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इंतज़ार का मारा एक और चकोर

इंतज़ार का मारा एक और चकोर

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ऐ मेरे मालिक तेरी सौगंध, मैं रात भर इस कदर खड़ा हो सकता हूँ बस उनका इसी तरह दीदार होता रहा तो। पता नहीं मुझे, इस बेचैन दिल को यही आके सुकून क्यों मिलता है। उसे देख के रूह से बस एक ही आवाज़ आती है, "शुक्रिया मेरे मौला,शुक्रिया।" इस जमा देने वाली ठंड़ी रात में भी ये पैर अंदर जाने का नाम ही नहीं लेते। इस लम्हा बस यही लगता है की जिस्म में बस आँखे ही है, जो घन्टो उनका बेसब्री से इंतज़ार करती है। चाँद न दिखने पर चकोर की पीड़ा मैं अब भली भांति समझ सकता हूँ। मुझे अब इल्म है उसकी स्तिथि का, उसकी बेचैनी और सुकून का। मैं इस बात से शायद रूबरू हो गया हूँ कि जब बादलो से चाँद ढकता है तो चकोर के दिल पर क्या बीतती होगी। मेरी स्तिथि भी कुछ इस चकोर की तरह ही है, बस फ़र्क इतना है की उस विरहनी का शत्रु वे बादल है और मेरे ये खिड़की,और दूसरे असमानता की बात करूँ तो मेरी चाँद चकोर के चाँद से थोडा ज़्यादा खूबसूरत है। माफ़ करना चंदा मामा, पर क्या करू दिल से लिख रहा हूँ ना झूठ नहीं बोल सकता। चंदा मामा तुम्हारी चाहने वाली तो फिर भी भाग्यशाली है, उसे कम से कम एक रात तो पूरा मिलता है तुम्हे निहारने को पर मुझ अभाग्यशाले को तो लाख इंतज़ार करने के बाद बस दो पल मिलता है उस मुखड़े का नूर देखने को। न जाने क्यों वो दो पल अपने मुखड़े का दीदार करवाने के बाद खिड़की बंद क्यों कर देती है। पर जो भी कहो वो दो पल सबसे बेहतरीन पल होते है मेरे दिन या सप्ताह या महीने के।

काश मै उनकी खिड़की का लकड़ी होता, हर लम्हा उस मुखड़े को निहारता रहता।


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