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'द सर्वाइव'- जीत की ओर

'द सर्वाइव'- जीत की ओर

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"जाके पैर न फ़टी बिवाई,

वो क्या जाने पीर पराई।" अपने आंसूओं को जज़्ब करती हुई, वह मन ही मन बुदबुदा उठी।

जब से वह घर लौटी थी, अंधेरें में ही सिमट कर रह गयी थी। उसने अखबारी क़ागजों से कमरे की खिडक़ी पर लगे शीशों को भी बंद कर दिया था। जिससे बाहर की रौशनी अंदर न आ सके। अपनों की नज़र में हमदर्दी थी या बेचारगी, पता नहीं। लेकिन दोनों ही बातें उसके मन को आहत कर रही थी। घंटो सोचने के बाद भी उसको अपनों की सांत्वना कुछ हद तक शांत तो करती। जो हुआ उसको 'स्वीकार करे या प्रतिकार करे' वह निर्णय नहीं कर पा रही थी। उससे भी बड़ा प्रश्न था कि ''कैसे दूसरों का सामना कैसे करे? जब खुद का ही सामना नहीं कर पा रही हूँ।" यही सोचते हुए वह खिड़की में लगे शीशे के सामने आ खड़ी हुई।

"क्या अपराध था मेरा?"

"यही, कि तुमने मेरी होने से मना कर दिया और, अब तुम्हारा कोई होना भी नहीं चाहेगा।" सहसा ही धुंधले शीशे में 'उसका' दुष्ट चेहरा कुटिल मुस्कान लिये आ खड़ा हुआ।

"नहीं ऐसा नहीं होगा।" वह सहम कर पीछे हट गयी, मन का अंधेरा और गहराने लगा।

अचानक कुटिल मुस्कान ठहाकों में बदलने लगी। एकाएक भीतर का अँधेरा आक्रोश बन शीशे से जा टकराया और शीशा टूटकर बिखर गया। शैतानी चेहरा कई टुकड़ो में बंट कर बिखर गया। शीशे पर लगा अखबार फटने के बाद हवा में फ़ड़फ़ड़ाने लगा। टूटी खिड़की से छनकर आती रौशनी ने सहज ही उसकी आँखों को उजाले से भर दिया। उसका तन-मन आलोकित होने लगा।

उसकी आँखें देर तक खिड़की पर टिकी रही। उसका आत्मविश्वास अनायास ही लौटने लगा था और कुछ ही पल में वह फ़िर से जीने का निर्णय कर चुकी थी। उसने हाथ बढ़ाकर उस फ़टे हुए अखबार को खींच कर मुट्ठी में भर लिया जिस पर फ़ोटो सहित खबर छपी थी कि "ऐ कैफ़े रन बाई एसिड अटैक सर्वाइवर्स।"


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