अ-सहिष्णुता
अ-सहिष्णुता
काफी दिनों से, छेदी बड़ा शान्त दिख रहा था। न पाये की खुशी, न खोये का दुःख। पर अब कुछ दिन से, उसके मन में हलचल हो गई है। अन्यथा वह इस तरह, भेदी से मिलने की तो क्या बात करने की हिमाकत नहीं करता। फोन से सम्पर्क के कई प्रयास विफल होने के बाद, उसने घर जाकर मिलने का निश्चय किया।
भेदी से मिलते समय छेदी ऐसी मुद्रा में दिखा जैसे उसकी गाय रस्सी तोड़कर भाग गई हो और वह भेदी से उसके भागने की दिशा बूझने का आग्रह कर रहा हो। वहीँ, भेदी उस मास्टर जी की तरह जो किसी छात्र को बिना फीस ट्यूशन दे रहे हों। अवसर पाते ही छेदी ने प्रश्न किया, 'ये असहिष्णुता क्या बला होती है ?' भेदी ने, मेज पर पड़े समाचार पत्र, पुस्तकों को व्यवस्थित करते हुए, बिना नजरें मिलाये कह दिया। 'क्या यही पूछने के लिए इतने बेचैन हो रहे थे।' और फिर कई वस्तुएं जो अन्यत्र बिखरी पड़ी थीं, उनको उचित स्थान पर रखने में व्यस्त हो गया, जैसे छेदी ने कोई अनावश्यक बात कही हो। हो सकता है, उसे भी अनेकों तथाकथित पढ़े लिखों की भाँति इस शब्द का सही भावनात्मक पहलू ही नहीं पता हो। क्योंकि प्रायः उपयोग में आने वाला शब्द तो सहिष्णुता है न।
किंतु छेदी की बेचैनी कम न हुई, बढ़ गई। इसलिए नहीं कि भेदी ने आगे कुछ कहा नहीं, बल्कि इसलिए कि अब आगे क्या कहने वाला है। भेदी जब किसी बात से पल्ला झाड़ ले तो समझो, बात कुछ गहरी है और किसी दिशा में मोड़ ले सकती है। लम्बी चुप्पी के बाद, छेदी ने प्रश्न की पुनरावृत्ति की सोची ही थी कि भेदी बोल पड़ा।
"तुमने सहिष्णुता का तो सुना होगा, यह उसके विपरीत होती है।" यह बात छेदी को ऐसी लगी जैसे किसी लाख टके के सवाल का जवाब सवा लाख देकर प्राप्त हो, वह भी पहेली स्वरूप, अधूरा। खैर, धीरे-धीरे बातचीत ने गति पकड़ ली। हालांकि, इस दौरान भेदी ही बोले जा रहा था। कभी छेदी की जुबान पर हाँ, तो कभी सिर हिलाने वाली हाँ। अल्पविराम आये तो लगे, जो एक ने कहा दूसरे ने समझ लिया। परन्तु बात तो अभी बाकी ही थी। बारी आई, क्या, क्यों, कैसे जैसे सवालों की। "तो... " छेदी ने बड़ा प्रश्न दागना चाहा कि चाय आ गई। भेदी ने, पुनः पुस्तकें दाँये बाँये की और चाय इत्यादि को, ट्रे समेत रखवा लिया। मानो, व्याख्यान पूरा होने के बाद ही इसका समय निश्चित हो !'
"तो ये असहिष्णुता फैलाने वाले लोग कौन होते हैं, इनको कैसे पहचाना जाये तथा समाज के सामान्य लोगोँ को किस प्रकार से इनके बारे में अवगत कराया जाये।" छेदी के स्वर में जितनी उत्सुकता बढ़ी, उतना ही भेदी के मन में नकारने का भाव। उसके पुनः आग्रह पर इतना ही कहा, "यह मुश्किल कार्य है।" यह सुनकर छेदी के, तो जैसे हलक में कुछ अटक सा गया। अपने धीमी-गति के-संगणक समान मस्तिष्क को, उसने हरकत दी। कई क्षणों तक, दाँये हाथ की उंगलियों द्वारा ठोड़ी से कान की दूरी को, खुजलाते हुए मापता रहा। वह यह मानने को राजी नहीं था कि भेदी समस्या का कोई भी समाधान न सुझाये। "यह कैसे हो सकता है?'
इस बार भेदी कुछ कहना चाह रहा था पर छेदी के बोलने का इंतजार करने लगा। अब छेदी को गायों का झुँड तो नजर आने लगा, बस अमुक गाय पहचानने का सूत्र समझना बाकी था। आखिरकार उसके हलक का अटकाव दूर हुआ। "तो क्या हम इस विषय में कुछ नहीं बोल सकते ?" "बिल..कुल नहीं।" भेदी ने तुरन्त जवाब दिया। "यह कुछ न बोलने या तर्क करने का विषय है। कुछ भी कहना, किसी की तरफ उठाई गई उस उँगली के समान है, जिसके साथ की तीन उंगलियाँ वापसी अर्थात सवालिया होती हैं।"
छेदी की जीभ कुछ कहने को लपक रही थी किन्तु उसके अंतर्मन ने रोक दिया, कि क्या फिर नये तर्क के साथ तीन और नये सवाल खड़े करने जा रहा है। 'क्या यहीं से असहिष्णुता की शुरुआत तो नहीं होती ?' प्रथम बार उन दोनों के मन में एक ही विचार चल रहा था, 'असहिष्णुता का एक और प्रयोग होते होते रह गया।' हम सभी असहिष्णु हैं यदि दूसरों की नाक को छेड़ने की कोशिश या अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें। दोनों की नजर, नाश्ते की ट्रे पर पड़ी, जिसमें रखी चाय की भाप तो पहले ही निकल चुकी थी। हाँ, मिठास अवश्य बढ़ गई। दोनों चाय पीते-पीते, सहिष्णुता प्रदर्शित करते हुए मुस्कुरा रहे।