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Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Abstract

5.0  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

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मैं गलत नहीं हूँ

मैं गलत नहीं हूँ

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आजकल सब रिश्तेदार बेहद नाराज हैं मुझसे। बहन ने तो बातचीत बंद ही कर दी है। सब मुझे मतलबी, स्वार्थी और कपूत की उपाधियाँ नवाजते नहीं थकते। चलो मेरा निर्णय है और मुझे बुरा भला कहा जा रहा है ये बात तो समझ आती है पर सब मेरी पत्नी सुरुचि को भी बिना बात के गलत समझ रहे हैं। सुरुचि खुद भी तो कितना नाराज है मुझसे। 

दो दिन पहले बहन का आखिरी बार फ़ोन आया था। वही उपदेश जो सालो से घुट्टी की तरह जबरदस्ती घूँटता आया हूँ वही फिर सुनने को मिले। बाबू जी को वृद्धाश्रम में भर्ती करा रहा हूँ ये सुन कर कितने गुस्से में थी। यही बोली थी वो न 

"भाई इससे तो मेरा कोई भाई नहीं होता तो अच्छा होता। तब में बाबू जी को अपने पास रख लेती। अभी रखूँगी तो लोग कितनी बातें बनाएंगे। भाई के रहते हुए बाबू जी बहन के घर रहते हैं। आज के बाद तुम से कोई बात नहीं करूंगी।" 

एक बार तो मन किया था कि उससे पूछूं की पिछले पांच साल में कितनी बार बाबू जी का ध्यान रखने के लिए मायके आयी है। पिछले साल सुरुचि बीमार पड़ गयी थी और बड़े बेटे के बोर्ड की परीक्षाएं थी। तब बहन से कितनी मिन्नतें की थी कि कुछ दिन आ कर बाबूजी का ध्यान रख ले। पर हमेशा की तरह फिर एक बहाना बना कर वो कोई भी जिम्मेदारी निभाने से कैसे सफाई से बच गयी थी। 

सब को ये नजर आ रहा है की बाबूजी को वृद्धाश्रम भेज रहा हूँ पर कितनी मुश्किलों से ये कठिन निर्णय मैंने लिया है ये बस मेरा दिल ही जानता है। दिल मजबूत कर उन्हें वहां भर्ती करा रहा हूँ उनके इंकार को अनसुना कर रहा हूँ। ठीक ऐसा ही इंकार मैंने भी तो किया होगा न जब वो मुझे स्कूल ले गए होंगे। नहीं जाऊँगा कहा होगा पर उन्होंने मुझे जबरदस्ती स्कूल भेजा होगा। मेरी भलाई के लिए। 

आज मैं भी जबरदस्ती उन्हें वृद्धाश्रम भेज रहा हूँ तो उनकी भलाई के लिए। 

अस्सी वर्ष के हो गए हैं बाबूजी। चल -फिर भी नहीं पाते। पिछले पांच सालों से उनके लिए घर में फुल टाइम नर्स रखी हुयी है। मैं और सुरुचि दोनों इस समय अपने अपने कार्यालय में वरिष्ठ पदों पर हैं। सुबह जल्दी ही घर से निकल जाते हैं और रात को देर रात घर आते हैं। 

पिछले हफ्ते अचानक एक जरूरी फाइल के लिए घर दोपहर में आया तो नर्स आराम से सोयी हुयी दिखी। पास में ही खाली जूस का ग्लास था। जूस जो सुबह सुरुचि बाबू जी के लिए रोज बना कर जाती है। अंदर बाबूजी बेसुध थे। शायद उन्हें नींद की गोली खिलाई थी नर्स ने। मैंने नर्स को जगाया था तो वो अचकचा गयी थी। सफाई दे रही थी की बस आज बाबूजी को दर्द बेहद था इसलिए नींद की गोली खिलाई है। 

बाबूजी की याददश्त जा चुकी है। अब उनकी समझ एक छोटे बच्चे सी है। वो किसी को नहीं पहचानते। चुप ही रहते हैं। 

मैंने नर्स को कुछ नहीं कहा। बस उस दिन के बाद शहर के हर वृद्धाश्रम को जा कर देखा। सब में सबसे अच्छा लगा "संध्या निवास " 

वहां एक कमरे में दो बुजुर्ग लोगों के साथ रहने की व्यवस्था है। बाबूजी जैसे बिलकुल असहाय बुजुर्गों के साथ एक ऐसे बुजुर्ग को जोड़ी दार बनाया जाता है जो अभी सब कुछ सोच समझ और बता सकते हैं। हर बुजुर्ग जिसे आवश्यकता हो उसके लिए एक फुल टाइम नर्स की व्यवस्था है । सब तरफ कैमरे लगे हुए हैं। हर सप्ताहांत को बुजुर्गों के परिवार वाले बुजर्गों के साथ पूरा दिन गुजार साथ में ही लंच और डिनर लेते हैं। एक डॉक्टर चौबीसों घंटे मौजूद रहता है। हर मंगलवार को कीर्तन और हर शुक्रवार को संगीत संध्या आयोजित की जाती है। मालिश करने और हाथ पाँव दबाने की भी व्यवस्था है। 

जब बाबूजी घर में थे तो मुझे नर्स पर मात्र पंद्रह हजार खर्च करने होते थे। वहां मैं बाबूजी के लिए पच्चीस हजार प्रतिमाह दूंगा। खाने का खर्च अलग। 

सिर्फ इसलिए की मैं चाहता हूँ की बाबूजी का अच्छे से अच्छा ध्यान रखा जाए। 

जब कभी नर्स छुट्टी करती थी तो पीछे कई सालों से मैं या सुरुचि ही छुट्टी ले कर उनका ध्यान रखते थे। उन्हें नहलाना, धुलाना, कपड़े पहनाना सब कुछ। आज जो हमें उपदेश दे रहे हैं उनमे से किसी ने बाबूजी के गंदे कपड़े नहीं बदले। अपने हाथों उन्हें खाना नहीं खिलाया। 

नर्स वाली बात जब सुरुचि को पता चली थी तो वो खुद ही बोली थी की वो नौकरी छोड़ देगी। मैंने ही उसे मना किया था। सुरुचि नौकरी छोड़ दे तो मकान के लोन की किश्तें कैसे चुकेंगी, बेटे की पढाई और बिटिया की शादी का खर्च कैसे निकलेगा। बाबू जी की दवाइयों का खर्च भी तो है। 

सबको मैं नाकारा, निकम्मा और पितृद्रोही लग रहा हूँ। बूढ़े पिता को वृद्धाश्रम धकेलने वाला नालायक बेटा। 

बहन और दुनिया को जो कहना हो कह ले। मेरे बाबूजी से मैं प्यार करता हूँ ये मैं जानता हूँ। लोग क्या समझते हैं मुझे उससे कोई मतलब नहीं। 

मैं जानता हूँ कि मैं गलत नहीं हूँ, मेरे लिए यही काफी है। 


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