डर
डर
सीढ़ियों से नीचे कैसे जाऊँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था। नीचे देखते ही चक्कर आ रहे थे। मुझे डर लग रहा था कि मैं गिर जाऊँगी लेकिन जाना तो था ही। मैं धीरे-धीरे संभलती हुई घुटनों के बल नीचे उतर रही थी। (यहाँ पर यह बताना चाहूंगी कि मैं सीढ़ियों पर उलटी उतर रही थी क्योंकि सीधा उतरना संभव नहीं था।) दो-तीन सीढ़ियाँ बाकी थी कि तभी मैं फिसल गई।
फिर अचानक ही मैं किसी मोहल्ले की गलियों में थी जो सीमेंट का फर्श था। मैं वहाँ किसी को ढूंढ रही थी, जिसे मैं जानती तक नही। मैं खिसक-खिसक कर एक कमरे में पहुंची और फिर अचानक से वहाँ सीढ़ियाँ थी। मैं सीढ़ियाँ चढ़ी ही थी कि वहाँ आगे कुछ भी नहीं था। मैने नीचे देखा तो मुझे पता चला कि मैं किसी इमारत की छत पर थी और फिर मैं वहाँ से नीचे गिर गई।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मेरा शरीर बुरी तरह काँप रहा था और मुझे समझ में आया कि यह सिर्फ एक सपना था। मेरा डर मुझे अपने अंदर खींच रहा था और अगर मैं कुछ देर तक नही उठती तो पता नहीं क्या होता।