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प्यार में पंचायत

प्यार में पंचायत

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बस में बैठी श्रद्धा किसी परिदें की तरह सहमी और निराश थी- जिसको उड़ान भरते हुए बीच में ही बहेलिये ने झपट लिया था। नियति का यह खेल उसकी समझ में नहीं आया।

बोकारो पहुंचकर वह बस की सीट पर बेहिस सी बैठी रही। भीड़ छंटने पर कंड़क्टर ने हालत देखी और पास आकर बोला,

‘मेम, आपका सहायता कर सकता हूं ?, ‘‘नहीं मै ठीक हूं’’। बड़ी देर तक वो चुप कुर्सी पर बैठी खाली नजरों से मुराफिरों

को बाहर निकलता देखती रही। उसके दिमाग में सब कुछ पुछ सा गया था। कौन सा घर, कौन सा शहर और कौन सा

पता जहां जाना था ?

कंड़क्टर ने उसकी झोला झपेटी निकाला। वह उठी, बस से उतरी और आॅटो वाले को बड़ी देर से नाम बतायी। आॅटो पर

बैठी तो लगा, सिर अंदर झनझनाहट सी है। किसी का नंबर याद ना आया। आॅटो वाला बड़ी देर तक सड़क पर इधर उधर

घुमता रहा फिर झुंझलाकर कहा कि मेम साहब, मुझे घर भी लौटना है। श्रद्धा की चेतना लौटी। बहुत देर बाद उसने पता

बताया। घर पहुंचकर उसको अजीब सी घुटन का अहसास हो रहा था। सिर में दर्द उठ रहा था। वह सिर दोनों हांथों से

पकड़कर बेड़रुम में जा कर लुढ़क गयी।

सारी रात श्रद्धा के दिमाग में फोन की घंटी घनघनाती रही। उसने आखिर उसने फोन रिसीव किया। सामने उसकी रुममेट

थी। उसने कहा,‘‘ देखो श्रद्धा मुझे पता है तेरी हालत। तूम्हें देखकर मैं समझ सकती हूं कि तूम कितनी टूटी हो।

प्लीज श्रद्धा ! हो सके तो राहुल को भूल जाओ।’’ उसने ये बात बहुत धीमे स्वर में कहा।

श्रद्धा को ये अच्छी तरह याद है वो अगस्त का महीना था। जब उसकी पहली मुलाकात राहुल से हुई थी। उसके जीवन में

और हाॅस्टल के आस पास लड़को की जमघट थी। कुछ चेहरे जाने पहचाने तो कुछ अनजाने थे। उन्हीं में से एक चेहरा

राहुल का था। उसका चेहरा जैसे सिगरेट के धुएं में डुबा हुआ सा दिखता था। उससे बात करते हुए श्रद्धा को थोड़ा झटका

महसुस हुआ। वह उसे छुपी नजरों से देखती, चेहरे पर खोयापन, माहौल से लापरवाह उसकी बड़ी-बड़ी आंखे अपने आप

से संवाद कर रही हो। वह उसके बारे बात करना चाहती थी, मगर जाने क्यों खुद को रोक लेती। श्रद्धा को जाने क्यों वह

लड़का कुछ अलग सा लगता था, बल्कि यूं कहा जाए कि उस लड़के के व्यक्तित्व से कोई और शख्स अंदर बाहर नजर

आ रहा था। इस दौरान श्रद्धा की नजरें कई बार राहुल पर पड़ जाती और वह अपनी नजरें चुरा लेती।

श्रद्धा का होस्पीटल जाने में देरी हो रही थी। वह अपने कमरे में लौट आयी। तीन दिन बाद राहुल का फोन आया, बस

यूं ही हालचाल पूछने की नीयत से उसने काॅल किया। श्रद्धा को उससे बात करना बुरा नहीं लगा। पांच मिनट की बात

एक सप्ताह में पांच घंटे में बदली। कुछ अटपटा हो रहा था शायद दोनों के बीच।

यह सितंबर का शुरुआती दिन थे, जब राहुल ने किसी काम के बहाने उसके शहर में आया था। पता नहीं क्यों श्रद्धा को

इसकी भनक लग गयी कि राहुल बहाना बनाकर सिर्फ उससे मिलने आ रहा है। दिमाग के इस शक को यह कहकर

उसने झटक दिया कि यह बेवकूफी का ख्याल उसको मोबाइल पर होती बातों के कारण आया है, वरना एक लड़का

जमशेदपुर से रांची का सफर इस तरह की बेतूकी बात के लिए नहीं कर सकता।

राहुल जब पार्क से निकलकर वापस जा रहा था, तब उसने श्रद्धा की ओर मुड़कर देखा तो उसने हांथ उठा कर बाय कहा

, फिर चैंककर उसने अपने उठे हाथ के नम्र इशारे को ताका और नजर उठाकर जो राहुल की तरफ देखा, धक सी रह

गयी। उन आंखों में सम्मोहन था। गहरा आकर्षण ! उसने हाथ नीचे किया और स्वयं से पूछा, कहीं यह तेरा भ्रम तो नहीं

है श्रद्धा ?

एक रंग , जो मौसम बदलने से पहले हवा में फैलने लगता है, कुछ वैसी ही कैफियत से श्रद्धा दो-चार हुई। एक खुशी

जैसे उसको कुछ मिल गया हो, मगर क्या ? इसी उधेड़बुन में वह तैरती उतारती अपने हाॅस्टल की ओर चल पड़ी। रास्ते

के सारे पेड़ उसको चमकीली पत्तियों से सजे लगे और शाम ज्यादा गुलाबी जिसमें धुंधलका सुरमई रंग की धारियां जहां

तहां भर रहा था। हाॅस्टल लौटते समय उसको सड़क की बत्तियां चिराग की तरह जलती लगी, जैसे छतों पर दीवाली की

सजावट घरों को दूर तक रोशनी की लकीरों में बांट देती थी। आज उसका मूड़ बरसों बाद हल्का हुआ था। कोई कुठा,

कोई शिकायत, कोई कड़वाहट या झुंझलाहट उसको आहत नहीं कर रही थी। वह हवा में तैरती हुई जब हाॅस्टल पहुंची,

तो उसकी सहेली ने बताया कि तेरी रुममेट चाभी लेकर चली गयी है। उसके आने में देर है। सूचना सुनकर वह हमेशा की

तरह आक्रोश से भरी नहीं, बल्कि उसने लापरवाही से कंधे झटके और गुनगुनाते हुए दो घंटे तक इंतजार किया।

रात में नहाने के बाद वह नाईट कपड़ों में लिपटी आईने में अपना चेहरा इस तरह से देखने लगी जैसे पहली बार देख

रही हो। आंखों के नीचे हल्का कालापन, भवों के पास कई लकीरें, माथे के पास सफेद बालों का झांकना, आंखों में एक

जिज्ञासा कि मैं कैसी लगती हूं ? उसको अपनी त्वचा मुलायम और चमकीली लगी। होंठों पर जाने कहां से आई मुस्कान

उसको अजनबी लग रही थी। थकान के बावजूद उसमें फुर्ती का अहसास था। खाना खाने के बाद जब वह बिस्तर पर

लेटी, तो उसको महसुस हुआ कि आज बरसों बाद उसके बदन को मुलायम बिस्तर मिला है। उसने आराम की सांस ली

और आंखे बंद की तो सामने राहुल का चेहरा तैर गया।

जमशेदपुर पहुंचते ही राहुल ने श्रद्धा को फोन किया कि वह अच्छे से पहुंच गया। रात को जब दोबारा उसने फोन किया,

तो श्रद्धा को पहली बार लगा कि उसके दिल में कुछ उथल-पुथल सी हुई। फिर फोन का सिलसिला पांच मिनट से आधा

घंटा हो गया और सप्ताह के जगह रोज बातें होने लगी। जिसमें कैरियर की बातें कम और आपसी बातें ज्यादा होने लगी।

खाना खाया या नहीं ? दिन कैसा गुजरा ? मौसम कैसा है ? श्रद्धा को फोन का इंतजार सुबह छह बजे से ही होने लगती।

राहुल भी उसी वक्त फोन करता और दोनों की दिन की शुरुआत बेहतरीन होने लगी। श्रद्धा को अकेले का एक साथी मिल

गया था, जिससे वह दुःख-सुख की बातें कर सकती थी।

पीछले तीन-चार वर्षों बाद श्रद्धा अपने अधूरेपन को दूर जाते देख रही थी। बहरहाल राहुल से दोस्ती शद्धा के जीवन में

एक नई उपलब्धि थी, जिसने जीवन से उसका मोह बढ़ा दिया। उसमें थकान की जगह खुशमिजाजी आ गयी थी।

पहनने-ओढ़ने का दिल करता। सजने संवरने की इच्छा के चलते उसने क्रीम, सेंट का ढेर लगा लिया और हर रात राहुल

के बुलावे पर उसका मन जमशेदपुर जाने को मचलने लगता। उसको अपने इस घर में एक और घर नजर आने लगा।

बातों की लय में दोस्ती का अनुराग मर्द-औरत की चाहत में बदल चुका था। एक दिलनशील कैफियत थी, जिसमें श्रद्धा

डुबती चली जा रही थी। उसके हाॅस्टल की अन्य लड़कियां उसके चेहरे पर आई ताजगी को देखकर जब काम्प्लीमेंट्स

देतीं तो स्वयं श्रद्धा को लगता की उसको भगवान ने कैसा वरदान दिया, जो दिल दोबारा धड़का और जीवन में अनुराग

ताजा कोपल की तरह फूटा।

श्रद्धा जब नये कपड़े पहनकर आईने के सामने खड़ी हुई, तो उसको लगा कि जवानी का साया अभी उसके चेहरे पर

आया है। खुशी ने चेहरे में चमक ला दी है। इस ख्याल से उसकी उत्तेजना बढ़ी कि यदि राहुल ने उसे अपने साथ

ले जाने की बात कही तो वह क्या फैसला लेगी ?

उन्नीस सितंबर

राहुल रांची आ रहा था। श्रद्धा का मन तेजी से धड़क रहा था। दो मुलाकातों के बाद घटनाएं संवेदना के स्तर पर ंिजस

तरह से घटी थी सारी मौखिक थीं, मगर उनमें जादू था, जो श्रद्धा के सिर चढ़कर बोल रहा था। कल रात राहुल की

खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने श्रद्धा को विश्वास दिलाया कि जीवन का अंतिम पहर जैसे उसके साथ गुजरने

वाला है ‘‘वही मेरा अंत होगा’’।

राहुल रांची आ चुका था। श्रद्धा को डर था कि कहीं सबके सामने उसका चुम्बन न ले ले। श्रद्धा किशोरी की तरह

शरमाई-शरमाई सी थी। प्यार किसी भी उम्र में हो उसका अपना तर्क होता है, जो उम्र, जातपांत, धर्म, भाषा की सारी

दीवारों को गिरा देने की शक्ति अपने में रखता है।

श्रद्धा की बेकरार आंखें बीच चैराहे की भीड़ में राहुल को ढूंढ़ रही थी। जब वह दिखा तो बड़ी व्याकुलता से आगे बढ़ी,

मगर राहुल का ठहरा हुआ चेहरा देखकर ठिठक गयी। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण

मुस्कान ! एक ठंड़ा सहज अंदाज श्रद्धा को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चलकर गाड़ी में बैठ गयी।

‘‘आपकी तबीयत ठीक है ?’’

‘‘ हां’’

‘‘बहुत चुप-चुप हैं ?’’

‘‘दरअसल सफर करने में थोड़ी दिक्कत आयी, सो थोड़ा चुप रहकर रिलेक्स होना चाहता हूं।’’

राहुल और श्रद्धा फिर से राजधानी के बिरसा मुंड़ा जैविक उद्यान में पहुंच चुके थे। दोनों खामोश

होकर घुमते रहें। कभी बात करने का जी चाहा तो किसी पेड़ या जानवर को देखकर उसके बारे

बात करने लगते। ये क्या हो रहा था ? इसकी सहज अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा था। आखिर में श्रद्धा उद्यान के सबसे आखिर में पडे़ कुर्सी पर जा बैठती है।

‘‘दो मिनट इंतजार करना, मैं आता हूं’’ राहुल यह कहकर एक दौड़ लगाता है।

करीब पांच मिनट बाद वो एक ताजगी भरा गुल्दस्ता लाता है। संभवतः उसने अभी-अभी उसे आकार दिया था। उद्यान के द्वार से श्रद्धा के हाॅट चेयर तक की दूरी तय करने तक राहुल ने सोंच लिया था कि आखिर श्रद्धा के सामने अपनी पूरी बात या प्रपोज करने के लिए कौन सा नुस्खा अपनाना है।

श्रद्धा ने जब राहुल को पास आते देखा तो वो चैंक गयी।

राहुल ने बड़े ही आहिस्ते से अपने घुटनों के बल बैठकर श्रद्धा को अपना तौफा दिया। हां, उसने अपने

मोबाइल पर ‘‘ धीरे धीरे से मेरे जिन्दगी में आना ..... धीरे धीरे से अपना बनाना .....’’ गाने को बेकग्राउंड़

बनाया।

‘‘ तुम्हारी आंखें बेहद खूबसूरत हैं। तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिली श्रद्धा ? मैं इस तरह से भटकता नहीं।

मैं इस भटकाव में जिन्दगी की जुस्तजू को छोड़ नहीं पाया हूं, तो भी श्रद्धा तुम मुझे कभी छोड़ना मत....।

चलना, क्षितिज के अंतिम छोर तक चलना, मेरे साथ चलना।’’

रात का सपना दिमाग पर छाया रहा। दिल ने कहा कि राहुल मैं दुनिया छोड़ सकती हूं, मगर तुम्हें नहीं,

तुम मेरे सांसो में बस गये हो, मेरे वजूद में समा चुके हो। तुमसे अलग होने का मतलब है अपने शरीर को

दो हिस्सों में बांट देना....नहीं, नहीं राहुल मैं तुम्हारी हूं, सिर्फ तुम्हारी, जैसे मीरा कृष्णमय हो गयी थी, मैं

राहुलमय हो गयी हूं, मेरी तपस्या हो तुम, मेरी निष्ठा हो तुम, मेरी जिन्दगी की नई शुरूआत हो तुम !

कई दिनों तक राहुल और श्रद्धा इसी जुम्ले के साथ अपनी दूरियों को जी रहे थें.....पल.....क्षण...महीने....

साल..... नशा दर नशा चढ़ता ही गया...................

‘‘ श्रद्धा ! तुम कैसे उस माहौल में जी लेती हो...? आओ.... मैं तुम्हारे इंतजार में यहां बैठा हूं, मुझे पर

विस्वास करो, अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से इस राहुल को देखो तो, यह तुम्हारा है श्रद्धा, सिर्फ तुम्हारा है।

मैं तुम्हारे सारे दुःख मिटा दुंगा। तुम्हें इतना प्यार दंुगा कि तुम फिर से खिल उठोगी, एक गुलाब की

तरह महकी-महकी सी.....।’’


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