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टूटी हुई रिस्टवॉच

टूटी हुई रिस्टवॉच

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टूटी हुई रिस्टवॉच

बिल्डिंग के 14वें माले पर अपने कमरे की बालकनी में खड़ी होकर अर्पिता कब से  डूबते हुए साँझ के सूरज को देख रही थी। दूर समन्दर में अस्त होते हुए सूरज की लालिमा पूरे समन्दर को अपने रंग में रँग गयी थी, ठीक वैसे ही जैसे उसके जीवन को रँग गया था उसकी साँझ का सूरज्।

उसने अपने पास रखी आर्चिस की डायरी और पेन उठाया और वहीं बैठकर उसमें लिखने लगी-

“पता नहीं वरूण कभी-कभी लगता है तुम मेरी ज़िन्दगी में आज भी एक साँझ की तरह हो। जिसमें मैं अस्त होते हुऐ देखती हूँ अपनी साँसों के सूरज को। एक ऐसी साँझ जिसकी सिन्दूरी लालिमा  ढाँक देती है मेरी सभी इच्छाओं को, ठीक वैसे ही जैसे शादी के वक़्त  ढाँक दिया था तुमने थोड़े से सिन्दूर से मेरी पूरी ललाट को।

ऐसी ही कुछ  ख़्वाहिशें मैं आज भी पाले बैठी हूँ।

समन्दर की तरह अनन्त नहीं है मेरी  ख़्वाहिशें, ना ही बेछोर है। बात बस यही है कि ,आदि भी तुम हो मेरी ख़्वाहिशों का और अन्त भी।

तुम्हारी अर्पिता

12/12/2015

 

आखिर में आज की तारीख डालकर अर्पिता ने डायरी बन्द की और  फिर से देखने लगी अस्त होते हुए सूरज को। तब तक ,जब तक की रात का काला अँधेरा नहीं छा गया और घड़ी के पेण्ड्युलम ने 9 नहीं बजा दिये।

बालकनी छोड़, भारी मन से अर्पिता फिर से अपने कमरे में आ गई। उसे लग रहा था की किसी ने ज़ंजीरो से उसके पैर उसी बालकनी से बाँध दिये हो, वो जितना उससे दूर जाना चाहती रात के काले साये फिर कोई नई याद लेकर सामने आ खड़े होते। वो जिये भी तो कैसे?

डायरी और पेन ड्रॉअर में रखते वक़्त उसकी नज़र ड्रॉअर के कोने में रखे एक बॉक्स पर पड़ी, बॉक्स पर एक झीनी सी मिट्टी की परत चढ़ चुकी थी। एक पल को उसका मन घर में काम करने वाली कमला के प्रति गुस्से से भर गया, जिसे काम पर रखने से पहले ही उसने बता दिया था कि, कोई और काम सही से ना करे तो कोई बात नहीं लेकिन इस बॉक्स कि सफ़ाई रोज़ याद से ज़रुर करे। क्यों कि इसी बॉक्स में तो उसकी सबसे क़ीमती चीज़ रखी है। उसने अपने दुपट्टे के पल्लू से उस बॉक्स की मिट्टी की परत साफ़ की और उसे खोल उसमें रखी टूटी हुई रिस्टवॉच को देखने लगी।

यूँ तो सुबह से ही आज की तारीख उसकी यादों पर हथौड़े बरसा रही थी लेकिन इस टूटी हुई  रिस्टवॉच को देखकर तो यूँ लगा जैसे वक़्त इस बन्द पड़ी घड़ी से निकलकर बाहर आना चाहता हो…

आज से ठीक चार साल पहले वो और वरूण शहर के बुक-शॉप पर मिले थे। बाहर दिसम्बर की सर्द हवाऐं अपने चरम पर थी और भीतर किताबें खरीदने वालों की भीड़। अगले कुछ 7 दिनों के लिये सर्दियों की छुट्टियाँ  घोषित हो चुकी थी, इसलिये शायद सभी अपनी छुट्टियों का बन्दोबस्त  करने बुक-शॉप पर किताबें खरीदने आ गये थे।

भैया अमृता प्रीतम की “कायनात से आगे ” किताब देना, अर्पिता ने बुक-शॉप वाले आदमी से कहा।

मुझे भी, पास खड़े एक लड़के की आवाज़ उसके कानों से टकराई।

मुड़कर देखा तो घुँघराले बालों वाला एक लड़का मुस्कुराते हुये उनकी तरफ़ ही आ रहा था।

दुकानदार ने बारी-बारी से दोनों की तरफ़ देखा और कहा- एक ही किताब बची है “कायनात से आगे ” की।

अब एक दूसरे की तरफ़ देखने की बारी अर्पिता और उस लड़के की थी।

ठीक है तो इन्हें दे दीजिए वो किताब, लड़के ने शिष्टाचार से अर्पिता की तरफ़ देखते हुए कहा। और दुकानदार किताब लेने चला गया।

मुझे इतनी ज़रुरी नहीं है वो किताब; चाहे तो आप ले सकते है, अर्पिता ने उस लड़के से कहा।

नहीं मैं तो सिर्फ़ शौकिया पढ़ता हूँ, कहीं पढ़ा था इस किताब के बारे में सो लेने चला आया। लड़के ने दोनों हाथ अपने जैकेट की जेब में डालते हुए कहा।

हम्म! ठीक। अर्पिता ने मुस्कुरा कर कहा और काउंटर से सटकर खड़ी हो गई।

वो अभी अपनी हथेलियों को रगड़ते हुऐ सर्दी दूर करने का जतन कर ही रही थी की दुकानदार किताब ले आया।

कितने रू हुए? अर्पिता ने पूछा।

200 रू, दुकानदार ने किताब पॉलीबैग में रखते हुए कहा।

वैसे आप चाहे तो किताब आपस में साझा कर सकते है, इस तरह से आप दोनों किताब भी पढ़ लेंगे और रुपऐ भी बच जायेंगे। दुकानदार ने कहा और फ़िर से उन दोनों की तरफ़ देखने लगा।

फ़िर आपसी सहमति से दोनों ने किताब साझे तौर पर खरीद ली।

आपका नाम? मोबाइल में कॉन्टेक्ट नम्बर सेव करते वक़्त  अर्पिता ने उस लड़के से पूछा।

वरुण, उसने जवाब दिया।

और इस तरह अर्पिता उस लड़के के फ़ोन नंबर और मन मिर्ज़ा तन साहिबा किताब लेकर अपने घर आ गई।

उसके कुछ दिनों बाद…

किताब वरुण को देने के लिये दोनों कॉफ़ी शॉप पर मिले।

कैसी लगी किताब? कॉफ़ी का घूँट भरते हुए वरूण ने अर्पिता से पूछा।

बहुत अच्छी!! अमृता जी की सारी किताबें यूँ लगती है मानों किसी ने कोरे पन्ने पर पूरी कायनात का इश्क़ ला उडेला हो, किसी पत्थर दिल इंसान को भी इश्क़ करने पर मजबूर कर दे ऐसी किताब है। अर्पिता अपनी ही रौ में कहती जा रही थी।

अच्छा!! वरुण ने कहा।

और नहीं तो क्या… इसी किताब में अमृता जी ने एक जगह कहा है-

साई तू अपनी चिलम से,

थोड़ी-सी आग दे दे…

मैं तेरी अगरबत्ती हूँ,

और तेरी दरगाह पर मुझे

एक घड़ी जलना है…

आज के जमाने में उन्हें पढ़ना इश्क़ को पी जाने जैसा है। कहकर अर्पिता ने अपनी कॉफ़ी का आखिरी सिप पिया और वरुण सिर्फ़ उसे देखता रह गया। किताबें वो भी पढ़ता था लेकिन इस तरह किसी को किताब को जीते हुऐ आज पहली बार देखा था उसने।

दोनों फ़िर से किसी दिन मिलने का वादा करके अपने-अपने घरों को चल दिये।

फ़िर किताब के बारे में बताने के लिये वरुण ने अर्पिता को कॉल किया तो उसके बाद लगातार फ़ोन कॉल और मुलाकातों की संख्या बढ़ती गयी।   

वरुण काफ़ी सुलझा हुआ और शान्त स्वभाव का था। सरकारी नौकरी के लिये प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था और यूँ ही शौक़िया पढ़ने की लत थी उसे।

वहीं अर्पिता किताबें पढ़ने और कविताऐं लिखने के अलावा कोई दूसरा शौक़ कभी पाल ही नहीं पायी थी। आजकल उसकी लिखी कविताऐं ही वरुण की पढ़ने की प्यास बुझाया करती थी। हर शाम दोनों का ढलता हुआ सूरज एक दूसरे के नाम होता और शहर का लवर्स पॉइन्ट दोनों के साथ का गवाह। जब उन्हें लगा कि ज़िन्दगी में उन्हें एक दूसरे से बेहतर साथी और कोई नहीं मिल सकता तो वरुण ने अपने माता-पिता को शादी का रिश्ता लेकर अर्पिता के घर भेज दिया। और अगले दो महिनों में मिस अर्पिता गुप्ता, मिसेज अर्पिता वरुण शर्मा बन गई।

ज़िन्दगी में आया ये बदलाव दोनों को ही खूब भा रहा था। अर्पिता के साथ ने वरुण की ज़िन्दगी में उत्प्रेरक का काम किया। जल्द ही वरुण ने यू पी एस सी की परीक्षा पास कर ली और उसे नौकरी मिल गयी।

ये सब तुम्हारे साथ की वजह से मुमकिन हुआ है, वरुण कहता।

हम दोनों के साथ की वजह से, अर्पिता कहती और मुस्कुरा देती।

जान पहचान के सभी लोग इस बात से आश्वस्त थे की दोनों साथ में एक बेहतरीन ज़िन्दगी बिताऐंगे। ये विश्वास यक़ीन भी बन जाता अगर वो सब नहीं होता जो हुआ।

नौकरी में ट्रांसफर की वजह से वरुण को शहर बदलना था और एक हफ़्ते बाद ही अर्पिता के बैंक की परीक्षा थी, इसलिए वो साथ नहीं जा सकती थी।

कुछ दिनों के लिए टाल दो ना ट्रांसफर, अर्पिता कहती।

नई-नई तो नौकरी है, और फ़िर ट्रांसफर के साथ प्रमोशन भी तो मिल रहा है, नहीं टाल सकता ना… वरुण अर्पिता को प्यार से समझाता। तुम अपनी परीक्षा देकर आ जाना, एक हफ़्ते की ही तो बात है।

यही सब समझाते हुए वरुण अपने नये शहर के लिये रवाना हो गया। वरुण के जाने के बाद अर्पिता भी अपनी पढ़ाई में लग गयी।

उस दिन भी तो वो पढ़ाई ही कर रही थी की फोन की घण्टी ने उसका ध्यान तोड़ा।

और फ़िर उसके बाद फोन के दूसरी तरफ़ वाले इन्सान ने जो बताया सुनकर अर्पिता वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी।

नये शहर के, नये घर में , बालकनी में कपड़े सुखाने का तार बाँधते वक्त वरुण का पैर स्टूल से फिसला, उसका संतुलन बिगड़ा और वो सीधे 14वें माले से ज़मीन पर जा गिरा। सर्ररर… से गिरता हुआ वरुण का शरीर एक पल में क्षत-विक्षत हो गया।

दो दिन की बेहोशी के बाद होश में आते ही अर्पिता सीधे वरुण के नये शहर गई। तब तक वरुण का अन्तिम संस्कार हो चुका था। इस नये शहर से सौगात के रुप में उसे मिली थी वरुण की अस्थियाँ और वरुण के हाथ में बँधी वो टूटी  हुई रिस्टवॉच, जो उसने वरुण को शादी की पहली सालगिरह पर गिफ़्ट की थी।

ये सब अपनी आँखों के सामने देख अर्पिता धक्क रह गई थी। एक शब्द या कोई आह तक नहीं निकल पायी थी उसके मुँह से। तब से अर्पिता ने एक अजीब सा मौन धार लिया था मन ही मन में, जिसकी थाह कोई नहीं ले पाया था।

वो अभी भी अपने अतीत की यादों के भँवर में उलझी थी की उसका फोन बज उठा।

उसने घड़ी देखी, सुबह के आठ बज रहे थे, वो रात भर टूटी रिस्टवॉच हाथ में लिये यूँ ही बैठी रही।

उसका फोन अब भी बज रहा था। बिल्डिंग के बाहर ट्रावेल वैन आ चुकी थी। सालों से सम्भाल कर रखी वरुण की अस्थियों को वो आज बहा देना चाहती थी शायद वो समझने लगी थी इस सच्चाई को कि, अस्थियों को रोक लेने से या यादों को बाँध लेने से भी मरे हुये लोग लौट कर वापस नहीं आया करते।

साथ में उसने वो टूटी हुई रिस्टवॉच भी ले ली जिसमें सालों से बन्द पड़ा था उसका सच्चा  इश्क़। वो आज जी भर के रोना चाहती थी, क्योंकि सालों उसने अस्थियों के साथ ही कैद कर रखे थे इश्क़ के अधूरे आँसू।

अस्थियाँ विसर्जित करते वक़्त वो बस यही कहे जा रही थी-

मैं तेरी अगरबत्ती हूँ,

और तेरी दरगाह पर मुझे

एक घड़ी जलना है…...................................

 


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