आखिर कब तक
आखिर कब तक
फिर उसके कदम चल पड़े थे पार्क की ओर। उसकी एक झलक देखने के लिए वो व्याकुल हो जाता था। ऐसा नहीं था कि वो बहुत खूबसूरत थी बस एक अजीब सी कशिश थी उसके सांवले-सलौने चेहरे में। परियों सी सफेद शिफान की साड़ी जिस पर चमकदार जरी का बार्डर। माथे पर छोटी सी सफेद बिंदिया, नाक में छोटी सी नथुनिया, करीने से लगा लिप लाइनर, कानों में छोटी छोटी सी मोती की बालियां, मांग में दिपदिपाती सिंदूर की लाल रेखा, बड़ी -बड़ी सी कजरारी आँखें जिनमें उदासी की नामालूम सी परत घुली होती। किसी परी के होने का गुमां सा लगता था।
पिछले पूरे हफ्ते से रजत उसको देखने पार्क आता और बात करने का बहाना ढूंढता। लगता था आज कुदरत रजत पर मेहरबान हो ही गयी थी। आज उसके साथ शायद उसकी बेटी भी थी जो हूबहू उसी के जैसी थी ।सफेद शफ्फाक रंगत जैसे दूध में केसर घुली हो।वैसी ही बड़ी-बड़ी आँखें। खेलते-खेलते बिटिया गिर गयी। उसने दौड़कर बच्ची को उठा लिया।
"मीठी आपको चोट तो नहीं आयी बेटा। कितनी बार कहा है इतनी शरारतें मत किया करो, लेकिन आप मेरी सुनती कहाँ हो। जी आपका शुक्रिया। आप नहीं पकड़ते तो पता नहीं कितनी चोट लगती इसे।"
"वेल्कम जी। लेकिन इसमें शुक्रिया जैसी कोई बात नहीं। मैं पास ही था। बहुत प्यारी बच्ची है आपकी।"
"जितनी प्यारी है उससे कहीं ज्यादा शरारती।" "ये भी खूब कही आपने बच्चे शरारत नहीं करेंगे तो कौन करेगा। अब बड़े तो शरारत करने से रहे।"
"जी कह तो आप सही ही रहे हैं लेकिन ये कुछ ज्यादा ही शरारती है। पूरी आफत की पुड़िया है ये। मैं तो सारा दिन इसके पीछे भाग-भागकर ही परेशान हो जाती हूँ। अच्छा जी एक बार फिर शुक्रिया ।"
परिचय कब दोस्ती में बदला और दोस्ती प्रगाढ़ता में पता ही नहीं चला। फिर तो बातों का जैसे अनवरत सिलसिला सा शुरू हो गया। जैसे सावन के मेघ जब बरसना शुरू करते हैं तो थमने का नाम ही नहीं लेते। बस ऐसे ही थी मेघा और रजत की बातें। ऐसा लगता जैसे बातों की पर्याय थी मेघा। दोनों के दुख-सुख सांझा होने लगे। रंगों और फूलों की दीवानी मेघा जब बातें करती तो रजत को लगता पूरे संसार की खुशियाँ रजत की मुट्ठी में सिमट आयी हों। मेघा बिन कहे ही रजत के दिल की हर बात जान जाती। कब बिजनिस में दिक्कत है। कब बच्चा बीमार है। रजत कब उदास है कब खुश है।ऐसा ही कुछ रजत भी, मेघा को क्या पसंद है क्या नापसंद। दोनों के अनकहे सुख -दुःख बंटने लगे। मेघा न दिखती तो रजत को चैन नहीं पड़ता और रजत नहीं दिखता तो मेघा को। मेघा की कजरारी आँखों से उदासियों के बादल अब भाप बनकर उड़ गये थे।
मित्रता के पवित्र बंधन में बंधे दोनों खुशी-खुशी अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे कि रजत के चेहरे पर सोचों के निशान मेघा ने स्पष्ट पढ़ लिए थे।
"क्या बात है रजत तुम आजकल कुछ बदले बदले से लग रहे हो।क्या परेशानी है।कोई तो बात है।"
"कुछ नहीं मेघा ।तुम्हें लग रहा है कोई बात नहीं।"
"मैं तुम्हारी रग -रग से वाकिफ हूँ रजत। तुम मुझसे कुछ खिचे-खिचे से हो।पहले वाली बात नहीं तुममे।"
"कुछ नहीं हुआ मेघा ।तुम कुछ ज्यादा सोचती हो।"
"रजत तुम्ही कहते थे न कि जब तुम मुझसे बात करते हो तुम्हें लगता ही नहीं तुम किसी दूसरे से बात कर रहे हो। तुम्हें तो मुझमें और खुद में कोई अन्तर नजर ही नहीं आता। फिर भी तुम्हें लगता है तुम परेशान होगे और मुझे पता भी नहीं चलेगा।"
"मेघा, एक बात सच-सच बताओ?”
"बोलो रजत।"
"क्या हम सही कर रहे हैं।"
"इसमें गलत क्या है रजत। हमने किया ही क्या है?"
"मेघा मैं अपने आप को अपराधी मानने लगा हूँ।"
"लेकिन क्यों?"
"मेघा हम अच्छे मित्र हैं। ये तुम जानती हो, मैं जानता हूँ लेकिन मानेगा कौन? मेरा परिवार, तुम्हारा परिवार, मेरे दोस्त तुम्हारे दोस्त, ये समाज।"
"क्या फर्क पड़ता है रजत। न माने। हम जानते हैं हम सही हैं,बाकी सब से क्या लेना हमें। "मेघा ने लापरवाही से जबाब दिया।
"मेघा हम जानते हैं ,लेकिन ये दुनिया मानेगी तो नहीं ये बात। और मेरी मेघा पर कोई उँगली उठाये ये मुझे सहन नहीं होगा।"
"और ये सहन होगा कि मेघा फिर से अपनी उदसियों में घुल घुल कर मर जाये। मैने जिन्दगी के मायने तुमसे जाने हैं रजत। मेरी आँखों ने सपनों के सतरंगी इंद्रधनुष देखने शुरू किये हैं। अभी तो खुशियों की नन्ही कलियाँ मेरे पास खिलनी शुरू हुयी हैं। अभी तो सपनों ने आँखों के बन्द दरीचों में अपने पर फैलाने शुरू किये हैं। अभी तो मेरे होठों ने गुनगुनाना सीखा है और तुम चाहते हो मैं फिर से जीना भूल जाऊँ। वो भी बस इसीलिए कि समाज क्या कहेगा। "और टप-टप आँसुओं की लड़ियाँ मेघा की आँखों से गिरने लगी”।
"बात को समझने की कोशिश करो मेघा। ऐसे रो रोकर मुझे कमजोर न करो।"
"कितना अजीब है न ये रजत। हम बस इसीलिए दोस्त नहीं रह सकते कि हम स्त्री -पुरुष हैं। क्यों रजत क्यों? क्या खराबी है हमारी दोस्ती में? क्या हमने कभी अपनी सीमायें तोड़ी? तुम बेशक मुझसे दोस्ती तोड़ दो पर एक बात तो बताते जाओ। अगर हम दोनों पुरुष या दोनों ही स्त्रियाँ होते तो क्या तब भी तुम यही करते। क्या तब भी ये दोस्ती खतम हो जाती।नहीं रजत तब ऐसा नहीं होता।तब हमारी दोस्ती की मिसालें दी जाती। हम कहते हैं समाज की मानसिकता ही ऐसा है तो ये समाज बनाते तो हम ही हैं। किसी को तो ये मानसिकता बदलनी ही होगी, तो ये शुरूवात हमसे क्यों नहीं ? तो अब हम दोस्ती नहीं तोड़ेंगे न रजत। और एक मीठी मुस्कान ने मेघा और रजत के अधरों को छू लिया।