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औरत-मां- और वह

औरत-मां- और वह

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पौ फटने के बाद सूरज देवता धीरे-धीरे क्षितिज की सीढियां चढ़ते ऊपर आ रहे थे। हर तरफ़ सुनसान सन्‍नाटा-सा छाया हुआ था। हवा में उमस भरी ठण्‍डक थी और वह निश्शब्द पेड़ों के पत्‍ते सहलाती हुई बहे जा रही थी। कभी-कभी चहकती चिडि़यों के कलरव में जैसे एक सवाल था कि कैसी सुबह लेकर आया है आज का सूरज। सूरज तो ख़ैर क्‍या जवाब देता, लेकिन चिडि़यों के सवाल अपनी जगह थे और वे ऐसे ही किसी दृश्‍य को तलाश कर रहे थे।

‘ला निकाल पांच सौ का नोट।‘

अपने बिखरे बालों को ठीक करते हुये औरत ने नजदीक खडे आदमी से कहा।

‘क्या, क्या कहा? पांच सौ का नोट। अरे कब दिये तूने मुझे पांच सौ रुपये?’

लम्बे कद के उस आदमी ने औरत को बड़ी ही हैरानी के साथ देखते हुए झिड़का।

‘‘चल, मजाक छोड और रुपये दे, छोरे को ताले में डालकर आई हूं।‘

औरत को उस आदमी की बातें अभी भी सिर्फ मजाक ही लग रही थीं।

आदमी फिर बिफरा, ‘अरे लुगाई पागल हो गई है क्या? तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया। कब दिये तूने मुझे रुपये? बेसिर-पैर की बात करते तुझे ज़रा भी शर्म नहीं आ रही? अरे किसी से कहेगी तो  लोग भी हंसेंगे, बावली।‘

सुनकर औरत के चेहरे पर अजीब भय से पीलापन छा गया। आंखों की पुतलियों के आगे सुबह के उजाले में भी अंधेरा छाने लगा और उसकी पुतलियां सिकुड़ने लगीं। होंठ सूखकर पपडियां छोड़ने लगे। सूखे होंठ अनजाने तरीके से फड़कने लगे। उसने एक उबकाई-सी ली। चेहरे पर एक भयग्रस्त मौन-सा पसर गया। उसे यों चुप देख आदमी के चेहरे पर आते-जाते कुटिल मुस्कान के भाव साफ देखे जा सकते थे। औरत की आंखों में पानी उफनती नदी की तरह उतर आया, पर वह डिगी नहीं। साडी के पल्लू से भीगी आंखें पौंछते हुए अपना खोया हुआ विश्‍वास बटोरते हुए पूरी हिम्‍मत के साथ कहने लगी, ‘तू कुछ भी कर ले, रुपये तो मैं लेकर ही जाऊंगी। तूने वादा किया था न कि काम हो जाने के बाद दे देगा, तो चुपचाप दे दे वरना मैं हल्ला मचा दूंगी। भीड़ जमा हो गई तो सोच तुझे कितना महंगा पड़ेगा।‘ आदमी ने बांयी ओर होंठों को खींचते हुये कहा, ‘अरे तू मेरी फिक्र छोड़ और अपनी सोच। क्या कहेगी लोगों से? किस बात के रुपये मांगती है तू, है कोई जवाब तेरे पास? तो कर हांका, कर ले भीड़ जमा। पर लोगों को जवाब जरूर देना। साफ-साफ बताना कि लेन-देन है किस बात का।‘

 सूरज भगवान को भी औरत की हालत पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था, पर क्‍या करते। आदमी-औरत की बातें सुनकर जैसे पंछियों में कोहराम मच गया। आसपास के पेड़ों पर बैठी चिड़ियाएं बहुत जोरों से शोर मचाने लगी। पंछियों के कलरव में जैसे उस औरत का आर्तनाद था। शायद इसी को सुनकर औरत की आंखों में फिर पानी भर आया, जो मोटी लकीरों में कपोलों पर बहने लगा। आदमी ने उससे फिर कहा, ‘देख गनीमत इसी में है कि तू चुपचाप यहां से खिसक ले, समझी।‘

दोनों को उलझते देख गली से गुजरते दूधवाले की साइकिल की रफ्तार धीमी हो गई। कुछ हाथ की दूरी पर जाकर उसके पैडल रुक गये। साइकिल के रुकते ही उस पर बंधी दूध की कोठी ठक्क की आवाज के साथ जमीन पर आ टिकी। आदमी और औरत की गर्दन साथ-साथ उस ओर मुड़ गई। दूध वाले को देखकर औरत को कुछ हौसला बंधता दिखा तो वह चीखी, ‘अरे कसाई! ला दे रुपये। गटर-मटर सुने जा रहा है निगरगुडा।‘ कहती औरत ने आदमी की जेब पर झपट्टा मारा। अब औरत के हाथ में आदमी का कुर्ता था तो आदमी के हाथ में औरत की चोटी। एक पेड़ से पंछियों के इस कोलाहल में ताज़ा बने घोंसले के तिनके एकदम-से हवा में डोलते हुए नीचे आ गिरे। परिंदों के नन्हें चूजों की चीखें हवा में यूं गूंजती चली गईं कि सूरज देवता को बादलों की हल्की ओट में अपना चेहरा छुपाना पड़ा। शुक्र है कि कोई चूजा या अण्‍डा नीचे नहीं गिरा। वरना पुलिस थाने के इस परिसर में न तो चूहों के बिलों की कोई कमी है और न ही यहां पलने वाली शैतान बिल्लियों की, जिनका भाग्‍य ऐसी ही वारदातों पर टिका रहता है।      

 साइकिल सवार दूध वाले के चेहरे पर कई सवालिया संकेत उभरे। कुछ देर तो वह दोनों को यों ही देखता रहा। फिर पास आकर दोनों को जैसे-तैसे छुडा़या और कहने लगा, ‘क्यों सवेरे-सवेरे शोर मचा रखा है?’

लम्बा आदमी उसे कहने लगा, ‘अरे देख, यह लुगाई पगला गई है। मुंह अंधेरे मांगने चली आई। अभी तो भिखारी भी नहीं जागे होंगे। सरकारी सिपाही हूं। तीस हजार महीना तनख्वाह है। इसका मतलब यह तो नहीं कि रांडों पर लुटाता फिरूं। आंखें तो ऐसे दिखा रही है जैसे उधारी उगाहने को आई है।‘‘

अब औरत अपना आपा खो बैठी, ‘बड़ा शरीफ बनता है। ले देख...देख अपनी करतूत।‘ कहती साडी का पल्लू सरकाकर गले के नीचे ज़ख्म दिखाती कहने लगी, ‘धोखा कर गया बदमास का मूत। काम निकालकर मुकर गया।’’ सूरज भगवान को फिर से बादलों की ओट में मुंह छुपाना पड़ा और धरती पर सवेरे-सवेरे अंधकार छाने लगा। पंछियों के कलरव में जैसे हाहाकार के साथ रुदन भी होने लगा। 

 साइकिल सवार को समझते देर नहीं लगी। पुलिस का नाम सुनकर तो वह तुरंत ही वहां से खिसकने में लग लिया। कुछ ही मीटर की दूरी के फासले पर पांच-छः कमरे बने थे। वह लंबा आदमी उन्‍हीं में से किसी एक में जा घुसा। दूधवाला भी अपनी साइकिल की ओर मुड़ गया। हां जाता-जाता औरत से कह गया, ‘पागल लुगाई, अपने घर का गेला नाप ले अपनी इज्जत प्यारी हो तो। जो हो गया उसे भूल जा, इसी में तेरी भलाई है, वरना जानती है ना ये पुलिस वाला है। चुपचाप चली जा, बाकी तेरी मर्जी।‘ उसके जाने के साथ ही पेड़ों से कुछ परिंदे उड़े और हवा में चक्‍कर लगाने लगे, जैसे कि जायजा ले रहे हों कि हवा कितनी खतरनाक है।

 पंछियों के कलरव से पेड़ों की पत्तियों पर जमी ओस की बूंदें आंसुओं की तरह इकट्ठा हुईं और धरती के बदन पर टपकने लगीं। औरत के गाल फिर गीले हो गये। वह अपने जख्मों पर अंगुलियों के पोर घुमाती अपने घर की ओर बढ़ने लगी। ठीक ही कह गया है दूधवाला। मोहल्ले के लोग सचमुच जमा हो जाते तो क्या इज्जत रह जाती उसकी। रुपये दे दिये होते नास पीटे ने तो आज छोरे को किसी डाक्टर को दिखा आती। जाने किस बवंडर मे फंसी कि उसे पता ही नहीं चला, कब गली पार कर ली। अब वह अपने कमरे के बाहर थी। भीतर से छोरे के रोने की आवाज आ रही थी। कूं...कूं...कूं... जैसे लगातार रोने के बाद थक गया हो और कोई दिलासा देने वाला नहीं हो तो बच्‍चा अपने आप मद्धिम आवाज़ में रोने लगता है। औरत ने बच्‍चे की दर्द भरी रुलाई सुनी, उसका कलेजा मुंह को आ रहा था। उसने जल्दबाजी में कमर में खसोली चाबी निकालनी चाही। दायें हाथ से कमर को टटोला तो चाबी नदारद। जरूर चाबी वहीं गिर गई होगी। अंदर रोते बेटे और उसके बीच की दीवार, दरवाजा और ताला उसकी मजबूरी पर बेबाक मुंह फाड़े जैसे हंस रहे थे। खिडकी से झांक कर देख लेना चाहा पर यह तो उसकी मूर्खता ही थी। उसे इतना भी याद नहीं रहा कि जाते वक्त वह भीतर अपने हाथों से ही सिटकनी चढा गई थी। बच्चे की आवाज धीमी-धीमी सुनाई पड़ रही थी। लगता है काफी देर से रो रहा था, तभी रोना धीमा पड गया है। थक गया है अब चुप हो जायेगा। वह फिर से पलटी, जहां से लौटी वहीं जाने के लिए। ओह! पांव भी दगा दे रहे थे। मानो आगे बढ़ना ही नहीं चाहते हों। जरूर पांव भी औरत की बेबसी का मजाक उड़ा रहे थे। लंबे और भारी पैरों को उठाने की अब उसमें जैसे ताकत ही न रही हो। मुश्किल समय में आपकी सबसे बड़ी ताकत भी कमज़ोर पड़ने लगती है।

 सुबह की जाग होने के साथ ही गली में चहल-पहल शुरू हो गई थी। अखबार वाले, आटो वाले, सुबह की सैर को आते-जाते लोग। अब नहीं रुकेगी वह। धीरे-धीरे डग भरती वह आगे बढ़ने लगी। इतना धीरे तो वह अपनी शादी में फेरों के समय भी नहीं चली थी। लम्बाई के अनुसार टांगें भी लंबी-लंबी। दादी ने उसे पहले ही समझा दिया था कि फेरों में अपने पग धीरे-धीरे उठाना। खास तौर पर ऊंट-सी लम्बी गाबड़ को झुका कर चलना। दादी को तो उसने हां कह दिया अलबत्ता वह ऐसा नहीं कर पाई। कसूर उसी का था कि लम्बी गर्दन का, जिसे वह ज्यादा देर तक झुकाकर नहीं रख पाई और न ही चाल धीमी रख पाई। किसी ने कहा, छोरी मण्डप में भी भागी जा रही है। औरतें खुसर-पुसर करती कह रही थीं कि छोरी को ब्याह की बड़ी  उतावली मची है, दौड़-दौड़ कर फेरे ले रही है। शादी की सारी रस्में पूरी होने के बाद जब वह दादी से आशीष लेने गई तो खूब फटकार सुननी पड़ी। पति संग था सो वह कुछ नहीं बोली, बस बुत बनी सुनती रही, पर ज्यादा देर नहीं सुन पाई और उसकी रुलाई फूट ही पड़ी। आवाज पर काबू कर काफी देर सिसकती रही। दादी ने चुप कराया और चुक.....चुक करती दादी उसके भीगे गालों को चूमने लगी। साथ ही यह भी कहती जा रही थी कि अरे तेरा कसूर नहीं री, रो मत बावळी, यह टांगड़े हैं ही ऐसे कि बिरेक फैल मोटर की नांईं रुकने का नाम ही नहीं लेते। वह हंस पड़ी। खैर, अब न तो दादी रही न ही वह वक्त। सोचते-सोचते वह चली जा रही थी। अपनी लंबी टांगों को भारी वज़नी पत्थरों की तरह ढोते हुए। उसकी सोच में अतीत, वर्तमान और भविष्‍य जैसे एक साथ गड्डमड्ड हो रहा था। 

 अतीत की यादों से निकल कर वह उसी लम्बे आदमी के कमरे के आस-पास नज़रें दौड़ाने लगी। यहां अभी-भी सन्नाटा पसरा हुआ था। पंछियों का कलरव जैसे उसी के दर्द के गीत गा रहा था। उसे याद आया, यहीं तो वह उलझी थी उससे। मिट्टी, घास और खरपतवार के बीच लाल रंग के प्‍लास्‍टिक के लच्छे में बंधी चाबी महफूज पड़ी थी। झुककर उसने चाबी उठाई और चल पड़ी। उसका बदन बुरी तरह टूट रहा था और सिर चकरघिन्‍नी-सा घूम रहा था। वह ताबड़तोड़ हांफती-भागती कमरे तक पहुंची। कोठरी का ताला खोला और दरवाजा उढ़का कर बच्‍चे के पास गई।

 बच्चे का बदन ताव से तप रहा था। वह फिर से रोकर सो चुका था। उसके बन्द नाक से सीटियां बराबर बज रही थीं। आंसुओं से कान के कोकरवां भर चुके थे। औरत ने आहिस्ता से बच्चे के माथे को चूमा। बच्चे के शरीर में पल भर के लिए हरकत हुई। उसकी अधखुली आंखों को पलकों ने अब पूरी तरह ढक लिया था। सांसों की रफ्तार में अब कुछ कमी हुई। स्यात उसे मां के करीब होने का अहसास हुआ। बच्चे के पास उकडूं बैठी औरत का सिर मारे दर्द से फट जाना चाह रहा था। बच्चे को बचाने के लिये उसने अपनी इज्जत तक का सौदा कर डाला। वह धरती में धंस जाना चाहती थी, पर न तो धरती फटी उसके खातिर और न वह छिपा पाई खुद को। उसे लगा जैसे कमरे के भीतर आवाजें गूंजने लगी हैं...अपराधी औरत! अपराधी औरत! यह तूने क्‍या किया।

 उसे ऐसा लग रहा था मानो दीवारें चिल्ला-चिल्ला कर समय को नहीं, उसे ही दोषी बता रही थीं। वह चीख पड़ी, ‘हां हूं मैं अपराधी। किया है मैंने अपराध।‘ और वह दीवारों से लड़ने लगी। इस दौरान बच्चा उठ कर बैठ गया। न रोया न चिल्लाया। आपा खोई औरत की निगाह बच्चे पर पड़ी। कुछ क्षण के लिये मानो वह सब कुछ भूल गई। बेटे को गोद में उठा कर छाती से चिपका लिया। नन्हा मासूम बच्चा टुकुर-टुकुर मां को देख-भर रहा था। ‘मेरा बच्चा! मेरा लाल!’ वह उसे पागलों की तरह चूमने लगी। तभी बाहर से किसी ने दरवाजा ठोका, ठक...ठक ठक...ठक...। हांफते-कांपते दरवाजा खोला उसने तो सामने सफेद लिबास में मनीषा खड़ी थी। नर्सिंग का कोर्स कर रही थी मनीषा और उसी बंगले में किराए से रह रही थी।

 ‘‘दीदी, मनु की तबियत कैसी है अब?’’ औरत ने कोई उत्तर नहीं दिया। मनीषा ने मनु के माथे को छुआ। ‘ओह माई गॉड! बुखार तो अभी भी है। आज कुछ भी करके इसे हॉस्पिटल जरूर दिखा आना। मेरे प्रेक्टिकल नहीं होते तो मैं ही साथ ले चलती। मैं निकलती हूं।‘  कह कर उसने मनु की और फ्लाइंग किस उछाला और फुर्र हो गई। औरत दहलीज पर खड़ी थी, न भीतर न बाहर। बाहर चौक  में बाल्टियां बज रही थीं। बरामदे में बर्तनों की उठा पटक भी बराबर चल रही थी। किरायेदारों की हांका हूक लगी थी। कोई बाथरूम में पहले घुसना चाहता था तो कोई नल पर अपना नम्बर पहले लगाने को उतावला था। औरत ने अपनी कोठरी का दरवाज़ा बंद कर दिया और चुपचाप भीतर आ गई।

 उसके मगज में कई सवाल उठ रहे थे। उसने खुद को आईने में देखा। क्या वाकई वह इतनी बदसूरत है, जिसके चलते पति ने उसे दर-दर भटकने को विवश कर छोड़ा। इन सवालों के जवाब उसके पास भी नहीं थे। उसने बच्चे की ओर देखा। बच्चा हूबहू अपने बाप की शक्ल लिये था। हां, बिल्‍कुल उसके पति जगदेव जैसी भूरी-भूरी आंखें, गोल-मटोल चेहरा, चौड़ा ललाट। इससे अधिक क्या कहे, अभी तो बच्चा है, महज मिट्टी का लौंदा। अन्य किरायेदारों की तरह वह भी इस बंगले में अपने बच्चे के साथ रह रही थी।

 उसका पति जगदेव और वह दो साल से यहां रह रहे थे। यूं तो उनकी गृहस्थी ठीक से चल रही थी। लेकिन मनु के पेट में आने के दिनों में ही जगदेव का  तौर-तरीका बदल गया था। और एक दिन वह उसे छोड़कर किसी दूसरी लुगाई संग भाग गया। बंगले में औरतें बातें करती कहतीं, छोरियों को भागते सुना, औरतों को भी जाते देखा, पर आदमी को भागते पहली बार देखा-सुना। जगदेव जब घर छोड़ गया तो उस वक्त पांच माह का गर्भ था उसे। पति के मन में क्या था, वह नहीं जान पाई। एक दिन जब वह गांव का नाम लेकर निकला तो कई दिन तक नहीं लौटा। न उसका कोई समाचार ही आया। अपने आदमी की तलाश में एक दिन वह गांव भी हो आई, जहां उसे खबर मिली कि वह तो उसके साथ शहर जाने के बाद कभी गांव की तरफ आया ही नहीं। थक-हार कर वह वापस आ गई। अगले दिन वहां गई, जहां जगदेव हम्‍माली का काम करता था। वहां पता चला कि ठेकेदार की विधवा भाभी और जगदेव दोनों ही भाग गए हैं। वहां काम करने वाले लोग उसी को ताने देने लगे तो वह अपनी किस्‍मत को रोती वापस कमरे पर आ गई।

 नवें महीने उसकी मां जापा कराने खुद शहर आ गई। रिवाज के अनुसार बेटी का पहला जापा पीहर में ही होता है, पर जंवाई के चर्चे कहीं गांव वालों और रिश्‍तेदारों को मालूम न पड़ जायें, इस कारण मां उसे पीहर ले जाना ही नहीं चाहती थी। पिछले दो सालों में उसके दोनों बेटों की गांव में बड़ी अच्छी इज्जत हो गई थी, जो कहीं जंवाई के कारनामों से धूमिल न हो जाये। पंचायत चुनावों में आरक्षण से बड़ा बेटा किस्‍मत से सरपंच जो हो गया था और छोटे वाला मजदूर से एकदम ठेकेदार हो गया था। यूं जगदेव के भागने की ख़बर तो सबको लग ही चुकी थी, पर मां समेत सब पीहर वालों को लगता था कि बेटी के वापस पीहर आ जाने पर मुश्किल से मिली इज्‍ज़त भी धूल में मिल जाएगी। ख़ैर उसकी मां गांव से घी, गुड़, अजवायन और कुछ रुपये बांध मां शहर आ गई। मनु के जन्म से तीन माह तक मां शहर ही रही। बाद में कभी-कभार आती रही।

 उसकी मां अगर चाहती तो लड़-झगड़ कर भी बेटी को अपने घर रख सकती थी। लेकिन उसे तो बेटी से अधिक बेटों की फिक्र थी। कभी कभार आती और कुछ रुपये पकड़ा जाती। और बेटी को समझाती कि आज नहीं तो कल जंवाई को अक्ल आ ही जायेगी। छोरे की जिन्दगी का सवाल है, लड़ना न सही जीना तो पड़ेगा ही तुझे। जिन्दगी को यहीं तोड़ दे या कोई मोड़ दे। बहुत सोच-विचार के बाद उसे लगा शायद मां ठीक ही कह रही है। मां महीने भर से आती, कुछ रुपये पकड़ा जाती। मां ने ही बताया था कि उसके शहर आने को लेकर अब बहुएं भी खुसर-पुसर करने लगी थीं, जिसके चलते अब उसका आना लगभग बन्द-सा हो गया था। महीने दो महीने से मिलने वाले तुड़े-मुडे़ नोट भी अब बन्द हो चुके थे। अन्तिम बार मां आई थी तब कह गई कि तू गांव न आना बेटी, तुझे कोई काम हो तो बंसी की दुकान पर फोन कर देना। देख तू समझ रही है न? मैं क्या कहना चाह रही हूं।

 ‘हां मां हां! मैं सब समझ रही हूं। तेरे बहू-बेटों को तकलीफ न हो मेरे कारण यही न?’ दांत भिंच गये थे उसके यह कहते-कहते। ‘जंवाई गया है घर छोड़कर, तेरी बेटी तो नहीं भागी किसी के साथ... फिर क्यों डरती है तू बिरादरी से?’ लेकिन मां ने कोई उत्तर नहीं दिया।

 वह बहुत पढ़ी-लिखी तो थी नहीं कि कोई काम-धाम कर सके, बस आंक जोड़ना जानती थी और सौ तक का हिसाब कर लेती जैसे-तैसे। लेकिन कुछ भी हो, पेट तो पालना ही था। बूढ़ी मां की लाचारी और पस्‍तहिम्‍मती देखकर, उसने पीहर में कभी पैर न रखने की सौगन्ध खा ली। ससुराल भी कहां बचा था उसका। सास-ससुर कब के मर चुके थे। ले-देकर कुछ रिश्‍तेदार थे, जिनके यहां उसके पति की पनाह थी। घर नाम का जो इक छप्पर था, वह महाजन की बही में बराबर हो गया था। वैसे भी जगदेव था ही क्‍या, निरा खेत मजदूर ही तो। जिस जमीन पर वह खेती में खटता था, वहीं उसकी टापरी थी और सब कुछ महाजन का। शहरों के फैलते सुरसा जैसे मुंह में महाजन ने भी ज़मीन बेच डाली, वरना सरकार कब्‍जा कर लेती। शादी के दो महीने बाद ही उन दोनों को सब कुछ छोड़कर शहर आना पड़ा। जगदेव हम्‍माली करता था और वह कमरे में बैठी उसका इंतज़ार करती।

 पति के भाग जाने के बाद उसने बंगले का कमरा खाली कर एक छोटा-सा स्टोर ले लिया, जिसे घर नहीं कोठरी कहना चाहिए, इसका किराया चार सौ रुपये महीने था। उसके और बच्चे के लिये काफी था वह। उसके स्टोरनुमा घर का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता था और यह पिछवाड़े में था। बंगले के ठीक सामने वाला मकान पटवारी जी का था। पटवारी जी का तो पता नहीं पर हां पटवारि‍न बड़ी दयालु महिला थी और उसकी जिन्दगी से अनभिज्ञ भी तो नहीं थी। बचा हुआ खाने-पीने का सामान और बहुओं की उतरन उसे दे देती। कभी चूडि़यां पहना देती तो चप्पल ला देती। वह भी पटवारि‍न के रोजमर्रा के कामों में हाथ बंटा देती। बच्‍चे की बीमारी में दुख से गलती औरत एक-एक बात सोचती जा रही थी। हठात किसी ने दरवाजा पीटा तो उसकी तंद्रा टूटी। ‘‘कौन?’’उसने सीधा सवाल दागा। ‘‘जीजी, मैं चन्द्रा। नल बन्द होने वाले हैं पानी भर लो।‘’ कहती चन्द्रा चलती बनी। उसकी बजती पायल की छनछनाहट बंद हो चुकी थी।

 औरत ने उठकर मटके से ढक्कन उठाया। देखा आधे से अधिक भरा था। उसने ढक्कन फिर से लगा दिया और पाटे पर पड़े चाय पत्ती के डिब्बे को टटोलने लगी। अकस्मात डिब्बा हाथ से छूटा और जमीन पर जा गिरा। चटाई पर चींटियों की मानिंद चाय पत्ती के दाने बिखर गये। बच्चा उठ न जाये इस डर से आहिस्ता-आहिस्ता चटाई झाड़ी। सुबह का बिछौना तक नहीं समेटा था उसने। सवेरे के बर्तन-बासन तक अभी समेटने बाकी थे। किस्मत को कोसे या पति को या फिर साईत को। सोचकर फिर उसकी आंखों के कोर भींज गये। छोरा निमोनिया में गच था। यदि वक्त पर इलाज नहीं हुआ तो छोरा हाथ से चला जायेगा। मनीषा तीन-चार दिन से लगातार कह रही थी मनु को अस्पताल दिखाने की बात। वह खुद भी किराये से ही रह रही थी। बिन मां की बेटी, दारू खोरा बाप कभी वक्त पर रुपये दे देता तो कभी नहीं भी देता। वह कुछ ट्यूशन करती अपनी गाड़ी चला रही थी। 

 इधर पटवारी जी और पटवारि‍न नासिक चले गये कुम्भ स्नान को। बड़ा बेटा-बहू भी साथ गये थे। छोटी को पीछे छोड़ गये घर सम्हालने। पर छोटी बहू को तो इन दिनों उसने कभी घर देखा ही नहीं। जरूर पीहर खिसक गई होगी। पटवारि‍न अभी होती तो यह नौबत ही न आती। तभी उसे अपनी एक सखी का खयाल आया। दो मोहल्ले छोड़कर घर था। उसे जाकर अपनी व्यथा सुनाई। सखी का अपना छोटा-सा किराना स्टोर था, जहां वह अक्‍सर सामान लेने जाती थी। उसका पति हलवाई का काम करता था। कुल मिलाकर ठीक-ठाक इनकम हो ही जाती थी। पर यहां भी औरत के नसीब ने साथ नहीं दिया। हुआ यों कि कुछ ही देर पहले उसका पति बिजली का बिल जमा कराने निकला तो रुपये निकाल ले गया दराज से। फिर भी दराज खींच कर देखा, दस-बीस के कुछ नोट और सिक्के थे। जोड़कर देखा कुल पिचहतर रुपये। सखी ने सकुचाते हुए दिये और कहने लगी यदि कुछ देर पहले आती तो तुझे निराश नहीं करती। एक काम कर कल सुबह आ, मैं कुछ करती हूं।

 वहीं दुकान पर खड़ा लम्बे कद का एक आदमी यह सब ग़ौर से देख-सुन रहा था। वह वहां से हिली ही थी कि उस आदमी ने आगे चलकर थोड़ी दूर एक सुन्न गली में उसका रास्ता रोका और बोला सुबह अंधेरा छंटने से पहले आना मेरे पास और ले जाना रुपये। औरत ने कोई जवाब नहीं दिया और नज़रें झुका लीं। आदमी ने उसे घूरते हुये कहा, इतना न सोच, बच्चे की जिन्दगी का सवाल है। औरत को मूरत बनी देख आदमी ने चलने के लिए पैर उठाया, हठात वह बोल पड़ी,  ‘ठहरो, ठीक है मैं आ जाऊंगी। कहां है तुम्हारा घर?’ सिर के बालों पर हाथ घुमाते वह बोला तुम्हारी ही गली के आखिर  में, कोने के उजाड़ मैदान में पांचवें नम्बर का आखिरी कमरा। पांच सौ रुपये में उन दोनों का सौदा तय हुआ। बेटा ही तो उसकी दुनिया था। अपने जीते-जी वह कैसे मर जाने देती उसे। उसके पास और कोई रास्ता ही नहीं बचा था अब।...

 घर जाकर बेटे को देखा, वह रोकर सो गया था। उसने अपने डिब्‍बे टटोले तो लौंग और कुछ चीज़ें मिल गईं, जिनसे उसने चाय का काढ़ा-सा बनाया और बेटे को चम्मच से पिला दिया। जैसे-तैसे दो-चार कौर ठूंसकर वह बच्‍चे को लिए लेट गई। बच्‍चे का बदन तप रहा था। औरत को रोना आ रहा था। कैसे उसने उस आदमी की बात मान ली... इतना नीचे कैसे गिर गई? क्‍या वह सुबह मुंह-अंधेरे उठकर जाएगी उस आदमी के पास? लेकिन बच्‍चे का तपता बदन उसे इज्‍ज़त जैसे सवालों से बहुत दूर लिए जा रहा था। उसने सोचा, इसमें आखिर है ही क्‍या... उस आदमी की आग ही तो ठंडी करनी है। जगदेव भी तो कई बार दारू पीकर यही करके पसर जाता था। प्रेम जैसी कोई चीज़ तो उनके बीच थी भी कहां। घर वालों ने बांध दिया तो बंध गए, जैसे पालतू जानवर लाकर खूंटे से बांध देते हैं। खूंटे बंधे जानवर से भी लगाव हो ही जाता है, उतना ही शायद जगदेव और उसमें रहा होगा, वरना जगदेव क्‍यों भागता उस विधवा के साथ? लोगों से ही उसे मालूम हुआ कि वो रांड अपने साथ लाखों के जेवर-गहने और लाखों रुपये भी ले भागी। उसके आदमी ने पैसे वाली औरत के लालच में बसी-बसाई गृहस्थी खाक कर दी और होने वाली संतान तक का ख़याल नहीं किया। अब क्‍या वह पांच सौ रुपये के लिए बच्‍चे को मर जाने देगी... नहीं... नहीं... उसने तय कर लिया और सो गई। रात में बच्‍चा कई बार रोया, उसने जैसे-तैसे लाड करके उसे चुप कराया और सुबह कोठरी के ताला जड़ चल दी। 

 छोरे की हालत देखकर उसका शरीर पसीने से तरबतर हो गया। धोकनी की मानिंद उसकी सांसें चलने लगीं। वह उठी कलसे से पानी का लोटा भरा और गल़़...गल...गल करती पानी गले में उडेलने लगी। बचा-खुचा पानी बदन पर डाल लिया। फिर बच्चे के करीब आकर उसका माथा छुआ। औरत के मुंह से चीख निकल गई। बच्चा निढाल पड़ा था। हां, बच्चे की सांसें अब थम चुकी थीं। बच्चे के खातिर तो उसने अपनी आबरू तक का सौदा कर डाला... और बच्चा! बच्चा ही छोड़ गया उसे। उसका धन और धरम दोनों ही नष्ट हो चुके थे। वह जोर-जोर से बिलखने लगी। उसके रुदन में मनु का नाम था तो अपनी मां के लिए पुकार थी। अपने इकलौते नन्हे बच्‍चे की मृत्‍यु पर एक स्त्री के चीत्कार में मिलने वाले सारे पश्चाताप और उद्गार उसकी चीखों में गूंज रहे थे। इस कोहराम को सुनकर बंगले के सभी किरायेदार कमरे के बाहर आकर इकट्ठे होने लगे थे। कोई दरवाजा पीट रहा था तो कोई दरवाजा खोलने की गुहार करने लगा। बहुत देर तक वह हाय-हाय विलाप करती रही, फिर दरवाजा खोल कर एक-एक को कहने लगी।

‘देखो मनु बोल नहीं रहा।... चन्द्रा देख न, रो भी नहीं रहा।... क्‍या हुआ मेरे लाल को... अरे देखो तो सही।‘

सभी सहानुभूति प्रकट करने लगे। तभी मैना भी आ गई। भीड़ को देख वह सारा माजरा समझ गई। उसने जैसे-तैसे संभाला औरत को। एक प्रौढ़ व्यक्ति ने कहा, ‘अब तू मर खप जाये तो भी छोरा वापिस आने से तो रहा। समझदारी इसी में है कि अब इसे दफनाने का इन्तजाम करो।’’

 रोती हुई औरत अकस्मात चुप हो गई, एकदम चुप। कहने वाला ठीक ही तो कह रहा था।  अंधेरा होने से पहले बच्‍चे को दफनाना पड़ेगा। उसने खुद को संभाला। पूरा बंगला किरायेदारों के सुपुर्द ही था। बंगले का मालिक दूसरे मकान में रहता था, जो कभी-कभार किराया वसूलने या कोई टूट-फूट देखने आ जाया करता था। औरत के पास इकट्ठा सभी लोग किरायेदार ही थे। कोई काम-धन्धे के लिये बसा था तो कोई पढ़ने के लिये आया था। एक औरत बोली कि एक काम करो मनु की मां, वक्त रहते गांव की गाड़ी पकड़ लो, ताकि समय रहते गांव पहुंच जाओ। सब लोगों ने यही सलाह दी। सब चाहते थे कि यह काम जितनी जल्‍दी हो जाए ठीक है, वरना सबके काम-धंधे की खोटी होगी। इस विचार को गति मिलते ही लोग छिटकने लगे।

 जब मां आखिरी बार आई थी तो बंसी बनिये के नम्बर दे गई थी। औरत को याद आया। अलबत्ता नम्बर है कहां, उसे याद नहीं आ रहा था? उसने दिमाग पर जोर डाला। फिर उठी और टाण्‍ड पर रखा लोहे के जंग खाये एक सन्दूक को उतार कर उसमें खोजने लगी। सन्दूक के सारे कपडे उथल-पुथल कर डाले। कहीं कोई कागज नहीं मिला। अब... अब क्या करे? उसकी जैसे खुद की ही सांस भी टूटती जा रही थी। आखिरी आस की चि‍नीक-सी लीर भी जैसे बच्‍चे के साथ ही संदूक छोड़कर कहीं हवा में गुम गई थी। तभी चन्द्रा बोली, ‘अरे देख, कहीं पेटी की जेब में तो नहीं रख छोड़ा तूने वो कागज?’ पेटी की जेब यानी सन्दूक के ढक्कन के पास लगा लोहे का एक खांचा। औरत ने एक ही झपटे में सन्दूक उल्टा पटका। छोरे के जनम के बाद अस्‍पताल की पर्चियों और टीका करण के कागजों को उसने ज़मीन पर फैला दिया। इन्‍हीं कागजों के साथ एक मुड़ा-मुसा कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा भी बाहर आ गिरा। बाल पैन की लिखावट जैसे अपनी उमर और बेकदरी के कारण फैल गई थी, जहां आडे-टेढ़े अक्षरों में कुछ लिखा था। औरत ने आंखें चौड़ी करके कहा, ‘हां यही है, यही है बंसी के नम्बर।‘

 बीसेक बरस के एक युवक ने अपनी जेब से नोकिया का एक हल्का-फुल्का फोन निकाला और स्पीकर ऑन करके पर्ची से देखकर नम्बर दबाने लगा। एक ही बार में औरत की आस के दूसरे छोर पर ट्रिन-ट्रिन बज उठी। युवक ने औरत को फोन पकड़ाते हुए कहा, ‘लो बात करो।‘ उधर से हलो की एक लंबी खरखराती हुई आवाज़ आई तो औरत घबराई-सी हांफती-कांपती बोली, ‘हां...हां....बंसी दा! मैं...मैं....बोल  रही हूं गजू की बेन वरजू।’

‘हां...हां...बोल वरजू, कांई बात?’

‘बंसी दा मां से बात करा दे।‘ वह रोती हुए पुकारने लगी, ‘मेरा मनु... मेरा मनु।‘ लेकिन बाणिये ने आगे की बात सुने बिना ही किसी लड़के को आदेश देकर दौड़ा दिया गजू के घर। फोन पर ग्राहकों की बातचीत सुनाई देने लगी तो नोकिया फोन के मालिक नौजवान ने औरत के हाथ से फोन लेकर स्पीकर बंद कर वापस दे दिया। उधर बुढ़ापे की नसैणी चढ़ती उसकी मां दोनों हाथों से घाघरा संभालती हांफती हुई-सी बंसी की दुकान पर आकर रुकी। यहां आकर उसने एक लम्बी सांस खींची और चोगा उठाया, मानो घर और दुकान की दूरी नापते वक्त उसने सांस ली ही नहीं। बनिया सामान तौलता जा रहा और आश्चर्य से उसे देखता जा रहा था।

 इधर औरत लगातार रोती जा रही थी, उधर मां बोल रही थी, ‘‘कइयां है बेटी?... बोल तो सई।‘ रोती हुई औरत एक हाथ में फोन पकड़े आंसू पोंछ रही थी, उधर सामने से कोई आवाज नहीं सुन मां ने बणिये को झिड़का, ‘क्यों रे, कोई बोलै क्‍यूं नईं।‘ बंसी ने उसके हाथ से चोगा लिया और बोला, ‘हैलो ....हैलो।‘ पल भर का सन्नाटा, इधर आंसू पोंछती औरत को सबने फोन सुनने को कहा तो वह कान पर फोन लगाकर बोली, ‘बंसी दा! मां... मां!’ बंसी ने फिर फोन उसकी मां को पकड़ा दिया, ‘हां बेटा वरजू, बोल कांई बात है?’

‘मां... मां... मनु चला गया। सब कुछ खतम हो गया।‘

‘क्‍या... ये कांई बोली बेटा तू।‘

उसकी मां को बनिये की दुकान घूमती नजर आने लगी। आवाज अटक गई। सामने से फिर आवाज आई, ‘मां छोरे को किरिया-करम के लिए गांव ला रही हूं।’

‘बावली हो गई है? लोग क्‍या कहेंगे? कहां का जाया कहां दफनाया। नहीं ये अपने गांव का रिवाज नहीं। तू अपने सासरे चली जा। कोई कुछ नहीं कहेगा। छोरे का हक है वहां पर। या फिर वहीं सैहर में ही कुछ  कर।‘ कहकर मां ने फोन रख छोड़ा।

 इधर औरत के हाथ-पैर सुन्न। अब क्या करे वह। वह जोरों से रोने लगी और छोरे के बाप को गालियां देने लगी। फोन उसने वापस कर दिया। उसकी गालियों भरी रुलाई के बीच ही किसी ने पूछा, ‘गांव से गाड़ी लेकर आ रहे हैं या यहीं से व्यवस्था करनी पड़ेगी?’ औरत कुछ देर चुपचाप। फिर जाने क्या फैसला कर बोली,  ‘हां आ रही है गांव से गाड़ी।‘ उसके बाद बेटे की देह को गोद में लिये रोती रही। कुछ समय तक तो औरतें और इक्के-दुक्के आदमी उसके पास बैठे रहे, सांत्वना देते रहे। सब लोगों के काम पर जाने का बखत हो रहा था। एक-एक कर भीड़ छंटती चली गई। चन्द्रा कहने लगी, ‘आते ही होंगे आपके भाई। रास्ता थोड़ा लम्बा है। हिम्मत से काम लो।‘ और आंखों मे आंसू लिये वह भी चल दी। उसे भी  अपने बच्चे की चिन्ता होने लगी थी। छोरी के भरोसे छोड़ आई थी, कहीं गिर-पड़ गया तो।

 औरत के पास अब सिर्फ मैना बची थी। वह भी थोड़ी देर तो उसके पास बैठी रही। उसी ने छोरे को लेकर एक कोने में तौलिए पर लिटाया और उस पर चादर डाल दी। पूजा वाले ताक में पड़ा एक दीया उठाया और लड़के के सिरहाने जला दिया। फिर थोड़ी देर में किसी बहाने से चल दी। और अब वह निपट अकेली रह गई। बंगले की खटर-पटर में लोगों के घर से निकल अपने-अपने धंधे पर जाने की आवाज़ें बढ़ती जा रही थीं। वह जानती थी, दस बजते-बजते पूरा बंगला ही रोज़ की तरह खाली हो जाएगा। चंद्रा भी बच्‍चों को लेकर निकल जाएगी काम पर। फिर वह बचेगी अकेली। अब तक उसके पास जीने का ले-देकर एक बच्‍चे का सहारा था। आज वह भी छूट गया। उसे अपना जीवन ही निरर्थक लगने लगा। लोग-बाग अपने धंधे पर जाने से पहले उसे दिलासा देकर कहते जाते कि चिंता मत कर, जो हुआ सो हुआ, अब तो इसे मिट्टी को ही देना है। आते ही होंगे तेरे गांव से लोग।

 धीरे-धीरे यह सिलसिला भी बंद हो गया। अब पूरे बंगले में अपने छोटे-से स्‍टोर नुमा कमरे में बस वही बची रह गई और बची रह गई उसके अपने ही बच्‍चे की लाश। अब औरत की रुलाई भी बंद हो गई थी। वह तो जानती थी कि कोई कहीं से नहीं आने वाला, लेकिन क्‍या करे... क्‍या नहीं करे के असमंजस में बुत बनी बैठी रही। बंगले के मजदूरों से बच्‍चे की मौत की ख़बर सुनकर किराने के दुकान वाली सहेली भी आई और दिलासा देकर चली गई। दोपहर हो गई और कब सूरज आधे दिन का फेरा लगा कर चलते हुए हांफने लगा, उसे ख़बर ही नहीं लगी। एक बार पेशाब की हाजत होने पर वह उठकर चौक की तरफ़ गई तो देखा कि शाम ढलने का बखत हो चला था। अब तक तो मनीषा को आ ही जाना चाहिए था। लेकिन उसकी परीक्षा चल रही हैं। उसने खिड़की की झिरी से देखा तो शाम गहराने लगी थी। अब तो मनीषा के आने में समय कम ही रह गया था।

 वह छोरे की लाश के पास बैठी अपने भाग को कोस रही थी। उसमें क्‍या कमी रह गई थी, जो खसम छोड़ भागा। वह अपने सामने पड़े पहाड़-से जीवन और भविष्‍य को लेकर सोचने लगी। अब उसका गुजारा कैसे होगा। बच्‍चे की लाश तो जैसे भी हो ठिकाने लग जाएगी, लेकिन वह खुद अब कहां जाएगी, कैसे रहेगी? पीहर तो अब जा नहीं सकती और न ही ससुराल। आखिरी बार वह भैया दूज पर पीहर गई थी तब जगदेव उसके साथ ही था। सरपंच और ठेकेदार भाई का तो रौब ही अलग था और भाभियों का तो कहना ही क्‍या। पीहर के दिन क्‍या फिरे, बहन भी नज़रों से उतर गई। और उसके बाद वह न तो राखी पर और न ही भाई दूज पर पीहर गई।

 पति के रहते एकाध बार ससुराल से कोई रिश्‍तेदार ज़रूर आ जाता था, पर अब तो वो सब भी बंद हो गया। कहीं आस की कोई किरण नहीं दिख रही थी। वह एक-एक कर याद करने लगी कि इस बखत कौन उसे सहारा दे सकता है। उसकी शादी में जगदेव का दूर के रिश्‍तेदार भाई किसी शहर से आया था। वहां कोई बड़ा अफसर हो गया था और पास के ही शहर में नौकरी करता था। उसके दादाजी बरसों पहले गांव छोड़ कर रेलवे में किसी की सिफारिश पर नौकरी में लग गए थे और दिल्‍ली में रहने लग गए थे। वह नौकरी में आने के बाद पहली बार अपने मूल गांव के पास आया तो गांव देखने की इच्‍छा से चला आया था सरकारी जीप लेकर। वे दिन, जगदेव की शादी के दिन थे। गोविंद, नाम याद आ गया उसे। गांव से वापस जाते हुए उसने जगदेव से और उससे कहा था कि कभी कोई ज़रूरत हो तो उसके पास चले आना। वह कोई कार्ड भी देकर गया था। औरत ने पास में पड़ा संदूक नज़दीक खिसकाया और उसमें गोविंद को हेरने लगी।

 इसी तरह अतीत की यादों और भविष्‍य की चिंताओं में वह घुली गोविंद को खोज रही थी कि मनीषा के आने की आहट हुई। उढ़का हुआ दरवाज़ा ठेलकर मनीषा आई और पूछने लगी, ‘क्‍या हुआ.. और छोरे के सिर के पास जलता दीया देखकर सब समझ गई। उसकी रुलाई फूटती उससे पहले ही औरत खुद को सम्भालती हुई मनीषा से कहने लगी, ‘मनु चला गया... अब इसे मिट्टी देने के लिए भी कोई नहीं... मेरे पीहर से भी अब कोई नहीं आने वाला...।‘

‘क्या मतलब?’ मनीषा ने आंखें चौड़ी करते हुए पूछा।

औरत ने दरवाजे की ओर इशारा किया। मनीषा ने बिना कोई सवाल किये दरवाजा बंद कर सिटकनी चढा़ दी।

‘मनीषा! मेरे पीहर वालों की बड़ी इज्जत है री गांव में। मेरे खातिर उनकी इज्जत ख़राब हो जाती अगर वो मुझे आसरा दे देते तो। आज इस घड़ी में भी मेरी मां ने साफ़ इनकार कर दिया। मनु के बाप का अता-पता नहीं है, जिसके चलते बिरादरी में कई बातें होंगी। कई सवाल उठेंगे। इसी बदनामी से डर गई है मेरी मां। पर मनु की मां जिन्दा है ।‘ कहती वह एक फीकी हंसी हंस दी।

‘तुम अकेली क्या करोगी दीदी? इतने बडे शहर में जहां पांव धरने की जगह नहीं।‘

‘तू मेरा साथ दे दे मनीषा। देख मनु के खातिर ना मत कहना।‘

‘हां जीजी, तुम बोलो तो सही मुझे क्या करना है?’

‘‘तुम बाहर से ताला लगाकर अपने कमरे में चली जाओ। कोई पूछे तो कह देना गांव ले गये मनु को। किसी को ख़बर न लगने देना कि मैं कमरे में ही हूं।‘ आले में पड़े पिचहतर रुपये उसे देते हुए बोली, ‘ले इनसे आठ-दस किलो नमक खरीद कर लेते आना। बंगले में अभी सब लोग अपने काम-धंधे पर जा चुके हैं। तुम जल्‍दी से जाना और किसी के लौटने से पहले ही चुपचाप वापस आ जाना। जा इतना काम कर दे।‘

 मनीषा समेटे हुये दस-बीस के दो नोट और सिक्के मुट्ठी मे बंद कर आंसू गिराती  दरवाजे पर ताला ठोक चली गई। औरत के कमरे का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता था। कोने पर बना यह छोटा-सा कमरा लम्बे समय से अनाज की कोठियां, अनचाहे बर्तनों से भरा था। कई महीनों से वह भीतर वाला कमरा खाली कर इसी में रह रही थी । लगभग सारा सामान हटा दिया गया था, अलबत्ता कुछ सामान अभी भी पड़ा था बंद बोरों में। उसे याद है छत पर नया गुसल घर बना था कुछ ही महीने पहले। तब मजदूर गेंती और फावड़े यहीं से निकालकर ले गये थे। वह उठी, छोरे के सिरहाने जलते दीपक की बाती को आगे बढ़ाया। फिर बोरों को खोल कर देखने लगी। पर यह तो कुछ और ही सामान था। छत पर भी पर भी तो है एक स्टोर। जरूर वहीं पटके होंगे। अब उसे इन्तज़ार था अंधियारा गहराने का। चुप-चुप, रोते-बिलखते यादों की जुगाली करते हुए समय बीतता गया।

 बंगले में अब लोगों के आने का समय हो चला था। सब अपने काम-धंधों से थक कर लौटे थे। उसके स्‍टोर पर ताला देख सब चले गए। खाना पकाने के बाद जल्‍दी ही बंगले में फिर से दिन की तरह चारों ओर सन्नाटा पसर गया था। सड़क की आवाजाही भी लगभग बंद हो चुकी थी। बंगले में कहीं-कहीं चलते टी.वी. की आवाज आ रही थी। पर जल्दी ही यह भी बंद हो गई। जब हर ओर किसी के जागने की कोई आस नहीं बची तो कुछ देर में मनीषा दबे पांव आ गई। उसके हाथ में एक टॉवेल में लिपटा कुछ सामान था, जिसे उसने जमीन पर रखा और अन्दर से दरवाजा बन्द कर दिया। मनीषा के मोबाइल की घड़ी ग्यारह बजा चुकी थी। आधे घण्टे तो वह औरत के पास बैठी रही। पर औरत को जैसे उसके आने का कुछ भान ही नहीं था। मनीषा ने उसका कंधा दबाया। ‘हां... हूं।‘ मानो वह नींद से जागी हो।

‘तुम कब आई? अन्दर सब सो गये न?’                 

‘हां सभी कमरों की बत्तियां बंद हो गई हैं। लगता है, सब सो गये हैं।‘

‘तू यहीं बैठ, मैं अभी आई।‘

कह कर वह चौक से होती हुई बंगले के भीतर दाखिल हुई। एक ही सांस मे सीढियां चढ़ छत पर जा पहुंची। दुग्ध-धवल चांदनी बिखरी थी नभ में, लेकिन हवा बहुत जोरों की चल रही थी। जैसे कोई तूफान आने वाला हो। हवा के तेज़ झोंकों के बीच उसे सब कुछ साफ दिखाई दे रहा था। उसने एक कोने में पड़े ढेर सारे सामान में से गेंती उठाई और जितनी तेजी से आई उससे भी दुगुनी गति से चलती हुई सीढियां उतर कर अपने कमरे में आ गई। लेकिन तेज हवा के झोंके अब अंधड़ का रूप लेने लगे थे। उसके दरवाज़े और खिड़कियों के पल्‍ले अंधड़ में बजने लगे थे।

 वह जब नीचे अपनी कोठरी में पहुंची तो उसके हाथ में गेंती देखकर मनीषा को कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। वह सहम कर बोली, ‘दीदी...’

औरत ने पूरी दृढ़ता के साथ कहा, ‘देख अब मेरे पास कोई और रास्‍ता नहीं बचा है। यहां किसी को पता चलेगा तो कितना कुछ और सुनना पड़ेगा... आदमी गया, आखिरी उम्‍मीद मां से थी, वह भी टूट गई। अब मुझे अपना रास्‍ता खुद बनाना है।‘ कह कर उसने अपनी साड़ी सम्हालती और जुट गई। मनीषा कुछ देर उसे अवाक देखती रह गई। 

 

कमरे में पक्का फर्श तो था नहीं, सिर्फ सीमेन्ट का घोल चढा़ था। मनु के सिरहाने टिमटिमाते दीपक की रोशनी में वह गेंती चलाने लगी। सीमेन्ट की पपड़ी हटने की देर थी। फिर ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी। मिट्टी खोद कर उसने गज भर का गड्ढा कर डाला। उसके माथे से पसीना चू रहा था या आंसू बह रहे थे, मनीषा को तूफान में बजते खिड़की-दरवाज़ों के साथ चलती गेंती के शोर और दीये की हलकी रोशनी में कुछ साफ समझ नहीं आया। वह तो बस औरत की चलती गेंती के बीच में बार-बार मिट्टी बाहर निकाल रही थी। थोड़ी ही देर में बड़ा-सा गड्ढा खुद गया था। औरत ने अपने कलेजे के टुकड़े को गड्ढे में लिटा दिया। नमक बिखेरा और टॉवेल ओढ़ा दिया। फिर चार हाथ लग गए वह गड्ढा भरने में। कुछ ही देर में उन्‍होंने जमीन समतल कर दी। मानो कुछ हुआ ही नहीं। बाहर का अंधड़ अब थम चुका था और चारों ओर सून-सन्‍नाटा पसर गया था।

 औरत ने टिमटिमाते दीपक को बुझा डाला। अंधेरे में उसने मनीषा को गले लगाते हुए किसी से कुछ न कहने की सौगन्ध ली। उसे अपने कमरे में भेजा। मनीषा के जाते ही उसने अपनी कोठरी से ज़रूरी सामान इकट्ठा किया और एक थैला भर कर बाहर निकली। बाहर तूफान अब रुक गया था। उसने कमरे के ताला जड़ा और निकल पड़ी। चांदनी रात में उसके सधे कदम किसी अनजान दिशा में बढ़ते जा रहे थे। तेज़ चलते हुए वह गली के आखिर में सुबह वाली जगह पहुंची और गुस्‍से में पुलिस वाले के कमरे की ओर मुंह किये उसने पूरा ज़ोर लगाकर थूका और चल दी। उसकी लंबे टांगें जैसे अपने जाने की कोई दिशा पहले ही तय कर चुकी थीं, जिधर वह बढ़ती जा रही थीं। चांदनी रात और चंद्रमा अंधड़ के बाद उसे कहां ले जा रहे थे, पता नहीं... शायद उसकी अगली नियति की ओर। नियति जो उसने खुद ही तय कर ली थी।


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