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लोमड़ी और भालू

लोमड़ी और भालू

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एक थी लोमड़ी-मौसी; बुढ़ापे में अपने-आप अपना इंतज़ाम करना उसे बहुत बुरा लगता था, तो वो आई भालू के पास और उससे बिनती करने लगी कि उसे अपने घर में रहने दे:

“मुझे भीतर आने दो, मिखाइलो पतापिच, मैं लोमड़ी बूढ़ी, समझदार, जगह लूँगी बेहद कम, ज़्यादा नहीं खाऊँगी, ज़्यादा नहीं पिऊँगी, तुम्हारे खाने के बाद जो बचेगा, वो ही खाऊँगी, हड्डियाँ साफ़ करूँगी.”

भालू बिना सोचे-समझे तैयार हो गया. लोमड़ी भालू के घर रहने के लिए आ गई और हर चीज़ ग़ौर से देखने और सूँघने लगी कि उसके घर में कहाँ क्या रखा है. मीशेन्का को संग्रह करने की आदत थी, ख़ुद पेट भर के खाता, और लोमड़ी को भी अच्छी तरह खिलाता.

एक बार लोमड़ी को ड्योढ़ी में शेल्फ पर शहद का बर्तन दिखाई दिया, और लोमड़ी और भालू, दोनों को ही मीठा बहुत अच्छा लगता है; रात को वह लेटी और सोचने लगी, कि कैसे जाकर शहद चाटे, पूँछ से ठकठकाने लगी और लगी भालू से पूछने:

“मीशेन्का, क्या कोई हमारा दरवाज़ा खटखटा रहा है?”

भालू ने सुना.

“सही है,” वह बोला, “खटखटा रहे हैं.”

“ये, मतलब, मेरे लिए, बूढ़ी डॉक्टरनी के लिए आए हैं.”

“तो क्या,” भालू ने कहा, “जाओ.”

“ओह, चचा, उठने का बिल्कुल मन नहीं है!”

“अरे, जा भी,” भालू ने कहा, “मैं तेरे पीछे दरवाज़ा भी बंद नहीं करूँगा.”

लोमड़ी ने 'आह-आह' किया, भट्टी से उतरी, मगर जैसे ही दरवाज़े से बाहर निकली, उसने फुर्ती से काम किया! शेल्फ पर चढ़ गई और शहद के जार पे लपकी; खाती रही, खाती रही, पूरी ऊपरी सतह खा गई, पेट भर खाया; जार पर कपड़ा बांधा, उस पर ढक्कन रखा, ऊपर से पत्थर रखा, सब कुछ वैसा ही ठीक-ठाक कर दिया जैसा भालू करता था, और झोंपड़ी मे ऐसे लौटी, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

भालू ने उससे पूछा:

“क्या, मौसी, दूर गई थी क्या?”

“करीब ही गई थी, चचा; पडोसियों ने बुलाया था, उनका बच्चा बीमार हो गया था.”

“कुछ आराम पड़ा?”

“आराम पड़ा.”

“बच्चे का नाम क्या है?”

“वेर्खूशेच्का, चचा.”

“ये नाम कभी सुना नहीं”, भालू ने कहा.

“लो, सुनो! चचा, दुनिया में अजीब-अजीब नामों की क्या कमी है!”

 भालू सो गया, और लोमड़ी भी सो गई.

लोमड़ी को शहद पसंद आ गया, अगली रात भी वह लेटी और तख़त पर पूँछ से ठकठकाने लगी:

“मीशेन्का, कहीं फिर तो कोई खटखटा नहीं रहा है?”

भालू ने ग़ौर से सुना और बोला:

“सही है, मौसी, खटखटा रहे हैं!”

“मतलब, मुझे बुलाने आए हैं!”

“तो क्या, मौसी, जाओ,” भालू ने कहा.

“ओह, चचा, उठने का, बूढ़ी हड्डियाँ तोड़ने का मन नहीं हो रहा है!”

“ चल, जा,” भालू बोला, “ मैं तेरे पीछे दरवाज़ा बंद नहीं करूँगा.”

  लोमड़ी ने 'आह-आह' किया, भट्टी से उतरी, दरवाज़े की तरफ़ आई, मगर जैसे ही दरवाज़े से बाहर निकली, उसने फुर्ती से काम किया! शेल्फ पर चढ़ गई और शहद के जार पे लपकी; खाती रही, खाती रही, बीच वाला पूरा हिस्सा खा गई, पेट भर के खाया; जार पर कपड़ा बांधा, उस पर ढक्कन रखा, ऊपर से पत्थर रखा, सब कुछ वैसा ही ठीक-ठाक कर दिया और झोंपड़ी मे लौटी.

भालू ने उससे पूछा:

“क्या दूर गई थीं, मौसी?”

“पास ही गई थी, चचा. पड़ोसियों ने बुलाया था, उनके बच्चे की तबियत बिगड़ गई थी.”

“क्या आराम पड़ा?”

“आराम पड़ा.”

“बच्चे का नाम क्या है?”

“सिर्योदच्का, चचा.”

“ये नाम कभी सुना नहीं,” भालू ने कहा.

“लो, सुनो! चचा, दुनिया में अजीब-अजीब नामों की क्या कमी है!”

इसके बाद दोनों सो गए.

लोमड़ी को शहद पसंद आ गया; तीसरी रात भी वह लेटी और पूँछ से ठकठकाने लगी और पूछने लगी:

“मीशेन्का, कहीं फिर से तो कोई दरवाज़ा नहीं खटख़टा रहा है?”

भालू ने सुना और कहा:

“सही है, मौसी, खटखटा ही रहे हैं.”

“मतलब, मेरे ही लिए आए हैं.”

“तो क्या, मौसी, अगर बुला रहे हैं, तो जाओ,” भालू ने कहा.

“ओह, चचा, उठने का, बूढ़ी हड्डियाँ तोड़ने का बिल्कुल भी मन नहीं कर रहा है! देख तो रहे हो, एक भी रात सोने नहीं देते!”

“चल, चल, उठ,” भालू ने कहा, “मैं तेरे पीछे दरवाज़ा बंद नहीं करूँगा.”

लोमड़ी ने 'आह-आह' किया, भट्टी से उतरी, दरवाज़े की तरफ़ आई, मगर जैसे ही दरवाज़े से बाहर निकली, उसने फुर्ती से काम किया! शेल्फ पर चढ़ गई और शहद के जार के पे लपकी; खाती रही, खाती रही, बचा-खुचा पूरा शहद खा गई, पेट भर के खाया; जार पर कपड़ा बांधा, उस पर ढक्कन रखा, ऊपर से पत्थर रखा, सब कुछ वैसा ही ठीक-ठाक कर दिया और झोंपड़ी मे लौटी. झोंपड़ी में लौटकर भट्टी पर चढ़ गई और गुड़ी-मुड़ी होकर लेट गई.

भालू लोमड़ी से पूछने लगा:

“दूर गई थीं क्या, मौसी?”

“पास ही, चचा. पड़ोसियों ने बच्चे का इलाज करने के लिए बुलाया था.”

“क्या आराम पड़ा?”

“आराम पड़ा.”

“बच्चे का नाम क्या है?”

“पस्लेदीश्कम, चचा. पस्लेदीश्कम, पतापविच!”

“ऐसा नाम कभी सुना नहीं,” भालू ने कहा. 

“अरे, चचा, दुनिया में क्या कम अजीब नाम होते हैं!”

भालू सो गया, और लोमड़ी भी सो गई.

कुछ समय के बाद लोमड़ी को फिर से शहद की तलब आई – आख़िर लोमड़ी को मीठा जो पसन्द है, - उसने बीमार होने का नाटक किया : आह-ऊह करती रही, भालू को चैन नहीं लेने दिया, पूरी रात खाँसती रही.

“मौसी,” भालू ने कहा, “कुछ ले लेतीं, ठीक हो जातीं.”

“ओह, चचा, मेरे पास नींद की दवा है, उसमें सिर्फ शहद मिलाना पड़ेगा और सब कुछ चुटकियों में ठीक हो जाएगा.”

भालू फर्श से उठा और ड्योढ़ी में आया, जार उतारा – मगर जार तो खाली था!

“शहद कहाँ गया?” भालू चीखा. “मौसी, ये तेरी ही करतूत है!”

लोमड़ी इतना खाँसने लगी, कि उससे जवाब ही देते नहीं बना.

“मौसी, शहद किसने खाया?”

“कैसा शहद?”

“अरे, मेरा, जो जार में था!”

“अगर तेरा था, तो मतलब, तूने ही खाया होगा,” लोमड़ी ने जवाब दिया.

“नहीं,” भालू ने कहा, “मैंने उसे नहीं खाया, वक्त-ज़रूरत के लिए संभाल के रखा था; ये, मतलब, मौसी, तूने ही शरारत की है?”

“आह, तू, कितनी बेइज़्ज़ती की मेरी! मुझ ग़रीब बेचारी अनाथ को अपने घर बुलाया और अब मुझे दुनिया से हटा देना चाहते हो! नहीं, दोस्त, मैं वो नहीं हूँ! मैं, लोमड़ी, पल भर में कुसूरवार को पकड़ लूँगी, पता कर लूँगी कि शहद किसने खाया है.

भालू ख़ुश हो गया और उसने कहा:

“मेहेरबानी करो, मौसी, पता लगाओ!”

“चलो, सूरज के सामने सोते हैं – जिसके पेट से शहद टपकेगा, उसीने उसे खाया है.”

लेट गए, सूरज उन्हें गरमा रहा था. भालू खर्राटे लेने लगा, मगर लोमड़ी – फ़ौरन घर आई: जार से बचा-खुचा शहद निकाला, उसे भालू के बदन पर पोत दिया, और ख़ुद उँगलियाँ धोकर, भालू को जगाने लगी.

“उठ, चोर को ढूँढ़ लिया! मैंने चोर को ढूँढ़ लिया!” – लोमड़ी भालू के कान में चिल्लाई.

“कहाँ?” भालू गरजा.

“ये रहा,” लोमड़ी ने कहा और उसने भालू को दिखाया कि उसका पूरा पेट शहद से लथपथ है. भालू बैठ गया, आँखें मली, पेट पर पंजा फेरा – पंजा तो चिपक गया, और लोमड़ी चिल्लाकर बोली:

“देखा, मिखाइलो पतापविच, सूरज ने तो तेरे भीतर से शहद बाहर निकाल दिया! फिर कभी-भी, चचा, अपना दोष दूसरे के सिर पे न डालना!”

इतना कहकर लोमड़ी ने पूँछ हिला दी, सिर्फ भालू ने ही उसे देखा

    

  





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