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Agrawal Shruti

Romance

5.0  

Agrawal Shruti

Romance

ज्योति की ओर

ज्योति की ओर

7 mins
718


दीपानिता,

शायद मैं तुम्हें एक बार फिर नाराज ही न कर दूँ कि मैंने तय किया है कि अब से मैं तुम्हें दीप पुकारा करूँगा। जानती हो क्यों ? तुमने सुना ही होगा, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'... हाँ दीप, वो तुम्हीं हो जिसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मेरे तमस से, मेरे अँधेरों से बाहर निकाल कर ज्योति की पहचान कराई है। इसीलिये तो अपनी आदत के विपरीत मैंने मेसेज और मेल को किनारे कर, तुम्हें धन्यवाद देने के लिये, कागज और कलम का सहारा लिया है।

थोड़ा रुको, धन्यवाद तो बहुत छोटा सा शब्द है, पर क्या करूँ.... आश्चर्यचकित हूँ कि मेरे जैसा, हर समय शब्दों के साथ खेलने वाला इंसान आज अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये तो शब्द ही नहीं खोज पा रहा है। बहुत कुछ है तुम्हारे सामने स्वीकारोक्ति को.... अपने हर गलत व्यवहार की सफाई देने को... और इसके लिये महज वर्तमान नहीं मुझे अपना अतीत भी तुम्हारे सामने खोल कर रखना होगा। बताना होगा कि मैं ऐसा क्यों हो गया था ...कि जिस दिन से मैंने होश सँभाला मैंने पाया कि ईश्वर ने मुझे एक अलग से चुम्बकीय व्यक्तित्व से नवाजा है।

मैं सुदर्शन था, मेरी स्मित और मेरी आँखों की शरारती चमक लोगों को आकर्षित करती थी और सबसे बढकर मैं एक खूबसूरत आवाज का मालिक था। अपने स्टेज शोज़ और गाने गुनगुनाने के शौक के कारण मैं काॅलेज का हीरो बन गया था और मुझसे थोड़ा सा परिचय करने को, मेरे साथ एक सेल्फी लेने को लड़कियों में होड़ सी लग जाती थी। वह उम्रजनित ही रहा होगा कि ये सब मेरे अंतरतम को गुदगुदा देता था। फिर पहली ही कोशिश में रेडियो जाॅकी की नौकरी का मिलना और थोड़ी ट्रेनिंग के बाद मेरी आवाज की कशिश का और भी निखर जाना.... जिंदगी जब देने पर आती है तो एक झटके में असीमित आकाश को मुठ्ठी में थमा देती है शायद ! उस समय जिस भी प्रोग्राम को मैं अपनी आवाज देता, वह हिट हो जाता। रेडियो स्टेशन पर मेरे नाम सैकड़ों खत आते... मानों पूरा शहर सिर्फ मुझे सुनने को पागल हो रहा था। मुझे देखने, छूने और सुनने को बेताब भीड़.... मेरी कही बातों को दोहराते, मेरा नाम ले लेकर चिल्लाते लोग... मैं तो एक आम लड़के से सेलिब्रिटी बन चुका था दीप ! अब तुम ही बताओ, बिना ज्यादा जतन किए किसी को ऐसी सफलता मिल जाय तो सर चढ़ कर तो बोलेगी न ?

यही वह समय था जब तुमको देखा था मैंने... तुम्हारे काॅलेज के किसी प्रोग्राम में चीफ गेस्ट था और तुम स्वागत भाषण पढ़ने आई थीं। तुम्हारी गंभीर और सुस्पष्ट आवाज प्रभावशाली थी और सादगी से भरी खूबसूरती गरिमामय .... कि बाद में जब ऑटोग्राफ माँगती लड़कियों में तुमको पीछे खड़े देखा तो झट पहचान लिया था मैंने ! तुम्हारे उस कागज़ के टुकड़े पर मैंने जब चुंबन की मुद्रा में होंठ अंकित किये थे तब मैं तुम्हें शरमाते हुए या फिर कुछ चंचल होते देखना चाहता था पर तुमने तो उस कागज को मसल कर वहीं फेंक क्यों दिया था ? फिर शायद मेरे भाग्य से, कुछ समय के बाद जब तुम मेरे ही रेडियो स्टेशन में काम करने आईं, तो मैंने पाया कि दूसरी सैकड़ों हजारों लड़कियों की तरह तुम्हें तो मैं कभी भूला ही नहीं था। शायद हर पल तुम मुझे याद थीं और तुम्हें अपने इतने पास पा कर मैं बेहद प्रसन्न भी हुआ था। मुझे लगा कि अब तो जल्द ही तुम मेरी मुठ्ठी में होगी, क्योंकि किसी भी लड़की को अपनी तरफ आकर्षित करना मेरे लिय चुटकियों का काम था न, पर तुमने मेरे हर आमंत्रण को मना कैसे कर दिया ? ये तो सीधे मेरे अहम् पर चोट थी .... तिलमिलाना तो लाजमी था .... इसी वजह से तुम्हारे जैसी घमंडी लड़की को सबक सिखाना जरूरी लगने लगा था फिर ! तुम वाॅइस कास्ट लिखती थी.... रेडियो पर प्रसारित कार्यक्रम श्रोता दोबारा नहीं सुन सकते अतः भाषा और प्रस्तुति ऐसी होनी चाहिये कि एक बार में ही बात पूरी समझ में आ जाय। तुम्हारे आलेख छोटे और सारगर्भित होते थे .... मन ही मन तुम्हारी प्रशंसा करने के बावजूद मैं हर समय उसमें कमी क्यों निकालने लगा था ? और क्योंकि शुरू में तुमने मेरे व्यवहार को ज्यादा संज्ञान में नहीं लिया, मेरी निष्ठुरता बढ़ती चली गई। तुम्हारे पिता किसी बड़ी बीमारी से जूझ रहे थे और तुम्हें इस नौकरी की बहुत जरूरत थी पर फिर भी तुम मुझसे न डरी थीं न बाकी कई कई जूनियर्स की तरह तुमने मुझे खुश करने की कोई कोशिश ही की थी पर मुझे ये क्या हुआ था कि क्यों हर समय मेरा दिमाग सिर्फ तुम्हें नीचा दिखाने की युक्ति खोजता रहता था ? क्या कहूँ उसे ? घमंड... आहत अहम्, या चूर-चूर कर तुमको अपने सामने झुका लेने की चाहत ! जरा सी गलती पर सबके सामने बुरी तरह डाँटना, हर काम में गलतियाँ निकालते रहना और जब तब तुम्हारा मजाक बनाना स्वभाव बन गया था मेरा ! उधर तुम्हारी अपनी अलग ही दुनिया हो मानों कि सब कुछ से बेपरवाह तुम तो अपने कामों, अपने अनुसंधानों में व्यस्त रहा करती थीं।

बहुत कम समय में ही तुम अपने कामों में इतनी दक्ष होती जा रही थीं कि कहीं पर तुमसे डर भी लगने लगा था मुझे ! सलाम करता हूँ तुम्हें कि तीन साल तक इस अरूचिकर माहौल में काम करती रहीं तुम और उफ भी नहीं की। मैं एक स्टार था, अपनी चमक से वाकिफ था और कई प्रोग्राम सिर्फ मेरे बलबूते पर चल रहे थे । व्यवधान तब पड़ा जब उस दिन अचानक मेरी आवाज में एक खराश सी सुनाई पड़ी। पहले लगा कि थोड़े परहेज, थोड़े इलाज से ठीक हो जाउँगा पर मर्ज तो बढता ही जा रहा था। मैं बेचैन था, परेशान था कि किसी चीज से कुछ फायदा क्यों नहीं हो रहा ? फिर मैं डर गया.... क्या इतना सा था मेरा स्टारडम ? क्या अब मैं गुमनामी के अँधेरों में खो जाने वाला हूँ ? क्या मेरी किसी गलती की सजा मिलने वाली है मुझे ? जैसे जैसे मेरा टेंशन बढ़ रहा था, मेरी आवाज की धार कुंद होती जा रही थी । मेरे कार्यक्रमों का स्तर गिर रहा था, शिकायतें आ रही थीं पर मैं कुछ भी तो नहीं कर पा रहा था । फिर महसूस हुआ कि मुझे एक एसिस्टेंट की जरूरत है । इससे पहले कि मैनेजमेंट मुझे रिप्लेस करे, मैं ही कोई व्यवस्था कर लूँ कि कुछ दिन कोई और मेरे कामों को सँभाल ले और मुझे अपना इलाज कराने को कुछ वक्त मिल जाय ! मैं इसके लिये सैकड़ों लोगों से मिला, इन्टरव्यू और वाॅयस टेस्ट लिये, पर कहाँ किसी को ढूँढ सका ? बल्कि इस प्रक्रिया में फँस कर अपनी तरफ तो ध्यान ही नहीं दे पाया कि उस दिन जब मुझे प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लेना था, मेरी खसखसी आवाज ने गले से बाहर निकलने से इंकार कर दिया। आँखों के आगे अँधेरा था, दिन में तारे नजर आ रहे थे .... बेइज्जती .... रुसवाई ... आर्थिक दंड या नौकरी से निवृत्ति .... क्या हुआ होता उस दिन दीप, अगर स्टूडियो के अंदर, मेरी डबडबाई आँखों से द्रवित हो, तुमने स्वेच्छा से आकर, मुझसे कहीं बेहतर, सब कुछ सँभाल न लिया होता ! उस दिन, उसके बाद के ये आठ महीने, मेरे सभी कार्यक्रम ज्यों के त्यों चल रहे हैं और उनकी लोकप्रियता घटी नहीं बल्कि बढती ही जा रही है। तुम चाहतीं तो मेरे हर व्यवहार का बदला अब मुझसे ले सकती थीं .... मेरे श्रोता, मेरा नाम... मेरी नौकरी... जिस दिन चाहो ले ले सकती थीं पर तुमने ऐसा कुछ भी क्यों नहीं किया दीप ? हर बार यही क्यों कहती रहीं कि तुम रेडियो जाॅकी अमन की अनुपस्थिति में उनका प्रोग्राम सँभाल रही हो और श्रोताओं के मन में मेरा इन्तजार जगाए रखती हो।

आश्चर्यचकित हूँ तुम्हारे इस रहस्यमय व्यक्तित्व से कि जिससे तुम्हें बेहद नफरत करनी चाहिये उसे जीवित रखने के लिये बिना किसी शिकायत के, इतने लंबे समय से तुम दोगुना काम कर रही हो। नारी की इस असीमित क्षमता, धैर्य और परोपकार की भावना के समक्ष ऐसा नतमस्तक हूँ मैं कि सचमुच आज मेरे शब्दों का खजाना कम पड़ गया है। ये पत्र मैं तुम्हें मुंबई के उस अस्पताल से लिख रहा हूँ, जहाँ मेरा इलाज चल रहा है। मैं तुमको बताना चाहता हूँ कि टेंशनमुक्त होने की स्थिति ने काम किया है और धीरे धीरे मैं फिर काम करने के योग्य हो जाऊँगा। क्यों लगता है दीप, कि ये तुम्हारी दुआओं का असर है, तुम्हारे विश्वास की जीत है ? हर बार, तुम्हारे हर कार्यक्रम को सुनते हुए मैंने ये महसूस किया है कि और किसी को हो न हो, तुम जरूर मेरा इन्तजार कर रही हो ! अब लग रहा है कि कोई तो एक अच्छा काम मैंने भी किया होगा जिसके उपहारस्वरूप ईश्वर ने तुम्हें बनाया है ! हाँ दीप.... मुझे महसूस होता है कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता हूँ .... मैं बेहद प्यार करता हूँ तुमको। क्या मेरी गलतियों को भूल सकोगी तुम ? तुम्हारे जवाब के इन्तजार में...

तुम्हारा अमन।


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