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“अनन्त चाहत”

“अनन्त चाहत”

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वो कहते हैं न की कभी किसी को इतना का चाहो की खुद की पहचान भूल जाओ।  पर ऐसा क्यों होता है की किसी की चाहत में हम इस कदर बर्बाद हो जाते हैं की सोचने समझने की शक्ति ख़तम हो जाती है?  वो किसी झील सी मेरी ज़िन्दगी में आई और तूफान की तरह सब उड़ा ले गई। 

“चाहत “ अजीब चीज़ है ये चाहत भी , उसी इंसान को पाने की सबसे ज्यादा होती है जो हमे कभी नहीं मिलेगा, और सबसे दर्द भरी बात यह है की हम ये बात जानते हैं समझते हैं मानते हैं फिर भी इसकी गहराईयों में डूब जाते हैं। 

आज भी याद है मुझे सर्दी की वो रात। आज पूरे ४ महीने १० दिन और ८ घंटे हो चुके हैं पर उस रात की ठण्ड मुझे इस मई के महीने में भी कपकपी दे जाती है और तुम्हारी वो गर्माहट जो अन्दर आग सी लगा देती है। 

उसके साँसों की गर्मी और जिस्म की खुशबू अब तक मुझमें और इस बिस्तर पर बसी हुई है। आखिर क्यों ? क्यों वह आई उस दिन मेरी ज़िन्दगी में यूँ सहमी सी ठण्ड में ठिठुरती सी ? क्यों मुझे मदद मांगी उस सुनसान रस्ते पर ? मैं कोई मुजरिम भी हो सकता था ? पर मुजरिम तो वह थी और सजा भी उसी ने ही सुना दिया! मैं ही शिकार और मैं ही गुनेहेगर कैसे बन गया?

यूँ तो मैं न जाने कब से उसे जनता था , पहचानता था , रोज़ उसे आता जाता देखता था , सिर्फ उसे ही देखने आता और जाता था। वो गहरी खामोश आँखे, वो  मखमली  सा जिस्म , वो तराशी हुई सी कमर और वो लाल सुर्ख होंठ जिनपर से किसी की भी नज़रे हटना नामुमकिन सा था। किसी खुदा के फ़रिश्ते सी, किसी परिकथा की परी सी, वो जानती थी की वो क्या है और अंजान बनने के नाटक से और ज्यादा आकर्षित करती थी। रोज़ सोचता था की आज बात करूँ आखिर हम पड़ोसी है , पर फिर भी जब भी वो सामने आती और मुस्कुराती दिल उछल कर गले में आ जाता और गला रुंध सा जाता। उसकी झलक भर ही स्वर्ग की सी लगती थी कभी सोचा नहीं था की वो कभी मेरे साथ होगी। पर उस दिन वो आई ! रात में !अकेली !मुझसे मिलने ! एक पतली चांदनी की सी चादर ओढ़े , उस सर्द रात में , घुटनों तक चादर को किसी शाल की तरह लपेटे हुए , दरवाज़ा  खट-खटाने लगी। 

दरवाज़ा खोलते ही उस पूर्णता की छवि को देख के लगा जैसी खुद कोई अप्सरा स्वर्ग से उतर कमरे दरवाज़े पर आई हो। वो ठिठुर रही थी मैंने घर में और अपने भीतर आग जला रखी थी वो बिना कुछ बोले और पूछे सीधा अन्दर आ गयी। मेरे आग्रह करने पर थोड़ी सी चाय ली और हर चुस्की के साथ मुझे अजीब निगाह से देखती रही , मुझे पता ही नहीं चला ये आग्रह था या आदेश मैं उसके पास गया। वो सोफे पर बैठे बैठे मुझे देखती रही और मैं उसके पास खड़ा हो गया, अजीब सी ख़ामोशी थी उस रात जैसे सारी दुनिया गाड़ियाँ कीट पतंगे सब गूंगे हो गए हों ,कुछ सुनाई दे रहा था तो बस आग में तड़कती लकड़ी और उसकी गहरी साँसे। उसने मेरे सर को अपने छाती से लगा लिया , मैं आज भी उसकी धड़कन को महसूस कर सकता हूँ। अपने शाल से चादर को कब उतर के दूर फेक दिया मुझे पता ही नहीं चला, जब होश आया तो मेरे होंठ उसके सूखे होंठो को गीला कर रहे थे। बहुत मासूमियत से वो मेरे होंठो को अपने होंठो से अलंगित करती रही थी। मैंने उसे गोद में उठाया और बिस्तर पर लेटा दिया, और वो बस उन खामोश आँखों से मुझे देखती रही और फिर अपना चेहरा एक तरफ को कर लिया। मैं पूछना चाहता था की क्या हुआ वो क्यों आई है उसे क्या चाहिए क्या वो दुखी है? मैंने उसके गले को चूमा और उसकी साँसे गहरी हो गई।  मैंने उसे इतने करीब से कभी नहीं देखा था , वो करीब से और भी ज्यादा हसीं और खूबसूरत थी, उसकी हलकी फैली हुई काजल कुछ बयां कर रही थी , मैंने हिम्मत जुटा के पूछा “तुम ठीक तो हो ना?” पर उसने जवाब न देके मेरे कुरते को हटाते हुए मेरे सीने को चूम लिया। मैंने उसके होठो को अपने होठो से सहलाते हुए उसे लेटाया और गले से चूमता हुआ छाती तक गया, मेरे हाथ उसकी कमर तक जा कर उसे सहलाने लगे , कुछ पता ही नहीं चला क्या सब कैसे हो गया कुछ देर बाद हम बिस्तर पर एक दुसरे से चिपक कर लेटे हुए थे। वार्तालाप का एक शब्द भी हमारे बीच नहीं हुआ था फिर जैसे उसे मैं उस दिन पूरा जान गया था। तभी वो मेरे ऊपर आई और झुक कर मेरे होंठो को चुमते हुए जैसे इस एक क्रिया से सब कुछ बोल दिया हो उसने वो उठी और अपनी चादर लपेट के चली गई। 

वो सच में चली गई ,न कुछ बोले न कुछ बताये हमेशा के लिए। आज पूरे ४ महीने १० दिन और ८ घंटे हो चुके हैं, वो नहीं दिखी , मैंने बहुत पता लगाया वो कहाँ गई पर किसी को कुछ नहीं पता था। वो तो चली गई मुझमें उसको पाने की चाहत और बढ़ा कर, पर आज भी मेरे मन में एक ही सवाल आता है आखिर क्यों?

 


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