया था... क्या ऐसे खूबसूरत लम्हे माँ ने जिए होंगे? पापा ने क्यों नहीं सोचा माँ के लिए? क्यों उन्हें हर चीज से वंचित रखा? क्यों उनकी भावनाओं को नहीं समझा, कभी अंतरंग नहीं हुए? मेरी नज़रों में पापा गुनाहगार हैं, उन्हें कोई हक़ नहीं था पराए घर की लड़की को ब्याह कर लाना और उसकी भावनाओं को इस तरह चोट पहुँचाना जबकि वे पारिवारिक ज़िंदग़ी से एक़दम तटस्थ हैं।

माँ में गज़ब की जिजीविषा थी। वे बेहद बुद्धिमान और तमाम बातों की जानकारी रखने वाली विदुषी महिला थीं। अपनी कोशिशों से उन्होंने वह मुक़ाम हासिल किया था जिसके लिए कोई भी प्रगतिशील औरत लालायित रहती है। वे समाज सेविका के नाम से मशहूर थी और सामाजिक संस्था संगिनी की अध्यक्ष। वे दुर्गम, बंजर, बीहड़ रास्तों की पड़ताल कर वहाँ बसे आदिवासियों को जीने का हुनर सिखाती थीं। वे वह सब करतीं जिससे समाज विकसित हो। देश विकसित हो। लेकिन इसके लिए उन्होंने कभी भी अपने घर परिवार को उपेक्षित नहीं किया। हम तीनों बेटियों की परवरिश उन्होंने जीजान लगाकर की... जबकि पापा को हमसे। कोई मतलब न था। न हमसे, न माँ से, न माँ के सामाजिक कामों से और न घर द्वार से। हाँ, एक अच्छाई थी उनमें कि उन्होंने माँ के कामों में कभी दखलंदाज़ी नहीं की। पर उससे क्या? उन्होंने अगर दखलंदाज़ी नहीं की तो प्रशंसा भी तो नहीं की। न उनके कामों की, न उनके सौंदर्य की। लेकिन माँ ने कभी शिकायत नहीं की इन बातों की। बल्कि वे हम तीनों बेटियों से कहती “तुम्हारे पापा तो साधु हैं... संसार से विरक्त। उनके माँ बाप ने शादी कर दी वरना जंगलों में कहीं धूनी रमाते वे।”

मैं माँ की महानता उनकी आँखों में पढ़ते-पढ़ते पापा को कठघरे में ले आती... मुझे सभी बातों का जवाब चाहिए उनसे। मुझे माँ की बरबादी का जवाब चाहिए उनसे। मेरे पास जिरह के तमाम मुद्दे मौजूद हैं। वॉर्डरोब की ओर बढ़ते मेरे हाथ थम गये हैं। सामने लटकी साड़ियाँ जैसे माँ के आँसूओं से भीगी हैं। ज़रूर माँ इन साड़ियों को पहनकर पापा का इंतज़ार करती होंगी पर पापा ने कभी यह नहीं कहा कि- “तुम इस साड़ी में बहुत सुन्दर लग रही हो।” मेरे हाथ गुलाबी साड़ी पर फिसलने लगते हैं। यह रंग सोनू को बहुत पसंद है। उसे इस रंग के गुलाब के फूल भी बहुत पसंद हैं। अक़्सर कहता है- “गुलाबी रंग का गुलाब मुँह में पानी ला देता है मन करता है तोडूँ और खा जाऊँ।” वह मेरे लिए अधिकतर गुलाबी रंग के गुलाब ही लाता है और जिस दिन मेरी पोशाक गुलाबी होती है उस पर इश्क का जूनून-सा चढ़ जाता है। वह शाम, वह रात प्यार की बेशकीमती सौगात लिए मेरे दिल पर दस्तक देती है... मुझे लगता है जैसे दरख़्तों कीशाखों पर फूल ही फूल हों जैसे दूर आसमान झुककर धरती को प्यार कर रहा हो। और माँ! “ओह माँ... ज़िंदग़ी का सबसे सुंदर ज़ज्बा तो तुमने महसूस ही नहीं किया।” मेरी आँखें भर आई, आँसू गुलाबी साड़ी पर ओस से ढलकने लगे। पापा को माँ से कोई लगाव नहीं था। इसकी वजह उनका विरक्त मन था... वे एक रोबोट की तरह बस अपने काम में लगे रहते। अभी माँ को गये हफ़्ताभर भी नहीं हुआ था कि वे ऑफ़िस जाने लगे थे। उनके चेहरे पर माँ के बिछोह की छाया तक नहीं थी।अगले साल रिटायर हो जायेंगे वे।

जब माँ थीं तो कहते थे रिटायर होकर मैं तो गंगोत्री चला जाऊँगा और गंगोत्री से गोमुख तक आना जाना रखूँगा। भोजबासा की गुफाओं में साधुओं की संगत में बाकी की ज़िंदग़ी गुजारूँगा लेकिन उन्होंने माँ के बारे में कभी नहीं सोचा कि उनका बुढ़ापा कैसे कटेगा? बेटियाँ अपने-अपने घर द्वार की हो जाएँगी तब माँ क्या ज़िंदग़ी की साँझ तन्हा काटेंगी? मैं द्रवित हूँ। माँ को लेकर भीतर तक पीड़ा से भरी। माँ ने सहज, सरल शांत और संतुष्टि भर ज़िंदग़ीनहीं जी... पापा के साथ के बिना वे अपने एकांकी पलों में कभी बगीचे में कलमें रोपतीं, बीज बोतीं या फिर मशीन लेकर बैठ जातीं और कपड़ों को दुरुस्त करतीं कितनी ही बार रात को मैंने उन्हें बिस्तर पर लेटे, कमरे की सीलिंग में आँखें गड़ाए देखा है।

सोनू ने मुझे अपने घर की रानी बनाकर रखा है। मैं खाना भी इसलिए पकाती हूँ क्योंकि सोनू को नौकरों के हाथ का पसंद नहीं आता वरना हर काम के लिए नौकर हैं। आज लगता है माँ ने पापा की गृहस्थी को मज़दूर की तरह जिया है। वॉर्डरोब बंद कर मैंने रसोईघर में आकर चाय बनाई। माँ पापा की चाय मेंदालचीनी ज़रूर डालती थीं ताकिउनका ब्लडप्रेशर नॉर्मल रहे। दालचीनीमैंने भी डाली। चाय कप में छानकर मैंने पापा के कमरे में जाकर चायरखते हुए उन्हें तीखी नज़रों से देखा। सोच लिया था कि आज कठघरे में खड़ाकर उनसे पूछूँगी... अव्वल तो ये कि आपने शादी की ही क्यों? और जब की माँ को क्यों जीते जी मार डाला? क्या हक़ था आपको? क्या आप माँ की भावनाओं की कद्र करना नहीं जानते थे या पत्नी के प्रति अपने कर्तव्यों से अनभिज्ञ रहे आप? पर तभी बड़ी जीजी आ गईं और मैं पापा को कठघरे में खड़ा करने से फिर चूक गई।

माँ की तेरहवीं के लगभग महीने भर बाद मैं पापा से मिलने आई। वे घर पर नहीं थे। सूने घर की दुर्दशा देख रुलाई आ गई।हर जगह धूल, अस्त व्यस्तता, रसोईघर में इधर-उधर लुढ़के पड़े बर्तन अपनी चमक खो चुके थे। जैसे रसोईघर न हो,घर का कबाड़ रखने वाला कमरा हो। वैसे भी पापा को इन सबकोसहेजने, सँवारनेकी आदत ही कहाँ है, कोई ऐसा नौकर भी नहीं जो समर्पित होकर काम करे। माँ की गैरमौजूदगी की आँधी से तहस नहस हुएघरको मैं माँ की तरह ही सजाने, सँवारनेमें जुट गई।रोतीजाती थी और पापा के प्रति विद्रोह की भावना भरती जाती थी। माँ की अवहेलना कर जो ज़ख्म उन्होंने मुझे दिये, वे दिखाई तो नहीं देते पर उनका दर्द अंदर तक टीस पहुँचाताहै। तय था कि शाम को सोनू ऑफ़िस से सीधा यहाँ आयेगा। हम पापा के साथ डिनर लेकर घर लौटेंगे। लेकिन वह कब आया मुझे पता ही नहीं चला। मैंने काम में सहूलियत की वजह से माँ की तरह गाउन पहन रखा था और बालों को जूड़े की शक्ल में पिन किया था। सारे कमरे साफ़ हो चुके थे। बस, रसोईघर की अलमारी बची थी। मैं तेज़ी से अलमारी की सफ़ाई करते हुए डिब्बे जमा रही थी कि तभी सोनू मेरे कंधे के पास फुसफुसाया- “तुम तो माँ की तरह दिख रही हो?”

मैं चौंक पड़ी- “अरे, तुम कब आये, पता ही नहीं चला।” और वॉशबेसिन में हाथ धोते हुए मैंने अपना चेहरा आईने में देखा... मगर वहाँ मैं नहीं माँ थी। पापा की गृहस्थी में मज़दूरी करके निस्तेज, थके चेहरे वाली माँ... पापा की तारीफ़, एक वाहवाही के लिए तरसती माँ... घुट-घुट कर मरती माँ... पापा की तटस्थता में पिसती माँ... मैं घबरा गई... कहीं सोनू भी पापा की तरह!!! और मैं बदहवास उससे लिपट गई।

उस पल भर की कल्पना ने मुझे सिर से पाँव तक झँझोड़ डाला था और माँ ने तो इस हकीकत को तीस बरस जिया है। तभी पापा के जूतों की आहट कील पर हथौड़ी की तरह बजी। मैंने दरवाज़े की ओर देखा। आज पापा जल्दी कैसे लौट आये। मुझे देखते ही उन्होंने मुझे सीने में ऐसे भर लिया जैसे माँ मुझे भेंटती थीं... मैं रोने लगी तो सिर पर हाथ फेरते रहे, बोले कुछ नहीं।

“चाय बनाती हूँ आपके लिए।”

वे सोफ़े पर थके-थके से बैठ गये। चाय पीते हुए कहने लगे- “घर तो तुमने पहले जैसा सजा सँवार दिया।”

आप तो करने से रहे... वैसे भी आपको घर से मतलब ही कहाँ रहा? मैंने कहना चाहा पर ज़ब्त कर गई। उन्होंने चाय ख़तम कर प्याला तिपाई पर रख दिया और सोफ़े पर सिर टिका लिया- “क्यों इतनी मेहनत की बिटिया? पड़ा रहने देतीं अस्त व्यस्त। मुझे एहसास होने देतीं- कि तुम्हारी माँ अब नहीं हैं।”

मैं चौंक पड़ी... तो अब आप उन्हें महसूस करना चाहते हैं, करीब पाना चाहते हैं? मेरे ज़ख्म टीसने लगे।

“जब से तुम्हारी माँ गई हैं, घर काटने को दौड़ता है। घर के संग-संग मैं भी बिखर गया हूँ। अब महसूस होता है मैंने उन्हें कोई सुख नहीं दिया। मैं तुम्हारी माँ का गुनाहगार हूँ।”

ज़ख्मों की टीस पर जैसे हलका-सा मलहम लगा हो... लेकिन मैंने अपनी भावनाओं को ज़ब्त किया। मुझे किसी भी हालत में कमज़ोर नहीं पड़ना है। पापा को कठघरे में लाना ही है। स्वर में तीखापन लाते हुए कहा मैंने- “आपको क्या फ़र्क़ पड़ता है... वॉलंटिरी रिटायरमेंट लेकर गंगोत्री चले जाइए और भोजबासा की गुफ़ाओं में रहिए। यही तो आपकी प्लानिंग थी न।”

उनकी आँखों में आँसू झलक आये- “क्या कह रही हो बिटिया, फिर इस घर का क्या होगा? उनका लगाया बाग बगीचा कौन देखेगा? घर के कोने-कोने में वे बसी हैं, कैसे जाऊँ यहाँ से? मरने के बाद क्या जवाब दूँगा उन्हें कि उनके बाद उनका बसाया घर द्वार संभाल नहीं पाया मैं? लेकिन बिटिया उनके बिना रहूँ भी कैसे?” और वे माँ की मृत्यु के बाद पहली बार टूट कर रोए... मैंने उन्हें रोने दिया लेकिन यह भी महसूस किया कि मेरे मन पर लगे जख्म अब धीरे-धीरे टीसना बंद कर रहे हैं। बस एक चुभन है जो शायद ता उम्र रहेगी।

मैं पापा के प्रति दया से भर उठी। मैंने ग़ौर किया कि वे दुबले भी हो गये हैं और उनके चेहरे पर गहरा अवसाद है।अचानक मैंने पापा को कठघरे से बाहर पाया। 


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