बंधुत्व
बंधुत्व
अस्पताल से निकल कर अपनी कार में बैठने वाला ही था कि किसी के आवाज़ देने का अहसास होते ही मैंने सर उठाकर देखा तो एक व्यक्ति मेरे सामने आया और मुस्कुरा कर कहने लगा कि "मुरली कितने दिनों बाद दिखाई दिए।" कह कर मेरा हाथ पकड़ लिया। कुछ देर सोचने के बाद याद आया और कहा "अरे गोविंद तुम यहाँ कैसे।" वह अपने परिवार का संक्षिप्त परिचय देते हुए कहता कि दो-तीन महीने हुए है उसका इस शहर में तबादला हुआ है। हम दोनों बचपन के मित्र है। काफी पीते बात करेंगे यह कहते हुए कैंटीन की तरफ निकल पड़े। इतने सालों बाद बचपन का मित्र मिलने पर अधिक प्रसन्न था। मेरे प्रसन्नता की कोई सीमा न थी। बचपन का सारा दृश्य मेरे सामने दौड़ने लगा। बचपन की सारी बातें याद आने लगी। मेरे पिताजी का तबादला होने के कारण मैं जिस स्कूल में अडमिशन लिया उसी स्कूल में गोविंद भी पढ़ता था। वह केवल क्लास मेट ही नहीं बल्कि वह मेरा बेंच मेट भी होने के कारण हम दोनों में गहरी दोस्ती थी। साथ में एक दूसरे के घर आना जाना भी लगा रहता था। मेरा घर स्कूल से दूर होने के कारण मैं टिफिन ले जाता था। लेकिन गोविंद का घर पास ही होने के कारण वह घर जाकर भोजन करता था। उसकी मां उसे कहानियाँ सुनाती और खाना खिलाती, यही कारण था कि जैसे ही वह मुझे अपने घर बुलाता मैं तुरंत उसके साथ हो लेता। बीच-बीच में उसकी मां मुझे भी दो चार निवाले खिला देती। मेरे मना करने पर कहती कि "तुम बच्चों को भूख जल्दी लग जाती।।" मेरा मन पसंद खाना जानकर वह भी पकाती। मेरे मना करने पर कहती "अगर तुम ने नहीं खाया तो मैं बुरा मान जाऊँगी।" उसकी इस अदा पर मैं प्रसन्न हो जाता और घर आकर मेरी माँ को सारा किस्सा सुनाता। हम दोनों उस पर खूब हँसते। गोविंद के पिता स्कूल मास्टर थे वे कुछ ग़रीब विध्यार्थियों को पढ़ाते और उन सबको उसकी माँ खाना बनाकर खिलाती। इस प्रकार उनका जीवन आराम से बिना चिंताओं के कट रहा था। गोविंद की माँ को जुड़वाँ बच्चे हुए उनमें से एक की मृत्यु के कारण वह मुझे उनका दूसरा बेटा मानती थी। "तुम्हारे माता - पिता कैसे है?" गोविंद के इस प्रश्न से मैं इस दुनिया में वापस लौट आया। मैं उसके प्रश्न का जवाब देते हुए कहा कि मेरे पिता की मृत्यु हुए आठ वर्ष बीत चुके। मेरी शादी के एक साल बाद बिना किसी बीमारी के हार्ट अटैक से मेरी माता की मृत्यु हो गई। यह सुन उसने कहा कि "तुम्हारी पत्नी किस्मतवाली है।" लेकिन मैं उदास हुआ क्योंकि मैं अपनी माँ का ध्यान अच्छे से रख नहीं पाया। यह बात सदैव मुझे खलती। मैंने कहा "तु अपनी बता" वह कहने लगा कि उसके पिता की मृत्यु के बाद वह गाँव का बेच दिया और अपनी माँ को अपने साथ ले लिया। कहने लगा " मेरी पत्नी मुझसे खुश नहीं है। उसके माँग की कोई सीमा ही नहीं है।" मैंने उस पर सहानुभूति जताई और कहा "तुम्हारी माँ से मिले बहुत साल हो चुके ,चलो तुम्हारे घर हो आते है।" वह कुछ सोच कर कहा "चलो चलते हैं।" जब हम उसके घर पहुंचे तो उसकी बेटी हॉल मे बैठी टि. वी. देख रही थी। गोविंद के माँ के बारे मे पुछने पर बडी लापरवाही से बोली "दादी बाहर गई है।" मुझे कुछ अजीब सा लगा। गोविंद अपनी पत्नी को बुलाने अंदर गया और मैं उसकी बेटी से बात करने लगा। उसकी बातों से पता चला कि वह पाँचवीं कक्षा में पढ़ती है। मैंने उससे पूछा "तुम अपनी दादी माँ से कहानियाँ सुनती हो।" "ओह गाड दादी बडी बोरिंग कहानियाँ सुनाती है।" यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी। कुछ झुककर बोली " मेरी दादी का स्वभाव अच्छा नहीं है। मेरी माँ को बहुत सताती है। हमारे बाहर जाते ही घर का सारा सामान उलट पलट कर हंगामा मचाती है।" मुझे यह बात अजीब लगी। गोविंद अपनी पत्नी को अंदर से बुला लाया और उसके हाथ में चाय की ट्रे थी। बहुत देर हो चूकि थी लेकिन माँ अभी तक घर नहीं आई। मुझे देरी हो ने के कारण और प्रतिक्षा न कर माँ से मिलने किसी और दिन आने को कहकर चलने लगा ही था कि गोविंद खाना खाकर जाने को कहने लगा। मैं कुछ कहता इससे पहले ही उसकी बेटी ने कहा "सवेरे का जो खाना बचा है वह दादी को खिला देगी और हम तीनों के लिए रोटी बनाने आटा लाने दादी को माँ ने दुकान भेजा है लेकिन दादी अभी तक घर नहीं लौटी।" यह सुन पहले वे दोनों चौक गये। लेकिन संभलकर बेटी को डांटने के अंदाज़ में कुछ कहने ही वाले थे कि मैंने कहा 'खाना खाने किसी और दिन आऊँगा।" कहकर वहाँ से चला गया। गोविंद की पत्नी से ने बातों के बीच बताया कि वह कम पढ़ा लिखा होने के कारण वह बढ़िया नौकरी नहीं करता। उसे सामान्य जीवन जीते अपनी हर इच्छाओं को पूर्ण करने में अपना मन मारकर जीना पड रहा है। मेरे डॉक्टर होने, प्रशंसा करते हुए कमाई अच्छी होने की ईर्ष्या को प्रकट किया। मैंने उसे उत्तर देते हुए कहा "कक्षा में गोविंद सदैव प्रथम रहता था और उसे गोल्ड मैडल भी मिलता। गोविंद नाम के दो छात्र होने के कारण इसे गोल्डेन गोविंद कहा जाता था। उसकी पत्नी ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा "गोल्ड तो नहीं रहा पर हमारी गोल्डेन इच्छाओं को पूर्ण होने से पहले ही मन में मारना पड़ता है।" बस इसी विचारों में डूबा बस दो कदम ही कार को आगे बढ़ाया कि एक बूढ़ी औरत कार के सामने आ गई। मैं घबरा कर ब्रेक लगाई और कहीं उस बूढ़ी औरत को चोट तो नहीं लगी इस विचार से झट कार से नीचे उतर गया। ग़ौर से देख ने पर अंदाजा हुआ कि वह गोविंद की माँ थी। अचानक मैंने माँ कहकर पुकारा तो वह मुझे न पहचानने के कारण आश्चर्य से देखा। तब मैंने अपना परिचय दिया। वह अपने गले से सोने की चेन निकालकर कहा "बेटा इसे बेचकर कुछ खाने की चीजें लाकर मुझे दो और कुछ घर में कहना कि मिलने खाली हाथ नहीं आते। बचे हुए पैसे तुम्हारे पास ही रखो। और " अपने घर चली गई। मैं उस असमंजस से बाहर निकल कर ख्यालों में डूबा पीछे पीछे चल पड़ा , वहाँ जाकर देखा तो वह छोटी सी बच्ची अपनी दादी पर चिल्लाते हुए कह रही थी कि दादी अपनी चेन बेच कर कुछ खा आई और कह रही है कि चेन गुम गई। इस कारण उन्हें देर हो गई। मुझे देख सब चुप हो गए। लेकिन माँ की आँखों से पानी बह रहा था। मैं अंदर आया और माँ से कहा "चलो मैं अपने घर ले चलता हूँ अगर आप नहीं आई तो मैं बुरा मान जाऊँगा।" झट से माँ मेरे साथ चलने लगी। तब गोविंद की पत्नी ने कहा पराये पर विश्वास करना अच्छी बात नहीं बाद में पछताने पर कोई फायदा नहीं होगा। मैं "इसकी नौबत न आवेगी।" कहकर वहाँ से माँ को लेकर चला गया। दोनों बेबसी से मुझे देखते रहे। मैं कार का दरवाज़ा खोला और माँ को बिठाया। मैं भी कार में बैठनेवाला ही था कि मेरे कंधें पर गोविंद ने हाथ रखकर कहा माँ से कहना कि इस बेबस बेटे को माफ़ कर दे।। अपनी आँखों में पानी लिए झट से घर के अंदर चला गया।