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हिम स्पर्श - 24

हिम स्पर्श - 24

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जीत मौन तो था किन्तु अशांत था।

जीवन के जिस अध्याय को मैं पीछे छोड़ चुका हूँ, जिसे छोड़ देने के पश्चात कभी याद नहीं किया, याद करना भी नहीं चाहता था किन्तु, वफ़ाई उसी अध्याय को पढ़ना चाहती है। तप्त मरुभूमि में सब संबंध, सब वार्ता, सभी स्मरण, सब कुछ भस्म कर दिया था मैंने। वफ़ाई, तुम मुझे स्मरणों की अग्नि में पुन: जला रही हो। तुम नहीं जानती की स्मरणों की अग्नि कितनी तीव्र होती है, कितनी घातक होती तो भाग जाओ इन स्मरणों से, बच निकलो उसकी अग्नि से। आज तक उसे याद नहीं किया तो अब क्यों कर रहे हो ? वफ़ाई के सवालों का जवाब देने के लिए ? जब वफ़ाई ने सवाल किया है तो उसका उत्तर तो देना ही पड़ेगा...

क्यों देना पड़ेगा ? तुम उस उत्तर को टाल भी सकते हो। वैसे भी वफ़ाई कुछ ही दिनों की अतिथि है, जैसे आई थी वैसे चली जाएगी। वफ़ाई के प्रश्नों को इतना महत्व क्यों दे रहे हो, उसका प्रश्न ...

वफ़ाई को तुम्हारे बीते हुए कल से कोई संबंध नहीं है। उसे केवल उसका अभियान पूरा करना है और तब तक वह तुम्हारे साथ समय व्यतीत करना चाहती है। अपने स्वार्थ की सिद्धि हेतु ही वफ़ाई ऐसे प्रश्न कर रही है, करती रहेगी। तुम उसे जवाब ही ना दो, नहीं, वफ़ाई स्वार्थी नहीं हो सकती। तो स्मरणों की अग्नि में तपते रहो।

स्मरणों से कौन बच सकता है ? बड़े बड़े ऋषि मुनि भी नहीं, मैं भी नहीं।

जीत ने आँखें बंद कर ली। आँखों के सामने कुछ दृश्य आने लगे।

दो साल पहले जब सर्दियाँ अपने पूरे यौवन पर थी। पहाड़ियों पर हिम अविरत बरस रही थी। समाचार माध्यमों पर हिम से ढंके पहाड़ों की चोटियों के दृश्य दिखाये जा रहे थे।

जीत किसी होटल पर दिलशाद के साथ भोजन लेते लेते समाचारों को देख रहा था। दिखाये जा रहे दृश्यों में पहाड़ों पर बिखरी हिम की चादर अत्यंत रोचक, मोहक और लुभावनी लग रही थी। हजारों किलोमीटर दूर रहते हुए भी हिम की अनुभूति हो रही थी।

“जीत, चलो न हम भी चलते हैं इन पहाड़ों के बीच। हिम की चादर कितनी सुहानी लगती है!” दिलशाद ने बड़ी देर से टीवी देख रहे जीत को उकसाया।

“क्या बात कर रही हो ? इतनी ठंड में ? कहीं तुम उपहास तो नहीं कर रही ?” जीत ने गंभीरता से दिलशाद के चेहरे को देखा।

”नहीं तो। मैं पूरी सभानता से यह प्रस्ताव रख रही हूँ।“

“इतनी ठंड में वहाँ जाना उचित होगा क्या ?”

“जब ठंड ज्यादा होगी तभी तो हिम गिरेगी। हिम ...’

“कुछ समय बाद जब ठंड कम हो तब भी हिम तो बनी रहेगी इन पहाड़ों पर। तो तब...’

“जमी हुई हिम तो पूरे साल मिल जाएगी। गिरि हुई हिम स्थिर होती है, उस में जीवन कहाँ ? जो बहता है, जो चंचल है उसी में ही जीवन है, जीवन का आनंद है। आसमान से गिरती हिम देखनी हो तो आज ही निकल जाना चाहिए। गिरते हिम को देखना, अनुभव करना, फिसलना, गिरना, एक दूसरे को हिम के गोले मारना। कितना आनंद आएगा, जीत ..।” दिलशाद रोमांचित थी।

जीत ने घड़ी देखी। कुछ क्षण सोचता रहा।

”ठीक है, कुछ सोचते हैं। दिलशाद, तुम घर जाकर तैयारियां करो। मुझे थोड़ा समय लगेगा। सारी व्यवस्था कर के आता हूँ।“

जीत और दिलशाद का विवाह हुए तीन चार महीने व्यतीत हो चुके थे किन्तु वह कहीं घूमने जा नहीं सके थे।

घर आते ही जीत ने कहा, ”दिलशाद, कल सुबह 7 बजे की फ्लाइट से हमें निकलना है।“

दूसरे दिन शाम ढलने से पहले दोनों बर्फीली पहाड़ियों पर थे। आकाश से रिमझिम गिरते हिम की बारिश से भीगने लगे थे।

“कितना सुंदर है यह सब ? जहां भी नजर दौड़ाए बस हिम ही हिम दिखाई देता है।“

दिलशाद ने अपने जीवन में बर्फीली पहाड़ियों पर गिरते हिम को पहेली बार ही देखा था, तो जीत ने भी पहले कभी ऐसा अनुभव नहीं किया था।

“हिम का एक समंदर हो जैसे।“ जीत भी उत्साहित था। गगन की तरफ सर उठाकर, दोनों बाजू फैलाकर, आँखें बांध कर जीत गिरते हुए हिम को अपने आलिंगन में लेने लगा। आँख पर, गालों पर, बालों पर, हाथ पर, कंधे पर, सारे शरीर पर हिम छा गई। ऐसा लगता था कि जैसे जीत ने हिम के वस्त्र पहने हो।दिलशाद ने भी जीत का अनुकरण किया।

“जीत, बड़ा आनंद आता है हिम की बारिश में भीगने का, नहाने का।“ दिलशाद ने जीत का ध्यान आकृष्ट करना चाहा। जीत ने दिलशाद को देखा। दिलशाद के गोरे गालों पर श्वेत हिम और उस पर गिरती सूरज की मध्धम धूप!

श्वेत गाल, श्वेत हिम और श्वेत किरण।

“यह सूरज की नर्म किरणें, यह श्वेत हिम और तुम्हारे श्वेत गाल। कौन किसकी शोभा बढ़ा रहा है ?” जीत ने रूमानी अंदाज से दिलशाद का हाथ पकड़ लिया। दिलशाद का चेहरा लज्जा से गुलाबी हो उठा। पारदर्शक हिम की परत के पीछे से नजर आते गुलाबी गाल ! हिम गुलाबी हो गया। दिलशाद ने आँखें बंद कर ली, जीत की तरफ पीठ रख कर खड़ी हो गई। सूरज बादलों में खो गया।

दिलशाद देर तक मौन खड़ी रही। जीत उसे देखता रहा। वह दिलशाद थी या हिम की प्रतिमा ?

जीत आठ दस कदम पीछे हट गया। मुट्ठी भर हिम उठाया, गोला बनाया और दिलशाद की पीठ पर मारने के लिए फेंका। अचानक दिलशाद जीत की तरफ मुड़ी।

पीठ पर लगने वाला हिम का गोला दिलशाद की छाती पर बीचों बीच लगा। खाली स्थान पर अपना हक जमा कर बैठ गया।

जीत दौड़ा, दिलशाद को अपने आलिंगन में ले लिया। दो छातियों की ऊष्मा से वह हिम पिघलने लगा। सारे हिम पिघलने लगे। कोई झरना बहने लगा, पहाड़ियों के बीच से। दो छातियों के बीच अब कोई हिम न था, केवल झरना था, जो दोनों तरफ बहा रहा था।

बर्फीली पहाड़ियों में कुछ दिन यूं ही बीत गए। दोनों ने छुट्टीयों का खूब आनंद लिया।

“जीत, कल तो हमें लौटना है। कितनी जल्दी बीत गए ये दिन ?”

“यहाँ की बात ही निराली है। यह हवा, यह पहाड़ी, यह हिम, यह झरने, कभी कभी निकल आती धूप, खुल्ला गगन।” जीत अपनी बाहें फैलाये आकाश की तरफ देखने लगा।

“और तेरा मेरे साथ होना।“

“कितना सुखद, कितना अद्भुत है यह सब?”

“क्या हम कुछ दिन और नहीं रुक सकते ?” दिलशाद ने आग्रह भरी नजरों से जीत को देखा। जीत उन आँखों के आग्रह को टाल न सका,”यदि तुम कहती हो तो...।” जीत रुका, दिलशाद को देखा, दिलशाद के होठों पर स्मित था,“तीन दिन और रुक लेते हैं।”

जवाब में दिलशाद ने प्रगाढ़ आलिंगन दे दिया। दोनों खो गए पहाड़ों में, हिम से भरी घाटियों में। शाम होते लौट आए होटल पर।

“दिलशाद, आज खाना यहीं मँगवा लेते हैं।“ जीत ने सुझाया।

“थक गए हो क्या ?”

“थोड़ा सा।“

“नीचे तक चल सको तो...।”

“नहीं, आज कुछ...।“ जीत लेट गया।

दिलशाद ने खाना मँगवा लिया। थोड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। दोनों ने खाना खा लिया।

जीत फिर लेट गया। दिलशाद कोई किताब पढ़ने लगी। रात धीरे धीरे गहरी होने लगी। ठंड बढ़ने लगी। दोनों एक दूसरे के आलिंगन में सो गए।


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