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Sandeep Kumar Keshari

Drama Fantasy Inspirational

4.9  

Sandeep Kumar Keshari

Drama Fantasy Inspirational

कलियुगी भगीरथ

कलियुगी भगीरथ

14 mins
512


ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः शिवाय! ॐ नमः….


“मैं तुम्हारी तप से प्रसन्न हूं, वत्स! बोलो, क्या वर चाहिए तुम्हें...” – आकाशवाणी हुई?

“मैं धन्य हुआ प्रभु! मेरी तपस्या सफल हुई। मेरा प्रणाम स्वीकार करें महादेव...” – उसने कहा!

“आयुष्मान भव:! मांगो, क्या वर चाहिए तुम्हें...” – आकाशवाणी हुई?

“प्रभु, आप तो सर्वज्ञ हैं, अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी महाकाल हैं। हे देव, आप मिल गए, मेरा जीवन सफल हुआ नाथ। प्रभु, क्या आप मुझे तीन वर दे सकते हैं...” – उसने पूछा?

“अवश्य! परंतु सोच – समझकर मांगना वत्स, अन्यथा ये तेरे और संसार के विनाश का कारण बन सकता है...” – आकाशवाणी से चेतावनी आई।


“मैं समझ गया देव! हे गंगाधर, मेरी पहली प्रार्थना है कि मैं हमेशा आपके चरणों में रहूं। कृपा कर मुझे अपने चरणों में स्थान दें...” - उसने पहला वर मांगा।

“तथास्तु...”- आकाशवाणी हुई।

“धन्यवाद शिव शंभु! हे महेश्वर, मेरी दूसरी इच्छा है कि मैं सभी देवी-देवताओं को देख, सुन सकूं ऐसी मुझे दिव्य दृष्टि प्रदान करें...” - उसने अपने दूसरे वर की इच्छा जताते हुए कहा।

“तथास्तु...” - आकाशवाणी ने दूसरे वर को भी बिना देरी किए उसे प्रदान कर दिया!

“प्रभु, आप सच में महादानी हैं। आपका वर पाकर मैं धन्य हुआ भोलेनाथ। हे, आदि देव! किसी जनकल्याण एवं संसार के हित हेतु मेरा मार्ग प्रशस्त करें...” - उसने आभार जताते हुए तीसरा एवं अंतिम वर मांगा।

“मैं तुम्हारी भक्ति और मंशा से अति प्रसन्न हूं, पुत्र! तथास्तु...“ कहते हुए आकाशवाणी समाप्त हो गई।


वह तीन वर पाकर अति प्रसन्न हुआ एवं पुनः अपने इष्ट देव को हृदय से नमन किया और मैकाल पर्वत से घर की ओर प्रस्थान करने लगा। अभी आकाश में अंधेरा ही था। ब्रह्म मुहूर्त में अभी समय था। वह ॐ नमः शिवाय का जाप करते हुए आगे बढ़ने लगा। आगे थोड़ी दूर जाने के बाद कपिलधारा के समीप उसने एक काली गाय को देखा। वह कुछ देर ठहर गया। तभी एक दिव्य स्त्री, जो किसी देवी की प्रतिमूर्ति लग रही थी, काली गाय के समक्ष प्रकट हुई! सर पर स्वर्ण जड़ित मुकुट, चेहरे पर अद्भुत तेज एवं सौंदर्य, पूरे देह में नाना प्रकार के श्रृंगार, अपने शरीर में नीली साड़ी धारण किए एवं बगल में मगरमच्छ - उसने अनुमान लगाया कि हो ना हो ये मां नर्मदा है। उस देवी समान स्त्री ने काली गाय को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उनके प्रणाम करते ही गाय ने भी मानव रूप धारण कर लिया!


“ये क्या? ये भी देवी है” – उसने विस्मयपूर्वक स्वयं से प्रश्न किया? उसका मुंह खुला रह गया।

“हे देवी गंगा! आपकी ये स्थिति? आपकी पूरी देह तो काली हो गई है! पूरे शरीर में कीड़े मकोड़े विचरण कर रहे हैं एवं बहुत दुर्गंध भी आ रही है...” - नीली साड़ी पहने देवी ने जिज्ञासावश पूछा!

“हां, देवी नर्मदा! मैं लाचार एवं बेबस हूं। इस मानवजाति की मूर्खतापूर्ण गतिविधियों ने मुझे इतना प्रदूषित कर दिया है कि मैं मरणासन्न अवस्था में आ गई हूं...” - गंगा ने नर्मदा से कहा।

“पर आप तो पापनाशिनी हैं, आप समस्त सृष्टि के मनुष्यों के पापों को धोने हेतु ही इस मृत्युलोक में अवतरित हुई हैं...” - नर्मदा ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।

“हां देवी! और जब- जब इन पापों को धोते-धोते मैं स्वयं मलिन हो जाती थी, तो आपके पास उस मलिनता को धोने काली गाय के रूप में पास आती थी। परंतु देवी, मैं अब इतनी मैली और गंदी हो चुकी हूं कि मैं अब सिर्फ आपके जल से स्वच्छ एवं स्वस्थ नहीं हो सकती...” - कहते–कहते गंगा का गला भर गया।


इन दोनों देवी रूपी नदियों का संवाद देख उसने दोनों को मन ही मन प्रणाम किया और एक वृक्ष की ओट में छुपकर उनकी बातों को देखने–सुनने लगा।


नर्मदा – “पर इसका कोई तो उपाय होगा देवी अन्यथा ऐसी स्थिति में तो पूरी मानव सभ्यता पर ही संकट आ जाएगा।”

गंगा – “ये बातें अभी तक मनुष्य नहीं समझ सका है, नर्मदे! आज मैं भारतवर्ष की सबसे लंबी नदी (2525 किमी) हूं। इस देश के 11 राज्यों की 40% जनसंख्या (लगभग 50 करोड़) की जीवनदायिनी माता हूं, जो विश्व की सबसे बड़ी संख्या है, किन्तु विडंबना देखिए देवी! मैं सृष्टि की छठी सबसे प्रदूषित नदी हूं।”

नर्मदा – “पर देवी गंगा! आपका जल तो कभी सड़ता नहीं! ये तो औषधीय, गुणों से युक्त है।” नर्मदा के स्वर में तथ्य कम प्रश्न ज्यादा थे।

गंगा – “हां, देवी रेवा! पर अब नहीं। मेरे जल के औषधीय गुणों का कारण इसमें उपस्थित बैक्टीरोफेज थे, जो जल में विद्यमान जीवाणुओं को खा जाया करते थे, जिसके कारण मेरा जल कभी सड़ता नहीं था। इसके अतिरिक्त मैं बहुत सारी पर्वतों, पत्थरों से होकर बहती हूं, जिससे इन शैलों, पत्थरों के खनिज–लवण एवं धातु के मिल जाने से मेरा जल औषधीय हो जाता था। किन्तु, प्रदूषण के कारण मुझमें घुलनशील ऑक्सीजन की भारी कमी आई है, जिससे दूसरी प्रजाति के जीव, जो मेरी संतानें हैं, विलुप्त होने के कगार पर हैं।”

नर्मदा – “हे देवी गंगा! आप कृपा कर यहां इस शीला पर बैठ जाएं। आप निश्चित ही बहुत दुःखी एवं क्षुब्ध हैं। हमें कोई न कोई हल अवश्य निकालना होगा।”


इसी बीच इनकी वार्तालाप को सुन सोनभद्र भी प्रकट हो दोनों देवियों को नमन किए। गंगा ने उनका अभिवादन स्वीकार किया, परंतु नर्मदा ने कोई जवाब नहीं दिया (शायद नर्मदा सोन से अभी भी कुपित थीं)! सोन निराश हो चुपचाप नर्मदा की ओर अपनी पीठ कर बैठ उनकी बातों को सुनने लगे।


इधर गंगा बोली – “आप तो अद्भुत हैं देवी नर्मदा! आप भारत की तीसरी सबसे लंबी नदी है (1312 किमी ), जो भारतभूमि से उत्पन्न हो भारत में ही सागर से मिल जाती हैं। जो फल मनुष्य को मेरे जल के एक स्नान से, यमुना के जल के तीन स्नान से एवं सरस्वती के जल के सात स्नान से मिलता है, वो फल आपके दर्शनमात्र से ही मनुष्य को प्राप्त हो जाता है। आप उम्र में भी मुझसे बड़ी हैं, और इस विश्व में आप एकमात्र नदी स्वरूपा देवी हैं, जिनकी परिक्रमा होती है, जो खंभात की खाड़ी (अरब सागर) से अमरकंटक एवं पुनः अमरकंटक से खंभात की खाड़ी पर समाप्त होती है।”

नर्मदा – “हां, देवी गंगे! इस परिक्रमा की अवधि तीन साल, तीन मास एवं तेरह दिनों की है। इस पूरे परिक्रमा के बीच में मुझे पार करने की मनाही है।”

गंगा – “आप बहुत भाग्यशाली हैं, देवी! पुराणों में आपका स्थान अहम है, मानव जाति भी आपकी बहुत आदर एवं प्रतिष्ठा देती है, तभी तो आपके तटों पर पाया जाने वाला पाषाण साक्षात शिव का रूप है जिसे प्राणप्रतिष्ठा की आवश्यकता भी नहीं होती। आपके तटों पर शिव–पार्वती के साथ सारे देवताओं का निवास है। जहां मैं कनखल (हरिद्वार) में पवित्र हूं, यमुना कुरुक्षेत्र में पवित्र हैं वहीं आप सर्वत्र पवित्र हैं! हे नर्मदे! मैं आपको नमन करती हूं।”


नर्मदा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वो मुस्कुरा कर रह गई। इधर गंगा ने अपनी बातें जारी रखी – “आपको मानव जाति ने बहुत मान-सम्मान दिया है, प्रेम दिया, तभी आप इतनी स्वच्छ हैं कि आपके जल से कोई भी आचमन कर सकता है, और मैं... मैं तो अब कृषि योग्य भी नहीं रही, पीने और स्नान तो बहुत दूर की बातें हैं...” - इतना कहते-कहते गंगा की नेत्रों से अश्रु की दो बूंदें निकल पड़ी। गंगा की अश्रु भी काली हो गई थी। गंगा की ऐसी स्थिति देख नर्मदा भी दुखी हो गई। उनकी आंखों से भी जल की दो बूंदें धरा पर गिर पड़ीं। वे दो बूंदें बारिश के रूप में धरा पर गिरी। उस हल्की फुहार को वह भी वृक्ष की ओट में खड़ा अनुभव कर रहा था।


“तो इसका कोई तो उपाय होगा, देवी गंगा”- नर्मदा ने अश्रु पोंछते हुए पूछा?

“मुझे नहीं ज्ञात, देवी! इस समस्या का हल एकमात्र देवाधिदेव महादेव के पास ही होगा। आप तो शिव के प्रिय हैं देवी नर्मदा! आप उनका आह्वान करेंगी तो वे अवश्य दर्शन देंगे। वैसे भी ये अमरकंटक तो उनका ही निवास स्थान है...” – गंगा ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।

“ऐसी बात नहीं है, देवी गंगा! शिव की जटाओं में आप विराजती हैं। आप हमेशा से उनके सानिध्य में रही हैं। वे कभी आपके आग्रह को नहीं ठुकराएंगे...” - नर्मदा ने अपनी बात रखते हुए कहा!

तभी सोन ने कहा – “हे देवियों! यूं आपस में विवाद करना समस्या का हल नहीं है। मुझे लगता है कि ये समस्या हम सभी का है। अतः हम सभी को मिलकर महादेव का आह्वान करना चाहिए!”

सोन की बातें दोनों को पसंद आ गई। तीनों ने मिलकर एक साथ त्रिनेत्रधारी भगवान शिव का आह्वान किया। इधर यह वृक्ष की ओट में विस्मित होकर सब देख सुन रहा था।


अचानक जोर–जोर से हवाएं चलने लगीं। आसमान में बिजली कड़कने लगीं। वो खड़ा–खड़ा सोचने लगा कि अचानक मौसम में ऐसा परिवर्तन? अभी तो सब शांत था। ना बादल, ना आंधी, फिर ये अचानक ऐसा बदलाव कैसे? तेज हवाओं से सारे पशु पक्षी जाग गए। सभी पशु पक्षी आसपास में विचरण करने लगे। उन्हीं हवाओं के कारण एक वृक्ष से अचानक प्रभु श्रीराम भक्त हनुमान (कपि श्रेष्ठ) जो कदाचित वहीं आराम कर रहे थे, इन देवी–देवताओं के समक्ष खड़े हो गए। उन्होंने वहां उपस्थित मां गंगा, नर्मदा एवं सोन को प्रणाम किया। इन देवी देवताओं ने भी उनका अभिवादन स्वीकार किया।


इधर आकाश में लगातार बदलाव हो रहे थे। हवाएं चल रही थी, बिजली कड़क रही थीं, तभी आकाश में एक संगीत गूंजा –


“जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌!

जटाकटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम:!!”


इसी संगीत के साथ चारों ओर दिव्य प्रकाश फैल गया। शंख ध्वनि, घंटी एवं डमरू के नाद से पूरा वातावरण गूंज उठा। आसपास सुगंधित हवाएं चलने लगीं; पशु पक्षी झूमने लगे; फूल-कलियां खिल उठी; पक्षी चहचहाने लगी। उसने ऐसी अनुभूति जीवन में कभी न की थी। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। तभी एक विशालकाय, कोटि सूर्य समान तेज लिए, जिसका न आदि था, ना ही अंत सबके समक्ष प्रकाश पुंज प्रकट हुआ। उसका तेज इतना था कि उसकी आंखें मुंदी जा रही थी, किन्तु बहुत मुश्किल से अपनी नेत्रों को खोल उस विराट, अद्भुत, अभूतपूर्व, अनुपम एवं अद्वितीय प्रकाश पुंज को देख रहा था। उसका स्वरूप इतना विशाल था कि वह केवल उसके कंठ का ही दर्शन कर पा रहा था जिसके चारों ओर वन के समान जटाओं के अंश बिखरे पड़े थे। कंठ के आसपास सर्प का कुछ हिस्सा ही देखने में वह सक्षम था। बगल में खंभे की भांति कुछ वस्तु थी जो कदाचित त्रिशूल का अंश था। इसका अर्थ ये देवाधिदेव महादेव हैं–कदाचित हां! वो शिव के कंठ (अमरकंटक अर्थात शिव का कंठ) का दर्शन पा अभिभूत हो उठा। उसका रोम–रोम रोमांचित हो उठा। उसने महाकाल के इस रूप सौंदर्य को अंतर्मन से प्रणाम किया एवं धन्यवाद दिया। इसके अतिरिक्त वहां उपस्थित सभी देवी–देवताओं ने शिव के इस रूप के दर्शन प्राप्त उनका अभिनंदन एवं नमन किया। संभवतः सभी देवगण जटाधारी के पूर्ण रूप का दर्शन कर पाने में सक्षम थे, किन्तु उसमें इतना सामर्थ्य नहीं था कि वो शिव के पूर्ण रूप को देख सके।


“हे, देवों! आप लोगों ने मेरा आह्वान क्यों किया? कृपया प्रयोजन बताएं...” – प्रकाश पुंज में उपस्थित शिव ने पूछा।

“हे आदियोगी, महादेव! आप तो सर्वज्ञ हैं, आप त्रिकालदर्शी हैं, काल भी आपके वश में है। मैं जबतक आपकी जटाओं में विराजमान हूं, पवित्र हूं, शीतल हूं और स्वच्छ भी; परंतु जैसे ही मैं धरा पर आती हूं, मुझमें निहित सारी अच्छाइयां जटाओं तक ही सीमित होकर रह जाती हैं। हे उमापति! मृत्युलोक में मेरे ही पुत्र समान मानव जाति ने मेरा इतना दोहन किया है कि मैं जीवनदायिनी गंगा अंतिम सांसें गिन रही हूं...” – गंगा की वाणी में क्षोभ, वेदना और क्रोध, तीनों का मिश्रण था।

“मुझे ज्ञात है, गंगे...”- उमाकांत ने उत्तर दिया।

“प्रभु, अगर इसी प्रकार सब चलता रहा, तो वो दिन दूर नहीं जब गंगा सरस्वती की भांति इस धरा से विलुप्त हो जाएंगी। इनके द्वारा सिंचित और पोषित क्षेत्र मरुभूमि हो जाएगी, महेश्वर” – नर्मदा ने चिंतित स्वर में कहा।


“हां, आशुतोष! मैं पहाड़ों से जैसे ही मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती हूं, मेरा दोहन उच्चतम स्तर पर पहुंच जाता है। मेरे किनारे बसे प्रमुख नगर–कानपुर, प्रयागराज, काशी, पटना, भागलपुर, कलकत्ता आदि ने मुझे इतना प्रदूषित कर दिया है कि अब मैं सिंचाई योग्य भी नहीं रही। कानपुर मात्र में ही 400 से अधिक चमड़े के कारखाने हैं, जिनसे अत्यधिक मात्रा में जानलेवा रसायन निष्कासित होते हैं, जो बिना उपचार के मुझमें ऐसे ही डाल दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त कपड़ा उद्योग, कसाईखाना, एवं ताप विद्युत केंद्र से उत्सर्जित राख जिसमें सीसा एवं तांबा जैसे धातु मिले होते हैं, मुझमें प्रवाहित कर दिए जाते हैं। इनके रसायनों के अतिरिक्त भारी धातु जैसे क्रोमियम कैंसर के प्रमुख कारक हैं। इन उद्योगों से निकलने वाले रंजक, अम्ल, सल्फाइड, क्लोराइड तथा अन्य रसायन के मेरे जल में मिश्रण से मेरा जल सिंचाई योग्य भी नहीं रह जाता। मेरे जल से सिंचित अन्न, फल, सब्जियां भी रसायनयुक्त होती हैं, जो नाना प्रकार की बीमारियों की कारक हैं। प्रभु; मेरे किनारे बसी जनसंख्या में कैंसर भारतवर्ष में सर्वाधिक पाई जाती है। इसका कारण सिर्फ मेरा प्रदूषित जल है, महादेव! हे, चंद्रशेखर! मेरे जल में बैक्टीरोफेज की लगातार कमी के कारण घुलित ऑक्सीजन घट गई है, जिससे लगभग 140 मछलियों की प्रजाति एवं 90 उभयचर प्रजाति के जीवन संकट में है। अत्यधिक पारा होने के कारण मछलियों की मांसपेशियां कमजोर हो गई हैं। मेरे जल में रहने वाली डॉल्फिन और कछुआ इन भारी धातु एवं प्रदूषण के कारण या तो विलुप्त होने के कगार पर हैं अथवा विलुप्त हो गए। विषाक्त जल से जल जनित बीमारियां जैसे टाइफाइड, पेचिश, तरह - तरह के चर्म रोग, यकृत रोग यहां की जनसंख्या में बहुत सामान्य रूप से पाई जाती हैं!”


गंगा लगातार बोले जा रही थी – “हे, जटाधारी, डैम बनने से सिर्फ देवप्रयाग में 1200 हेक्टेयर से अधिक वनक्षेत्र डूब गए। प्लास्टिक प्रदूषण विश्व में सर्वाधिक मेरे ही जल में है।”


गंगा की बातें वहां उपस्थित सभी देवगण चिंतित एवं तन्मयता से सुन व्यथित हो रहे थे। गंगा के बाद सोन ने बोलना शुरू किया – “हे, उमेश! देवी गंगा सच कह रही हैं। मैं उनका सहायक हूं, मुझे इनकी वेदना का भान है। हे कैलाशपति! माता गंगा में 30 बड़े नगर समेत सैकड़ों छोटे नगरों का मानव मल एवं घरेलू कचरा सीधे प्रवाहित होता है। इन सबके साथ धार्मिक कर्मकांड से भी माता को केवल पीड़ा ही मिली है। धर्म के नाम पर भोजन के अवशेष, पत्ते–फूल, माला, अधजले शव, जंतुओं एवं मानवों के शव को लोग यूं ही गंगा जी में प्रवाहित कर देते हैं...” – कहते-कहते सोन की आंखें डबडबा गई।


“मुझे ज्ञात है, सोन! केवल मेरी नगरी काशी में ही 380 से अधिक घाट हैं, जहां पर गंगा का टीडीएस 701 से ऊपर है जो सामान्य से 7-10 गुना अधिक है, जो किसी भी रूप में उपयोग के लायक नहीं है...” – भोले ने जवाब दिया।

“तो देवाधिदेव, कुछ कीजिए। मुझे बहुत पीड़ा हो रही है। मुझे क्रोध आता है इन मनुष्यों की मूर्खता पर। हे शिव! या तो मुझे मृत्युलोक से प्रस्थान की अनुमति दें या मुझे अपनी जटाओं में पूर्ण रूप से स्थान प्रदान करें...” – गंगा ने कठोरता से अपनी बात रखते हुए कहा।

“हे देवी, गंगा! आप ये क्या कह रही हैं? आपके इस कदम से एक सभ्यता, एक युग, एक इतिहास एवं एक भूगोल का अंत हो जाएगा...” – नर्मदा ने आश्चर्यचकित हो हुए कहा!

“आप मेरी व्यथा नहीं समझेंगी रेवा” – कहते- कहते गंगा के आंखों से काली अश्रु की धारा निकल उनके गोरे गालों पर ठहर गई।


“शांत हो जाओ गंगा! मैं तुम्हारी पीड़ा, तेरी वेदना और क्रोध समझता हूं, परंतु अभी इसका समय नहीं आया है कि तुम्हें मृत्युलोक छोड़ना पड़े। मानव जाति को बार–बार चेतावनी देने के बाद भी वह सुधर नहीं रहा है। अगर उसने इस अंतिम चेतावनी को भी नहीं समझी, तो मैं स्वयं तुम्हें अपनी जटाओं में पूर्ण रूप से धारण कर लूंगा...” – शिव ने सभी को आश्वस्त करते हुए कहा।

“किन्तु, हे आदियोगी! आपके कथनानुसार अभी मेरे मृत्युलोक छोड़ने का समय नहीं हुआ है, तो फिर क्या मुझे यहां इसी रूप में रहना पड़ेगा? महादेव, मैं इस स्थिति में अधिक समय तक नहीं रह सकती। मेरा जीवन अब ज्यादा शेष नहीं लगता प्रभु...”- गंगा ने चिंतित स्वर में कहा।

“नहीं, बिल्कुल भी नहीं। तुम्हें पुनर्जन्म की आवश्यकता है, गंगा...” – नीलकंठ ने कहा।

“कैसे, प्रभु?

“भगीरथ!”

“भगीरथ”- सभी ने एक साथ सवाल किया?


“हां… कलयुगी भगीरथ! पुरातन काल में महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु तुम्हें इस धरती पर लाया था, उसी प्रकार इस कलियुग में भी एक भगीरथ की आवश्यकता है जो अपने पूर्वजों की नहीं, अपितु तेरा उद्धार करेगा! और तेरे उद्धार से ही मानव जाति का कल्याण होगा।

“किन्तु, प्रभु! क्या ये इतना आसान है...”- सोन ने चिंतित होते हुए पूछा?

“नहीं, ये इतना सरल नहीं है, सोन। इतना बड़ा कार्य जन सहयोग के बिना असम्भव है। जबतक इसमें शत- प्रतिशत जन भागीदारी नहीं होगी, ये कार्य पूरा नहीं होगा। इसके लिए जन आंदोलन की भी आवश्यकता होगी।” फिर शिव शंकर ने गंगा की ओर देखते हुए पूछा – “क्या तुम अपने पुनर्जीवन एवं उद्धार के लिए सज्ज हो, गंगा?”


“हां, गौरीपति”- गंगा ने प्रसन्न होते हुए कहा।

“ऊईई मां…”- अचानक से उसके मुख से चीख निकाल गई! संभवतः कोई सर्प या बिच्छू ने उसे काट लिया था।

“कौन है, उधर वृक्ष के पीछे छुपकर हमारी बातों को देख सुन रहा है...”- नर्मदा ने क्रोधित होते हुए पूछा?

तभी एक प्रकाशपुंज जो महादेव के कंठ से निकलते हुए सीधे उसके सीने से टकराई और… धम्म!


उसकी आंखें खुली; वह पलंग के नीचे गिर पड़ा था! उसने उठकर देखा, सूर्य अपनी लालिमा छोड़ रहा था। एक सपने ने उसके जीने का मार्ग दिखा दिया था। वो तैयार हो निकाल पड़ा कलयुगी भगीरथ बनने! उसे ज्ञात था, भगीरथ बनना इतना आसान नहीं होता; एक लंबी तप करनी होती है, त्याग की आवश्यकता होती है, बलिदान करना होता है, परंतु उसे ये भी ज्ञात था कि अगर उद्देश्य बड़ा हो, लक्ष्य बड़ा हो, प्रारब्ध बड़ा हो, तो चुनौतियां भी बड़ी होती हैं, जिसके लिए वह तैयार था। गंगा को पुनः माता का रूप देने के लिए, उनके उद्धार हेतु वो भगीरथ बनने निकाल पड़ा… कलयुगी भगीरथ!

                                      --****--

(नोट:-

1. उपरोक्त कहानी पूर्ण रूप से लेखक द्वारा गढ़ी गई कल्पना है, जिसका उद्देश्य किसी भी रूप में किसी भी व्यक्ति, जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग, वर्ण आदि की भावनाओं, मान्यताओं एवं विश्वास का न तो प्रतिनिधित्व करना है और न ही ठेस पहुंचाना। इस कहानी का मुख्य उद्देश्य केवल मनोरंजन है।

2. नर्मदा, सोन एवं अमरकंटक की कहानी विभिन्न पुराणों, शास्त्रों, वेदों, मान्यताओं, लोक कथाओं, किंवदंतियों एवं वेबसाइटों पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित, व गंगा का प्रदूषण विभिन्न शोधों, रिपोर्ट्स, यू ट्यूब, वेबसाइट्स एवं अन्य स्रोतों द्वारा संग्रहित जानकारी पर आधारित। लेखक किसी भी रूप में तथ्यों एवं कथाओं की पुष्टि नहीं करता।)



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