द्वंद्व युद्ध - 14.1
द्वंद्व युद्ध - 14.1
पिकनिक इतनी ख़ुशनुमा नहीं थी जितनी बेतरतीब भागदौड़ से भरपूर वे तीन मील दूर स्थित दूबेच्नाया पर पहुँचे। यह नाम था करीब पन्द्रह एकड़ पर स्थित एक बगीचे का, जो एक लंबी ढलान पर था, जिसकी तलहटी को एक पतली सी, स्वच्छ नदी घेरती थी। बगीचे में बिरले, मगर ख़ूबसूरत, मज़बूत सैंकड़ों साल पुराने शाहबलूत के वृक्ष थे। उनके तनों के निकट नीचे घनी झाड़ियाँ उग आई थीं, मगर कहीं कहीं लंबे चौड़े मनमोहक मैदान भी थे, ताज़ा, ख़ुशनुमा, नर्म और दमकती हुई पहली हरियाली से आच्छादित। इनमें से एक मैदान पर पहले ही रवाना कर दिए गए अर्दली समावारों और टोकरियों के साथ इंतज़ार कर रहे थे।
सीधे ज़मीन पर ही मेज़पोश बिछा दिए गए और लोग बैठने लगे। महिलाएँ खाने-पीने का सामान और प्लेटें रखने लगीं, पुरुष शोरगुल और अतिशिष्ठाचार से उनकी मदद कर रहे थे। अलिज़ार ने एक नैपकिन को एप्रन की तरह बाँध लिया और दूसरे को सिर पर टोप की तरह पहनकर ऑफ़िसर्स-क्लब के रसोईए लूकिच की नकल करने लगा। बड़ी देर तक जगहें बदलते रहे, जिससे कि महिलाएँ अपने अपने पार्टनर्स के बीच बीच में बैठ सकें। असुविधाजनक हालत में अधलेटे, अधबैठे रहना पड़ा, यह एक नई और दिलचस्प चीज़ थी, और इस सिलसिले में ख़ामोश तबियत लेशेन्का सबको आश्चर्यचकित करते हुए, मज़े ले लेकर समारोहपूर्वक और बेवक़ूफ़ी से बोल उठा:
“इस समय हम ऐसे लेटे हैं जैसे प्राचीन रोमन-ग्रीक।”
शूरच्का ने अपने एक ओर तल्मान को बिठाया और दूसरी ओर – रमाशोव को। वह असाधारण रूप से बातूनी और खुश थी और इतनी उत्तेजित लग रही थी कि यह बहुत सारे लोगों की आँखों में आ गया। रमाशोव को वह कभी भी इतनी दिलकश-ख़ूबसूरत नहीं लगी थी। वह देख रहा था कि उसके भीतर से कोई बड़ा, नया, आवेगपूर्ण भाव सनसनाकर फ़व्वारे की तरह बाहर आना चाह रहा है। कभी वह बिना कुछ कहे रमाशोव की ओर मुड़ती और चुपचाप उसकी ओर देखती, शायद ज़रूरत से सिर्फ आधा सेकंड ज़्यादा, हमेशा से कुछ ज़्यादा, मगर हर बार उसकी आँखों में उसे इस समझ में न आने वाली, तपिश भरी, आकर्षण शक्ति का अनुभव होता।
असाद्ची, जो दस्तरख़ान के प्रमुख स्थान पर अकेला बैठा था, थोड़ा उठा और घुटनों के बल खड़ा हो गया। ग्लास पर चाकू से ठक ठक करते हुए उसने लोगों को ख़ामोश किया और नीची, गूँजती हुई आवाज़ में बोलने लगा, जो जोशीली लहरों की तरह जंगल की साफ हवा में हिलोरें ले रही थी, “तो, महाशय, पहला जाम पियें हमारी ख़ूबसूरत मेज़बान की सेहत के लिए जिनका आज नामकरण दिन है। ख़ुदा उन्हें हर तरह की ख़ुशी और ‘जनरलाइन’ का ओहदा दे।”
और बड़े से जाम को ऊपर ऊँचा उठाकर वह अपने भयंकर गले की पूरी ताक़त से चिल्लाया, “हुर्रे !”
ऐसा प्रतीत हुआ मानो पूरा जंगल इस शेर की दहाड़ से चौंक गया, और उसकी गूँज पेड़ों के बीच से भागने लगी। अन्द्रूसेविच, जो असाद्ची की बगल में बैठा था, झूठ मूठ के डर से पीठ के बल ज़मीन पर गिर पड़ा और ऐसा दिखाने लगा मानो बहरा हो गया हो। बाकी के लोग ख़ुशी से चिल्लाने लगे। आदमी शूरच्का के पास अपना अपना जाम टकराने के लिए जाने लगे। रमाशोव जानबूझकर सबसे पीछे रहा, और उसने इस बात पर ग़ौर किया। ख़ामोशी और हसरत से मुस्कुराते हुए उसने अपना सफ़ेद वाईन वाला ग्लास उसकी ओर बढ़ा दिया। इस पल उसकी आँखें अचानक चौड़ी हो गईं, काली हो गईं, और होंठ, किसी एक शब्द को कहते हुए भावुकता से, मगर बेआवाज़ थरथराए। मगर वह फ़ौरन मुड़ गई और हँसते हुए तल्मान से बातें करने लगी। 'उसने क्या कहा ?' रमाशोव सोचने लगा, ‘उसने कहा क्या ?’ इस बात ने उसे परेशान और उत्तेजित कर दिया। उसने चुपचाप हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और होठों को वैसे ही हिलाने की कोशिश करने लगा, जैसे शूरच्का ने किया था; इस तरह से वह अपनी कल्पना में उन शब्दों को पकड़ने की कोशिश करने लगा, मगर यह उससे हो न पाया। ‘मेरे प्यारे ?’ ‘लव यू ?’ ‘रोमच्का ?’ नहीं ये वो नहीं है।’ एक बात वह अच्छी तरह जानता था कि उसके द्वारा कहा गया शब्द तीन अक्षरों वाला था।
इसके बाद जाम पिया गया निकोलाएव की सेहत के लिए और भविष्य में उसकी जनरल-स्टाफ में सेवा-संबंधित सफलता के लिए, जाम ऐसे जोश से पिया गया जैसे किसी को भी, कभी भी इस बात में सन्देह नहीं था कि आख़िरकार उसे अकाडेमी में प्रवेश मिल ही जाएगा। फिर शूरच्का के प्रस्ताव पर, बड़े अलसाए से अंदाज़ में नामकरण-दिन वाले रमाशोव के लिए पिया गया; वहाँ उपस्थित महिलाओं के लिए और आम तौर से सब महिलाओं के लिए; अन्य सभी उपस्थितों के लिए पिया गया, अपनी कम्पनी के यश के लिए पिया गया, और अविजित रूसी सेना के लिए पिया गया।
तल्मान, जिसे काफ़ी चढ़ चुकी थी, उठकर खड़ा हो गया और भर्राते हुए, किंतु भावुक स्वर में चिल्लाया, “महोदय, मैं प्रस्ताव रखता हूँ हमारे प्यारे, हमारे आदरणीय सम्राट के स्वास्थ्य के लिए जाम पीने का, जिनकी ख़ातिर हममें से हरेक अपने खून की आख़िरी बूँद तक बहाने के लिए तत्पर है!”
अंतिम शब्द उसने अप्रत्याशित रूप से पतली, सीटी सी बजाती आवाज़ में कहे क्योंकि उसकी छाती में हवा ही पर्याप्त नहीं थी। उसकी बंजारों जैसी, डाकुओं जैसी पीले डेलों वाली काली आँखें अचानक असहायता और दयनीयता से झपकने लगीं और साँवले गालों पर आँसू बहने लगे।
“राष्ट्र गीत, राष्ट्र गीत!” छोटी सी, मोटी अन्द्रूसेविच ने जोश से माँग की।
सब खड़े हो गए। अफ़सरों ने अपने हाथ कैप से सटा लिए। बेतरतीब, मगर उत्साहजनक शब्द बगीचे में तैरने लगे, और सबसे ज़्यादा ज़ोर से, सबसे अधिक कृत्रिमता से, चेहरे पर हमेशा से ज़्यादा पीड़ा लिए गा रहा था भावुक स्टाफ़-कैप्टेन लेशेन्का ।
संक्षेप में, बहुत ज़्यादा पी रहे थे – हमेशा ही की तरह – वैसे भी , रेजिमेंट में पिया करते थे; एक दूसरे के घरों में, मेस में, डिनर समारोह में और पिकनिकों पर भी पीते ही थे। सभी एक साथ बोल रहे थे और अलग अलग आवाज़ों को पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। शूरच्का , जिसने बहुत सारी सफ़ेद वाईन पी ली थी, पूरी तरह लाल पड़ गई थी, पुतलियाँ फैल जाने के कारण उसकी आँखें बिल्कुल काली हो गई थीं, नम लाल लाल होंठ लिए अचानक रमाशोव के बिल्कुल नज़दीक झुकी।
“मुझे ये कस्बाई पिकनिकें पसन्द नहीं हैं, इनमें कोई ओछी से और कमीनी चीज़ होती है,” उसने कहा। “सच बात तो ये है कि इसे पति की ख़ातिर करना पड़ा, जाने से पहले, मगर, ओह गॉड़, कितना बेवकूफ़ी भरा है यह सब! वाक़ई में, यह सब हमारे घर के गार्डन में करना चाहिए था, - आप तो जानते हैं कि हमारा गार्डन कितना ख़ूबसूरत है – पुराना, छायादार। मगर फिर भी न जाने क्यों मैं आज इतनी ख़ुश हूँ, पागलपन की हद तक। हे भगवान, मैं कितनी ख़ुश हूँ! नहीं, रोमच्का, प्यारे, मैं जानती हूँ, किसलिए, और ये मैं आपको बाद में बताऊँगी।।।मैं बाद में बताऊँगी।।।मैं बताऊँगी।।।आह, नहीं, नहीं, रोमच्का, मैं कुछ भी, कुछ भी नहीं जानती।”
उसकी ख़ूबसूरत आँखों की पलकें अधमुंदी थीं, और उसके पूरे चेहरे पर कुछ था – आकर्षित करता हुआ सा, वादा सा करता हुआ और पीड़ा भरी बेसब्री सा। वह बेहया-ख़ूबसूरत सा हो गया, और रमाशोव , अभी तक न समझते हुए, रहस्यमय भावना से महसूस कर रहा था एक हवस भरी परेशानी, जो शूरच्का पर हावी हो चुकी थी; महसूस कर रहा था अपने शरीर में हो रही उस मीठी सी थरथराहट से जो उसके हाथों, पैरों में, और सीने में भी दौड़ रही थी।
“आज आप अलग लग रही हैं। क्या हो गया है आपको ?” उसने फुसफुसाहट से पूछा।
उसने फ़ौरन एक मासूम, शालीन अचरज से जवाब दिया, “मैं आपसे कह तो रही हूँ कि नहीं जानती। मैं नहीं जानती। देखिए: आसमान नीला है, दुनिया नीली है।।।और मेरा मूड़ भी अजीब सा नीला नीला है, कोई नीली नीली ख़ुशी है! मेरे जाम में और वाईन भरो, रोमच्का, मेरे प्यारे बच्चे।।।”
मेज़पोश के दूसरी ओर बात हो रही थी जर्मनी के साथ संभावित युद्ध की, जिसे बहुत सारे लोग क़रीब क़रीब तय मान रहे थे। बहस छिड़ गई, शोर गुल भरी, कई आवाज़ों की एक साथ, बेवकूफ़ी भरी। अचानक असाद्ची की ग़ुसैल, निर्णयात्मक आवाज़ सुनाई दी। वह पूरी तरह नशे में धुत था, मगर यह सिर्फ इसी बात से ज़ाहिर हो रहा था कि उसका ख़ूबसूरत चेहरा बेहद फीका पड़ गया, और बड़ी बड़ी काली आँखों की गहरी नज़र और भी धुंधली हो गई।
“बकवास!” वह तीखेपन से चिल्लाया। “मैं पूरे यक़ीन के साथ कहता हूँ कि यह बकवास है। लड़ाई का अध:पतन हो चुका है। दुनिया की हर चीज़ का अध:पतन हो गया है। बच्चे एकदम अहमक पैदा होते हैं, औरतें टेढ़ी-टेढ़ी हो रही हैं, आदमी नर्व्हस हो रहे हैं। ‘आह ख़ून! आह, मैं बेहोश हो रहा हूँ!’” उसने नकियाती आवाज़ में किसी की नकल की। :और यह सब इसलिए कि वास्तविक, खूँख़ार, निष्ठुर युद्ध का ज़माना बीत चुका है। ये कोई लड़ाई है ? पन्द्रह मील से तुम पर – ठाँय! और तुम घर पर वापस लौटते हो हीरो बनकर। माय गॉड, सोचो, कैसी बहादुरी है! तुम्हें क़ैदी बना लिया जाता है। ‘आह, प्यारे; आह, दुलारे, सिगरेट तो नहीं पीना ? या फिर, शायद, चाय ? गर्माहट तो काफ़ी मिल रही है न, बेचारे, तुम को ? बिस्तर तो नर्म है न ?’ ऊ-ऊ!” असाद्ची भयानक आवाज़ में गुरगुराया और उसने वार की प्रतीक्षा कर रहे एक साँड़ की तरह सिर नीचे झुका लिया। “लड़ाईयाँ तो होती थीं इस शताब्दी के मध्य में – ये बात मैं समझता हूँ। रातों को होते थे हमले। पूरा शहर आग में ख़ाक। ‘तीन दिनों के लिए लूटने के लिए शहर को सैनिकों के हवाले करता हूँ!’ घुस जाते थे। ख़ून-ख़राबा और आगज़नी। शराब के ड्रमों के ढक्कन तोड़ देते। खून और शराब बह रहे हैं सड़कों पर। ओह, कितनी अच्छी थीं मौजमस्तीपूर्ण ये दावतें भग्नावशेषों में! औरतों को – नग्न, खूबसूरत, रोती हुई – बाल पकड़ कर खींचते थे। रहम नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं। वे तो बहादुरों की लूट का मीठा माल थीं !”
“मगर, आप बहुत ज़्यादा न पसरिए,” सोफ़्या पाव्लोव्ना तल्मान ने मज़ाक से फ़ब्ती कसी।
“रातों को घर जलते और हवा चलती, और हवा से वध स्तंभों पर लटकते हुए काले शरीर झूलते, और उनके ऊपर कौए चिल्लाते। और वध स्तंभों के नीचे अलाव जलते और विजेता जश्न मनाते। क़ैदी होते ही नहीं थे। क़ैदी किसलिए ? उनके लिए अलग से अपनी ताक़त क्यों खर्च की जाए ? आ-आह!” भिंचे हुए होठों से असाद्ची तैश में चिल्लाया। “कैसा बहादुरी भरा, कैसा ख़ूबसूरत वक़्त था वो ! और लड़ाFयाँ भी कैसी ! जब एक दूसरे के सीनों को छेदते हुए घंटों तक लड़ते थे, निष्ठुरता से और आवेश से, वहशियत से और चौंका देने वाली कला से। क्या लोग थे वो, कैसी डरावनी ताक़त थी उनमें ! या ख़ुदा !” वह पैरों पर खड़ा हो गया, अपनी पूरी विशाल ऊँचाई प्रदर्शित करते हुए, और उसकी आवाज़ जोश और धृष्ठता से झनझनाने लगी। “महोदय, मैं जानता हूँ कि सैनिक-स्कूलों से आप लोग आधुनिक मानवतावादी युद्ध के बारे सूखे-रोग जैसी निर्बल, मरियल सी, कल्पनाएँ लेकर निकलते हैं। मगर, मैं पी रहा हूँ। अगर कोई भी मेरा साथ न दे तो भी मैं अकेला ही पिऊँगा पुराने युद्धों की ख़ुशी के लिए, ख़ुशनुमा और ख़ूनी निर्दयता के लिए !”
सब ख़ामोश थे, जैसे आम तौर से निराश, ख़ामोश तबियत आदमी के आकस्मिक जोश तले दब गए हों, और उसकी तरफ़ देख रहे थे – उत्सुकता से और भय से। मगर अचानक बेग-अगामालव अपनी जगह से उछला। उसने यह इतने अचानक और इतनी फुर्ती से किया कि काफ़ी लोग काँप गए, और एक महिला तो डर के मारे उछल पड़ी। उसकी आँखें बाहर निकल आईं और वहशियत से चमकने लगीं, सफ़ेद दाँत वहशियत से भिंचे थे। वह गहरी गहरी साँसे ले रहा था और उसे शब्द नहीं मिल रहे थे।
“ओ, ओ! यही है वो। यही, मैं समझ रहा हूँ ! आ !”
उसने थरथराती ताक़त से, मानो क्रोध में, असाद्ची का हाथ कस कर पकड़ लिया और हिलाया। “शैतान ले जाए इस सड़ी हुई चीज़ को ! शैतान ले जाए रहम दिली को! आ ! का-काटो !”
अपने वहशी मन को उसे किसी पर उतारना ज़रूरी था, जिसमें आम तौर से पुरानी, जन्मजात रक्तपिपासा चुपके चुपके ऊँघा करती थी। उसने अपनी खूनी आँखों से चारों ओर देखा और अचानक म्यान से तलवार निकाल कर वहशियत से शाहबलूत की झाड़ियों पर वार कर दिया। टहनियाँ और कोमल पत्ते मेज़पोश पर उड़े और बैठे हुए सभी व्यक्तियों को बारिश की तरह सराबोर कर गए।
“बेग! बेवकूफ़! जंगली !” औरतें चिल्लाने लगीं।
बेग-अगामालव को जैसे फ़ौरन होश आ गया और वह बैठ गया। प्रत्यक्ष रूप से वह उलझन में पड़ गया था अपने इस निराधार क्रोधावेग के कारण, मगर उसके पतले नथुने, जो ज़ोर ज़ोर से तेज़ तेज़ साँस छोड़ रहे थे, फूल गए थे और थरथरा रहे थे, काली आँखें गुस्से के कारण विद्रूप हो गई थीं, कनखियों से और आह्वानपूर्वक उपस्थित व्यक्तियों को देख रही थीं।
रमाशोव असाद्ची को सुन भी रहा था और नहीं भी सुन रहा था। उसे एक विचित्र अनुभूति हुई, नींद जैसी, मीठे मीठे सुरूर की जो किसी ऐसे विचित्र पेय के कारण छाया था, जिसका पृथ्वी पर अस्तित्व नहीं है। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि गर्माहट लिए एक नाज़ुक मकड़ी हौले हौले, अलसाहट से उसके पूरे जिस्म को लपेट रही है और प्यार से गुदगुदा रही है और उसकी आत्मा को आंतरिक, उल्लासपूर्ण मुस्कुराहट से भर रही है। उसका हाथ, उसके स्वयँ के लिए भी अप्रत्याशित रूप से, शूरच्का के हाथ को छू रहा था, मगर अब वे एक दूसरे की ओर नहीं देख रहे थे। रमाशोव मानो ऊँघ रहा था। असाद्ची और बेग-अगामालव की आवाज़ें उस तक, जैसे कहीं दूर से, किसी काल्पनिक कोहरे से आ रही थीं और वे समझ में तो आ रही थीं, मगर ख़ाली ख़ाली थीं।
क्या कहा ?’ े बातें करने लगी।‘