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Sunny Kumar

Inspirational

1.0  

Sunny Kumar

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मैथ से छूटे, एस.एस.टी में अटके

मैथ से छूटे, एस.एस.टी में अटके

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अभी आठवीं के फाइनल टर्म आने में काफ़ी वक़्त था. लेकिन गुलशन और मैंने आपस में बहुत पहले ही ये समझौता कर लिया था कि वो मुझे मैथ  में दिखायेगा और मैं उसे बाक़ी सारे सब्जेक्ट में. 

मेरी मैथ  फेल होने की हद तक ख़राब थी. जिसकी वजह से मैं सातवीं क्लास में एक बार लुढ़क चूका था. वो पहली बार फेल होने की तकलीफ और ज़िल्लत भयंकर तरीके से दिल में घर कर गयी थी. लेकिन आगे चलकर इससे बचने के लिए एक तरक़ीब, मुझसे खुद-ब-खुद ईजाद हो गयी थी. वो यह थी कि जो बंदा मैथ  में अच्छा होता था, मैं उसके पास जाकर बैठ जाता और किताब खोलकर किसी एक सवाल पर, जो मुझे लगता था एग्जाम में आ सकता है, उस पर उंगली रख के बोल देता था- भाई मुझे ये सीखा सकता है?

फिर गुलशन तो दोस्त था, ट्यूशन भी पढ़ता था और मैं ट्यूशन नहीं पढ़ता था. तो मैंने गुलशन का दामन थाम लिया. उसने मुझे बड़े सलीक़े से तीन-चार नंबर वाले दो-चार क्वेश्चन सीखा भी दिए. बावजूद इसके ये खटका लगा रहा कि कहीं मैथ  की वजह से फेल न हो जाऊं. मैथ  का डर था ही ऐसा. लेकिन जैसे ही दसवीं में मुझे मौक़ा मिला, मैंने इससे छुटकारा पा लिया. क्योंकि मैंने ग्यारवीं में कॉमर्स (एक ग़लती) ली थी. जिसमें मैथ  और हिंदी में ऑप्शन था, तो मैंने बिना कोई देर और संकोच किये फॉर्म में हिंदी भर दिया. लेकिन कहते हैं न कर्म नाम का कुत्ता कभी न कभी आपको पीछे से काट ही लेता है. कॉलेज के सेकण्ड ईयर में मेथ कंपल्सरी हो गयी थी.

गुलशन के साथ किया हुआ वादा रंग ला रहा था. हमारे सारे पेपर अभी तक बड़े सही जा रहे थे. इंग्लिश, हिंदी और संस्कृत हो चुके थे. चौथा पेपर मैथ  का था, गुलशन ने दो क्वेश्चन मुझे दिखा दिए थे. बाक़ी जो मुझे आते थे मैं पहले ही लपेट चूका था. और डर के साथ-साथ ये इत्मीनान भी कर लिया था कि पासिंग मार्क्स तो आ ही जाएंगे.

एग्जाम के दिनों में एक लाइन में सात डेस्क लगा करते थे, गुलशन क्या करता था कि खिड़कियों वाली साइड से, जिधर से हमारे रोल नम्बर शुरू होते थे- एक डेस्क उठाकर दूसरी क्लास में पटक आता था. जिसकी वजह से मैं अपने आप आगे वाली लाइन में शिफ्ट हो जाता था क्योंकि मेरा रोल नम्बर सात था और उसका आठ. और इस तरह किसी टीचर को एक डेस्क काम होने की भनक नहीं लगती थी. लेकिन उस दिन पी. एस. मीना को लग गयी. वैसे बता दूँ कि पी. एस. मीना उन टीचरों में से नहीं थे, जिनके आने से पहले ही बच्चे डर के मारे अपने फर्रे गुप्त स्थानों से निकल कर फेंक देते हों. लेकिन पता नहीं उस दिन पी. एस. मीना का बीड़ी का बण्डल ख़राब निकल गया था कि क्या. वो गुलशन के ऐसे पीछे पड़ा कि उसके एस. एस. टी के पेपर का नास पीट के ही माना. उसने क्लास में इंट्री लेते ही मेरा डेस्क उठवा के पीछे रखवा दिया. जिसकी वजह से मैं उस दिन उससे अलग हो गया और वो वहां आगे अकेला हो गया. उस वक़्त नहीं पता था की इतना बुरा होने वाला है. मैं अपने क्वेश्चन पेपर पे पिल गया था क्योंकि मुझे दो-तीन छोड़कर, सारे आते थे. 

उस दिन जादूगरी पी. एस. मीना कर रहा था या गुलशन. पता नहीं चल पा रहा था. लगता था दुनिया में जितनी भी गाइड और कुंजी है, गुलशन सब फाड़-फूड़ के ले आया है. पी. एस. मीना जहां हाथ मारता, वहाँ से फर्रा उसके हाथ लग जाता. वो तलाशी लेते गए और गुलशन की आस्तीनों, कॉलर और जुराबों से फर्रे निकलते गए. वो फर्रा पकड़ के उसे बैठाते, वो फिर कहीं से एक निकाल कर चलाने को होता और पकड़ा जाता. ये टंटेबाज़ी आधे घंटे ऐसे ही चलती रही. दोनों एक-दूसरे से अगुता गए थे.

पी. एस. मीना ने आख़िरकार गुलशन को खड़ा कर के, उसकी आंसर शीट अपने डेस्क पे रख ली. गुलशन ने भी उसे वापिस मांगने की कोई ज़हमत नहीं उठाई. अस्कूल इतिहास में मेरे सामने शायद ये पहली घटना थी जब टीचर ने किसी की आंसर शीट छीन ली हो, और बच्चे ने गिड़गिड़ा के मांगी न हो. वरना तो टीचर आंसर शीट में बाद छीनता था, बच्चे ऐ सर.. दे दो सर.. अब नहीं चलाऊंगा.. ग़लती हो गयी.. ऐ सर.. करके शुरू पहले हो जाते थे.

 

गुलशन अपना पेन-पेन्सिल-फुट्टा समेटकर तमतमाते हुए उठा तो पी. एस. मीना ने गुलशन को उसकी आंसर शीट थमाने की कोशिश की- चल ये ले पकड़..

 

गुलशन बेधड़क बोल पड़ा- ना-ना अब रख ले इसे... और बाहर मिल...

 

पी. एस. मीना की लुपलुप हो गई. उनके ग़ुस्से के गियर तुरंत कम हो गए. उन्होंने गुलशन को पकड़ कर उसकी सीट पर बैठाया और बड़ी नर्मी से बोले- बेटा ऐसे नहीं करते.. ले आराम से बैठ के अपना पेपर कर...

लेकिन गुलशन आराम से पेपर कर कैसे सकता था. उसके सारे अस्त्र-शस्त्र तो ज़ाया हो चुके थे. फिर भी उम्मीद में उसकी नज़रें क्लास में घूमती रही की कहीं से कुछ हो जाये. इस बीतते हुए वक़्त में पी. एस. मीना की टक्कर जब उसकी खौलती हुई नज़रों से हुई तो उसके पास आकर बोले- चल आ तेरा मैं मानचित्र भरवा देता हूँ. मुझे शक होता है कि ज़रूर उसने ग़लत-सलत मानचित्र भरवाया होगा. और चलो मान भी लूँ, सही भरवाया भी हो तो 8 नंबर के मानचित्र से गुलशन पास नहीं हो पाया.

 

एस. एस. टी. में उसकी कम्पार्टमेंट आ गई. कम्पार्टमेंट का वो पेपर 20-25 दिन बाद हॉल में हुआ. किसी के मुंह से सुना कि गुलशन वहाँ प्रिंसिपल को गाली दे के भाग गया. उसके कुछ अरसे बाद फिर किसी से ये भी उड़ती-उड़ती सुनी कि गुलशन ने अस्कूल छोड़ दिया है.

आज भी जब गुलशन का ख्याल आता है तो लगता है, काश उस दिन हमारे डेस्क न बदले गए होते. मैं उसके आगे बैठा तो उसके अस्कूल छोड़ने की नौबत न आती.

 

और हमारे ग्रुप से एक यार न कम हुआ होता.

 

 


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