ख़्वाब मेरा
ख़्वाब मेरा
ज़िन्दगी के कुल उनचालीस साल इस धरती पर हँसते-रोते गुज़ार लिए मैंने। बाकी बचे चालीस साल अब कैसे गुज़ारने है, आराम से या यूँ ही भागते ? कहते है कि चालीस कि उम्र में मिड-लाइफ क्राइसिस होता है। मैं अभी चालीस कि नहीं हुई और न ही मेरे दोस्त जो चालीस के दायरे में है, उन्हें कोई क्राइसिस है। उन्हें देख तो लगता है कि ज़िन्दगी अब शुरू हुई है। एक ठहराव है जहाँ किसी चीज़ कि होड़ नहीं। सब अपने में मस्त है। मैं कब उम्र कि उस सीमा लेखा मैं कदम रखूंगी? ये अब एक नयी आस जगी है।
उठते- बैठते अब ज़िन्दगी का ख्याल आता है। नौकरी में अब मन नहीं लगता, पर अगर नौकरी न करूँ तो क्या करूँ ? बीस साल मैंने भारत के बड़े-बड़े शहरों में भाग-भाग के गँवा दिए। इतना भागी के ज़िन्दगी कब इतनी आगे निकल गई पता ही नहीं चला। उस दौड़ से कोई गीला नहीं, क्यों कि वो दौर भी हसीं और खौफनाक का एक घोल सा ही था। अब रुक कर देखा, तो जो हासिल किया, उसका मुझे मोह न था।
इन्ही सोच के जालों ने मेरे दिमाग में घर बना लिया था। मुझे बड़े शहर से भाग जाने का मन था, दूर किसी गाँव में जहाँ हरियाली हो, थोड़ी लोगो में चेतना हो, थोड़ा इंसानियत हो, एक दूसरे के लिए समय हो, जहाँ इत्मीनान से जिया जाये, घर के चारों तरफ पेड़ ही पेड़ हो, जहाँ रोज़ सुबह मुनिया कि चूं-चूं-ची-ची गूंजे, जहाँ महीने के पांच हज़ार में भी खा-पी के गुज़ारा हो सके।
शायद ये ख़्वाब मेरे ज़हन में बस चुका था क्योंकि मैं जहाँ भी घूमने जाती, वही अपना भविष्य ढूंढने लगती। अगर वो जगह खूब पसंद आ जाये, तो वहां एक घर ले लेने का सोचने लगती। इतना ही नहीं, अपना ये ख़्वाब मैं अपने परिवार वालो को भी ज़ाहिर करती। ऐसा कर- करके लगभग भारत के एक-तिहाई जगहों पर मैंने चंद ही सालों में घर बना लिए थे। जी हाँ, और इतना ही नहीं, मैं अब अपने परिवार वालो के बीच हास्य-पात्र बनके रह गई थी क्योंकि वो सारे घर मेरे ख्वाबी पुलाव थे। मेरे शौहर को यकीन था कि एक दिन, ताजमहल पर भी मेरा घर होगा और वो सही भी थे, ये ख़्वाब तो मैंने बचपन में ही देख लिया था ।
एक बार कक्षा मैं पूछा गया कि बड़े हो के हम कहा रहना चाहेंगे। मैंने एक दम से कहा कि ताजमहल में रहूँगी क्यों कि वो महल खाली पड़ा रहता है, शायद कोई रहना नहीं चाहता। इस बात पर मेरी अध्यापिका हँसने लगी। वो क्यों हँसी ? मैंने फिर यही बात अपने घर के बुजुर्गों को भी बताया, वो भी हँसने लगे। बल्कि वो आज तक इस बात पर हँसते है और मेरा मज़ाक बनाते है कि मुझे वाइट हाउस में नहीं रहना ?
खैर, मैं कभी इन बातों का बुरा नहीं मानती। उनकी सोच, उनकी ज़िन्दगी और मेरी सोच, मेरी ज़िन्दगी। एक सुबह रोज़ कि तरह अपने घर के पास वाले उपवन में दौड़ रही थी। मुझे दौड़ना अच्छा लगता है पर सिर्फ हरियाली के बीच। जब दौड़ती हूँ तो लगता है कि पंख निकल आये है और मैं धीमी-धीमी उड़ रही हूँ। यही वो समय होता है जब हसीं ख्याल मुझे छू जाते हैं। तब ऐसा लगता है की बस मैं ही हूँ और यहाँ कोई नहीं।
दौड़ते-दौड़ते हर रोज़ मेरी नज़र उस उपवन के माली के घर पर पड़ती। एक दिन ख्याल आया की क्या खुश-नसीब है वो। महानगर में रहने के बावजूद इतनी हरियाली में रहता है। बस फिर क्या था, मुझे भी अब माली बनना था। उसी दिन से मैंने खोज--खबर लेना शुरू किया की माली की नौकरी कैसे मिलेगी। मैं तो घूस खिलाने को भी तैयार थी। पर मैंने जिन-जिन से पूछा की नौकरी के लिए कहा अर्ज़ी डालू, उन्होंने मुझे हलके में लिया। कइयों को शायद मैं पागल लगी होंगी - कोई पढ़ा-लिखी और अच्छे पैसे कमाने वाली शादीशुदा औरत अगर माली बनना चाहे, वो भी अधेड़ उम्र में, तो लोग उससे क्या समझेंगे ? मेरे पति भी मेरे ख्याल से बिलकुल हक्के-बक्के रह गए।
एक दिन मैं अपने क्षेत्र के नगर पालिका के दफ्तर माली की नौकरी की खोज लेने चली गयी। वहां बैठे बड़े बाबू, जो वाकई में सरकारी बड़े बाबू दीखते थे जैसे बचपन से टीवी में देखती आ रही थी - छोटा और गोल-मटोल कद, नाक भी गोल और सर भी गोल । सर पे बस दो-चार बाल और वो भी तेल में गोते खाते चमक रहे थे । उनका गोल कला चश्मा उनकी छोटी और मोटी नाक पे टिका हुआ था। मेरी नौकरी की अर्ज़ी पत्र उन्होंने ने करीब दो बार पढ़ी, फिर मुझे देखा और ज़ोर-ज़ोर से ठहाके मारके हँसने लगे। ये देख मैं चौंक गयी और आस-पड़ोस के लोग हमे देखने लगे। मैंने ऐसा क्या लिखा होगा जो इनको इतनी हसी आ गयी? ये ख्याल मुझे बेसब्र करने लगा। इतने में वो बोले - "मैडम, आज छुट्टी है क्या ? कही पहला अप्रेल तो नहीं ?" मैं कुछ जवाब देती के वही बोल पड़े "क्यों सुबह-सुबह मज़ाक करने चली आयी आप यहाँ? जाईये अपने दफ्तर जाईये?" और उन्होंने मेरी अर्ज़ी फाड़ के फेंक दी। मेरा दिल वही टूट गया। एक तरफ तो उस मोटे को कच्चा खा जाने का मन कर रहा था और दूसरी तरफ आँसू भी बस अटके हुए ही थे। इससे पहले के वो निकल जाते और मेरी और भी ज़्यादा बेइज्जती होती, मैं वहां से निकल गयी।
ये बात तो मैं अब किसी को बता ही नहीं सकती थी, आखिर इज़्ज़त का सवाल था। तो मैं उस उपवन के तरफ चल दी। रहना तो मुझे अब वही है, अब मेरी ज़िद है। मैंने जाकर उपवन का दरवाज़ा ज़ोर-ज़ोर से पीटना चालू किया। करीब दोपहर के बारह बज रहे थे। ज़ाहिर है की उपवन अब बंद था। पर मुझे तो अंदर जाना था। माली दौड़ा-दौड़ा दरवाज़े पर आया - "बाग अभी बंद है, शाम को आईये। "
"पर मैं तो आपसे मिलने आयी हूँ। मुझे कुछ काम है आपसे। मैं रोज़ सुबह यही दौड़ती हूँ। "
"हाँ मुझे पता है। क्यों एकटक देखती है मेरे घर को आप ? हम देखे है आपको हमरी घर के तरफ देखते, और हमरी जोरू भी। क्या कोई जादू किये है ?"
"जादू !" मैं एक दम चौक गई। ये तो कोई और ही जगत से आया था। "तुम्हें मैं कोई जादूगरनी दिखती हूँ ? अरे मुझे तुमसे कुछ बात करनी है और तुम्हारी मैडम से भी । अब ज़रा खोलोगे?"
वो थोड़ा सोचा, फिर उसने दरवाज़ा खोल दिया। हम उसकी घर की तरफ बढ़ रहे थे। वो चुप था और मैं भी। समझ ही नहीं आ रहा था के मैं यहाँ क्यों आयी , उससे क्यों बुलाया और अब क्या करना है ? इतने में उसकी बीवी भी अपने घर से बहार आ गयी। मुझे देख उसकी थोड़ी शकल बन गयी बस। "नमस्ते। मेरा नाम माया है। मैं रोज़ सुबह यहाँ दौड़ती हूँ। ' मैंने उसकी बीवी से कहा पर वो चुपचाप मुझे शंका भरी नज़र से देखती रही और अपनी ऊँगली को अपने साड़ी के पल्लू में पेचति रही।
"जी, मैं कोई आप लोगो पे जादू-टोना नहीं करती। आपका घर मुझे अच्छा लगता है, तो मैं देखती रहती हूँ। इतने छोटे घर को भी कितने सुन्दर से रखा है आपने। " ये सुन मोहतरमा मुस्कुराई और मुझे बैठने के लिए मुड़ा दिया।
"आपका क्या नाम है ?" मैंने उससे पूछा ।
"छबीली। " वो शरमाते हुए बोली।
"कौन गाँव से हो ?"
" जी छपरा। " उसने नज़रे नीचे रखते हुए बोला।
'और आपका ?" मैंने माली से पूछा ।
"बुधिया। पर आप ये सब क्यों पूछ रही है ? सरकार भेजे क्या आप को ?"
"सरकार क्यों भेजेंगे? अपने क्या कोई गलत काम किया है ?" मुझे शक होने लगा। सरकार क्यों लाया वो बीच में ।
"नहीं-नहीं कुछ नहीं। " वो तुरंत बोला। खैर मुझे क्या था। पर ये पता चला की सरकार यहाँ नहीं आती।
"मुझे यहाँ घर किराय पे चाहिए ?" पता नहीं कैसे मैंने ये बोल दिया।
"आप पगला गयी है क्या ? यहाँ कहाँ घर नज़र आता है आपको ?" वो गंभीरता से बोला।
"ये सामने क्या है ? देखो मुझे ऐसे बगीचा मे रहना है। मैं माली के नौकरी के लिए नगर पालिका गयी थी, पर वो सब हँसने लगे। तो मैं यहाँ आ गयी। ऐसी जगह मे रहना मेरा ख़्वाब है। क्या मैं अपने ख़्वाब पूरा न करू?" मैंने गुस्से और हताश हो के बोला।
कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया, सिर्फ चिड़िया की चहकने की आवाज़ आ रही थ ।
'दीदी हमारा तो एक ही कमरा है। वो कैसे किराया पे दे दे। " छबीली बड़े दया भाव से बोली ।
मैंने उसकी तरफ देखा और उसके घर की तरफ।
"हम्म, फिर थोड़ा जगह बढ़ा लो। मुझे एक कमरा और एक रसोईघर और एक स्नानघर बनवा दो, यही, तुम्हारे घर के बगल में। "
वो दोनों एक टक मुझे देखते, फिर अपने घर को, और फिर एक दूसरे को। " मैं पांच हज़ार रुपए किराया दूंगी। "
" पांच हज़ार ! पर दीदी, ये तो सरकारी जगह है। " बुधवा घबरा के बोला
"आज तक सरकार आयी है क्या?"
दोनों ने सर हिला के न कह दिया। " तुम फ़िक्र मत करो। जब सरकार आयेगी, तब देखेंगे। "
बस फिर क्या था। मेरे ख़्वाब के पर लग चुके थे। मैंने शहर की बेहतरीन आर्किटेक्ट, जो मेरी दोस्त भी थी , उसे ये जगह दिखाई और सब समझाया। ज़रूरी था की ये बढ़ाया हुआ जगह किसी की नज़र में न पड़े। मेरा घर बिलकुल बुधवा और छबीली के घर का ही अंग लगे।
ये बात मैंने किसी को नहीं बताई, अपने पति को भी नहीं। मेरा खुद का फ्लैट इस उपवन के बगल मे था जहाँ से वो घर दीखता। एक महीने में मेरा स्टीडीओ घर बन के तैयार हो गया। बाहर से तो वो आम सा था, पर अंदर से जादू। मेरा ये नया घर पूरा मिट्टी का था, जिसमें एंटीक भी था। इसमें कोई फर्नीचर नहीं था और न ही बिजली। ज़मीन पे दरी और गद्दे बिछे थे। एक छोटी सी रसोई और एक छोटा सा स्नानघर। ये किसी टोकियो शहर के घर से कम नहीं था। मेरा नन्हा घर जो पेड़ो से ढका , ठंडा, फुलवारी के बीच में, अब मेरे लिए तैयार था।
एक शनिवार को, मैंने अपने पति सहित अपने नए घर पर प्रवेश किया। उनके तो ये देख के होश ही उड़ गए।
“ये सब कैसे ?? मतलब ये क्या है ? “
फिर मैंने उन्हें सारी बात बताई और ये भी ज़ाहिर किया की अब से हम यही रहेंगे। अगर कुछ चाहिए, तो अपने फ्लैट में जायेंगे। अब ये हमारा फार्म हाउस है।