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स्त्री-आज़ादी

स्त्री-आज़ादी

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नानी-दादी की कहानियों में प्रचलित एक वर्णन मिलता है जिसके अनुसार एक बार एक दानव किसी सुंदर राजकुमारी को अपनी गुफा में कैद कर लेता है। इसके पश्चात एक राजकुमार, राजकुमारी की उस दयनीय हालात से दो-चार होता है। राजकुमारी के साथ मिलकर राजकुमार दानव का अंत कर देता है तत्पश्चात उसे आज़ाद कराकर सम्मानपूर्वक अपनी जीवन संगिनी बनाता है। कालान्तर में वे दोनों जीवनपर्यन्त ख़ुशी-ख़ुशी साथ बिताते हैं।

अब सवाल यह है राजकुमारी के दानवी बंदी वाले दिन कितने यंत्रणापूर्ण रहे होंगे या राजकुमारी ने वहाँ क्या कुछ सहा और भोग होगा? क्या उस दानव ने राजकुमारी को मात्र पिंजरे में बंद करके रखा होगा और समय-समय पर उसे दाना-पानी दे दिया करता होगा? राजकुमारी का दुःख मात्र पिंजरे में कैद निरर्थक जीवन ही था? या फिर इस कथा का कोई दूसरा पहलू भी है। निश्चित रूप से राजकुमारी का दुःख इस कपोल-कल्पना से कही बहुत आगे का है; जिसमें उस दानव ने राजकुमारी के स्टेटस, उसकी पूर्व राजकीय जीवन-शैली, उसकी आदतों, उसके व्यवहार व विचार, सभी पर निरापद रूप से हथकड़ी पहनाया होगा। क्या वह राजकुमारी का यौनिक, दैहिक शोषण नहीं करता होगा? क्या वह दानव मानसिक व शारीरिक तौर पर अपने बल, बुद्धि व वाणी से क्या राजकुमारी पर इतने घात नही करता होगा कि राजकुमारी को आज़ादी की परिभाषा व अर्थ बिन बताये, बिन पढ़े ही समझ में आ गए होंगे ?

सच तो ये है कि हमारी नानी व दादी ने हमें बच्चा समझ कर राजकुमारी के कैद होने के रहस्यों से हमें भले ही अवगत न कराया हो लेकिन उस बंदी राजकुमारी के समक्ष कौन सी परिस्थितियाँ उपजती होंगी , इसका अंदाज़ा तो उन्हें भी रहा ही होगा। सोचे की यदि उस दानव के स्थान पर कोई दुष्ट प्रकृति का मनुष्य होता तो उस राजकुमारी ही क्या उसके स्थान पर किसी भी स्त्री को क्या पिंजरे में कैद करने का दंड मात्र देकर संतुष्ट हो जाता? कदापि नहीं।

दानव की बंदी के रूप में राजकुमारी के जीवन के पल स्वतः कट तो अवश्य रहे थे, पर क्या वह दानव राजकुमारी का पति, पालक अथवा दाता के रूप में मान्यता पाने के योग्य था? निःसंदेह ऐसा बंदीदाता, वो चाहे दानव हो या मनुष्य, किसी भी स्त्री का पालक अथवा साथी बनने के सर्वथा अयोग्य होगा। क्योंकि जीवन किसी भी तरह से काट देने के लिए नही बना बल्कि इसके योग्यतम उपयोग में ही इसकी सार्थकता है।

वह राजकुमारी एक सच्ची कैदी थी, और उसकी आज़ादी का अर्थ था -दानव की कैद, यातनाओं व यंत्रणाओं से मुक्ति। राजकुमारी अवश्य ही उस सहृदय राजकुमार को पूजा भाव से ही निहारती होगी क्योंकि वह मात्र उसका प्रेमी व सहचर ही नही अपितु उसके लिए मुक्ति, रौशनी स्वतंत्रता या आज़ादी का पर्याय भी था। इस पुरानी कहानी से हम एक स्त्री की आज़ादी की आवश्यकता, उसकी पीड़ा, उसका सुख व उसके जीवन के धूप-छाँव को आसानी से समझ सकते हैं।

आज के आधुनिक युग में भी बहुत सारी स्त्रियों की कहानी उस राजकुमारी से विलग भूमिका नही रखती, पर राजकुमारी की तरह सभी की किस्मत में राजकुमार व आज़ादी नही होती; आजीवन दानवी कैद ही उनके अस्तित्व की पोशाक बन जाती है। यद्यपि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं तथापि ऐसी स्त्रियों की पहचान करना और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करना आज भी टेढ़ी खीर ही है। फिर भी एक आधुनिक पढ़ी-लिखी 21वीं शताब्दी की स्त्री के आज़ादी के लिए महिला संगठनों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा उठाया जाने वाला आवाज़ कितना प्रासंगिक एवं श्रेयस्कर है, हमें इसकी जांच भी एकबारगी कर लेनी चाहिए।

प्रसिद्ध लेखिका पद्मा सचदेव अपनी आत्मकथा ‘बूंद-बावड़ी’ मे लिखती हैं- “औरत को आखिर किससे आज़ादी चाहिए? अपने पति से, अपने बच्चों से या फिर अपने परिवार से।” सचमुच स्त्री को कौन सी आज़ादी चाहिए?

स्त्री होने पहले वह एक मनुष्य है और मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो कुछ अपवाद स्वरूपिणीयों के अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई भी औरत घर और समाज से विलग होकर आजाद घूमना पसंद करेगी। उदाहरणार्थ एक ऐसी महिला का चयन किया जाये, जिसका पति संपन्न हो, घर में महरिन लगी हो, सैर सपाटे की पूरी गुंजाइश हो, बच्चे कान्वेंट स्कूलों मे पढ़ रहे हो और उसे मनचाहे कार्यों की पूरी छूट हो,और उससे पूछा जाय कि क्या तुम्हें अपने इस जीवन से आज़ादी चाहिए तो उसे यह सवाल मजाक से ज्यादा और कुछ नही लगेगा। ये तो हुई सम्पन्न परिवार की बात लेकिन एक मध्यवर्गीय परिवार की किसी समर्पित स्त्री से आज़ादी का सवाल पूछा जाये तो वो भी इस आज़ादी के सवाल पर बुरा मान जाएगी। सच तो ये है कि औरत की आज़ादी के हिमायती यही स्पष्ट नहीं कर पाते कि औरत को किस किस्म की आज़ादी की दरकार है।

कुदरत ने महिलाओं को प्लास्टिक फाइबर की कुर्सियों की तरह बनाया है- ‘हल्की और मजबूत’ जो भारी से भारी बैठने वालों का भार सह लेती हैं, लेकिन कठोर प्रहार नहीं सह सकती, क्योंकि थोड़े प्रहार से ही प्लास्टिक फ़ाइबर कुर्सियाँ टूट जाती हैं। ठीक इसी प्रकार की संरचना में एक स्त्री भी ढली है जो जीवन में अपने आत्मबल से बड़ा से बड़ा संघर्ष झेल सकती है, पर शारीरिक बल पर प्रहार नही झेल सकती। महिला कोई पहेली नही जिसके अनसुलझी होने की उद्घोषणा अक्सर पुरुष समाज करता रहता है। एक सामान्य महिला को अपने जीवन में आधी दुनिया से बस निम्न तीन मूलभूत अपेक्षाएँ ही होती हैं –

1- प्रेम, 2- सुरक्षा, व 3-उनके आत्मसम्मान का सम्मान।

कहते है कि महिलाएं दिमाग की अपेक्षा दिल से सोचती हैं। यदि ये कह लें कि एक महिला की सबसे बड़ी दुर्बलता प्रेम ही है तो यह कहना अतिश्योक्ति नही होगी, एक मात्र प्रेम की अपेक्षा में ही एक महिला अपने माँ-बाप व भाई-बंधुओं को छोड़कर जीवनपर्यन्त एक पुरुष के लिए अपना सर्वस्व होम कर देती है। हालाँकि ये सब रटे-रटाये सूत्र हैं पर सच तो ये है कि परिवार रूपी सत्ता के केंद्र की भूमिका, एक स्त्री ही सबसे बेहतर ढंग से निभा सकती है, और इसके पारितोषिक स्वरुप उसे सबसे बड़ा उपहार ‘प्रेम’ ही चाहिए होता है।

महिलाओं की अस्मिता की सुरक्षा एक बहुत बड़ा सवाल है। क्योंकि जब तक मानवों के बीच के अराजक तत्वों में कुत्सित जीन मौजूद रहेंगे, तब तक महिलाओं के सामने सुरक्षा का संकट तो बना ही रहेगा। मुझे नही लगता कि दुबई के अलावा दुनिया में ऐसी कोई जगह है जो महिला-सुरक्षा की गारंटी ले सके, क्योंकि वहाँ के कठोर कानून की ही देन है जो पिछले 7-8 सालों में वहाँ दुष्कर्म का कोई केस दर्ज नही हुआ। क्या हमारे देश में भी कोई ऐसा परिवेश कभी बन सकेगा जब एक स्त्री बेरोक-टोक, निर्भय होकर कभी भी, कही भी जा सकेगी?

सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वैदिक काल तक महिलाएँ समाज में समानता का अधिकार रखती थी परंतु हमारा समाज उत्तरोत्तर जितना आधुनिक होता गया महिला समानता का आदर्श भी उसी दर से गिरता गया। स्त्री सम्मान का विघटन उसी बिंदु से प्रारंभ हो जाता है जहाँ से हम बेटे और बेटी का विभेद प्रारंभ करते हैं। लड़की के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार ही भविष्य के पुरुषों को उसके असम्मान की ओर उत्तप्रेरित करता है। जब भी कोई पुरुष स्त्री की उपेक्षा, अवहेलना तथा अवमानना करता है, उसे शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना देता है, तब-तब वह उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाता है। स्त्री विमर्श की सशक्त लेखिका सुधा अरोड़ा अपनी पुस्तक ‘एक औरत की नोटबुक’ में लिखती हैं की “पत्नी पर हाथ उठाना पुरुष के लिए अपनी कुंठा चाहे वह किसी की वजह से हो भावना तथा नाराजगी के उबलते हुए लावे को बाहर निकालने का एक सबसे आसान और सुविधाजनक आउटलेट है।”

महिला सम्मान की परिकल्पना हमें यथार्थ के धरातल पर चाहिए; लाख स्त्री कानून बनाए गए हैं फिर भी कभी मर्यादा व संकोचवश तो कभी आर्थिक निर्बलता वश तो कभी पारिवारिक मोह वश, महिला अपने शोषण के विरुद्ध आवाज नहीं उठा पाती। समान नागरिक अधिकारों के साथ ही एक स्त्री को अपने आत्म-सम्मान के साथ जीने का पूरा हक है। हमेशा लड़कियों को ही सामाजिकता की घुट्टी पिलाई जाती है पर यही सब बातें लड़कों को क्यों नहीं समझाया जाता? लड़कों को यह व्यवहारिक ज्ञान क्यों नहीं दिया जाता कि यदि वे पति परमेश्वर कहलाने के इच्छुक हैं तो उन्हें भी पत्नी को परमेश्वरी का सम्मान देना सीखना होगा। एक बार पुनः सुधा अरोड़ा के शब्दों में- “स्त्री सशक्तिकरण धीरे-धीरे बढ़ते हुए असहनीय तापमान से स्त्री का मोह भंग करने और उसे जागरूक बनाने और उसे पहचान देने की प्रक्रिया का नाम है।”

महज इन उपरोक्त तीन बिंदुओं की भरपाई हेतु एक स्त्री किसी को भी देवता की तरह पूज सकती है, किन्तु पूर्ति न होने की स्थिति में बगावत की हद तक भी जा पहुँचती है। आधुनिक स्त्री की आज़ादी की अवधारणा मात्र उसके प्रेम, सुरक्षा और सम्मान से ही परिपोषित होती है।



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