मैं क्यों सोचूं
मैं क्यों सोचूं
लू लू कुछ न कुछ सोचता जरूर है। जब देखो तब। ऐसा उसके बापू कहते हैं। दोस्त भी। पर लू लू क्या सोचता है, यह कोई नहीं जानता। पूछने पर वह कुछ बताता भी तो नहीं। बताए भी तो क्या। खुद उसे यकीन नहीं आता कि वह कुछ न कुछ सोचता जरूर है। वह तो सब की तरह स्कूल जाता है। होमवर्क करता है। खेलता है। खाता है। पीता है। सोता है। जागता है। बापू और दोस्तों की बात जब ज्यादा ही हो जाती है, तो सुब्बू सोचता है कि वे सब उसके बारे में वैसा क्यों सोचते हैं।
लू लू अधिकतर अपने घर में ही रहता है। कुछ साल पहले ही तो बनवाया था घर बापू ने। बहुत सुन्दर। गेट के पास, बड़े प्यार से, एक नीम का पेड़ भी लगाया था। लू लू तब से नीम के पेड़ को बढ़ते हुए देख रहा है। उसे पानी भी देता है। वैसे वह पानी देने को हमेशा पानी पिलाना कहता है। इसलिए कि उसे अच्छा लगता है। बापू भी उसी के लहजे में कभी न कभी पूछ लेते हैं, "अरे लू लू नीम को पानी पिलाया कि नहीं?” जब बापू उसी की तरह पूछते, उसे बड़ा मज़ा आता। पर वह सोचने लगता कि उसे मज़ा क्यों आता है। पर उत्तर की परवाह किए बिना वह जल्दी ही अपनी मस्ती में खो जाता।
उस दिन पता नहीं वैसा क्यों हुआ? सुब्बू को लगा कि नीम का पेड़ उससे कुछ कहना चाहता है। पर वह वैसा क्यों लग रहा है, उसने सोचा। भला पेड़ कोई आदमी है कि उससे बात करेगा। पर थोड़ी ही देर में उसे फिर लगा कि पेड़ की टहनियां उसे पास बुलाकर कुछ कहना चाहती हैं। नहीं तो वे हिल हिलकर उसकी ओर क्यों झुकतीं। कहीं ये टहनियां बापू की शिकायत तो नहीं करना चाहतीं।
अरे हां, बापू, हर सुबह इन पर लगी नन्हीं-नन्हीं कोमल पत्तियों को तोड़ कर मजे मजे से खा जाते हैं। कहीं इसी बात का तो दुख नहीं है इनको! उसने टहनियों की ओर ऐसे देखा जैसे जानना चाहता हो कि वह जो सोच रहा है क्या सही है। पर यह क्या! उसे लगा जैसे टहनियां जोर-जोर से हंस रही हों। जैसे कह रही हों, ‘अरे भोले सरकार, पत्तियां तोड़ने पर भी कोई नाराज होता है भला? और वह भी तब जब पत्तियों का बहुत अच्छा उपयोग होता हो। देखते नहीं कि कि हम पर फिर पत्तियां आ जाती हैं।
सुब्बू को लगा कि वह तो निरा बुद्धू ही निकला। उसके बापू भला ऐसा काम क्यों करेंगे, जिससे पेड़ या उसकी टहनियां नाराज हों। वह फिर सोच में पड़ गया। आखिर वह वैसा-वैसा सोच भी क्यों रहा है? उसने अपराधी की तरह टहनियों की ओर देखा। सॉरी भी बोला। उसे लगा कि टहनियां खिलखिलाकर खुश हो गईं। उसे बड़ा मज़ा आया। पर वह फिर सोच में पड़ गया। सोचने लगा कि जब हम अपनी गलती मानकर सॉरी कहते हैं तो दूसरे खुश क्यों हो जाते हैं? और दूसरों को खुश देखकर हमें मज़ा क्यों आता है? लेकिन पहले की तरह उसने इस बार भी उत्तर की परवाह नहीं की। और अपने में मस्त हो गया। पर एक सवाल जाने कहां से उसके दिमाग में आ टपका। और लगा उछलने। उसे उकसाने। टहनियों से कुछ पूछने के लिए। उसने सोचना तो जरूर चाहा कि ये सवाल क्यों कहीं से उछल-उछल कर हमारे दिमाग में आ टपकते हैं लेकिन चुप रहा। सोचा कि पहले टहनियों से पूछ ही लेता हूं। सो पूछा, ‘अच्छा, जब कोई आपकी टहनियां तोड़ता है तो आपको दर्द नहीं होता?’ उसे लगा टहनियां थोड़ी चुप हो गई थीं और उसे अचरज से देखने लगी थीं।
उसे लगा कि वे सोच रहीं थीं कि लू लू कुछ न कुछ सोचता ही रहता है। लू लू ने सोचा कि वह इस बात को यहीं छोड़ दे। कुछ भी न सोचे। पर वह करे भी तो क्या करे? टहनियां, उसे लगा, कुछ कहना चाहती हैं। और कहने भी लगीं, "लू लू! क्या तुमने किसी की मदद की है? जरूर की होगी, क्योंकि तुम अच्छे बच्चे लग रहे हो। मां के काम में हाथ बँटाया होगा। दादी की ऐनक ढूढ़ी होगी। किसी को सड़क पार करायी होगी। नहीं?" लू लू को झट से याद आया कि एक बार उसने अपने दोस्त की मदद की थी। वह और दोस्त मैदान में भागते-भगते गिर गए थे। लू लू को चोट आई थी लेकिन दोस्त से बहुत कम। दोस्त तो उठ ही नहीं पा रहा था। तब लू लू ने दोस्त को उठाया था। अपनी चोट और दर्द की परवाह किए बिना। यूं कितना दर्द हुआ था उसे। पर दोस्त को सहारा देकर वह स्कूल की डॉक्टर के कमरे में ले आया था। कितना-कितना अच्छा लगा था उसे! लू लू ने चाहा कि वह यह पूरा किस्सा टहनियों को बता दे। वह बताने को हुआ ही था कि देखा कि टहनियां न तो झुकी हुई थीं और न ही हिल रही थीं। बस स्थिर खड़ी थीं। जैसे किसी सोच में मग्न हों। लू लू मुस्कुराया और सोचा की टहनियां भी तो सोचती हैं। पर जल्दी ही फिर सोचा, "में क्यों सोचूं। कुछ भी। जब देखो तब। नहीं तो सब यही कहेंगे न कि लू लू कुछ न कुछ सोचता जरूर है।