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गाँव - 2.4

गाँव - 2.4

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स्कपेत्स के पंजे छोटे-छोटे, फूले-फूले और बदसूरत थे, जैसे किसी बूढ़ी नौकरानी के होते है, चेहरा भी औरतों जैसा, चौड़ा,पीला, भरा-भरा, होंठ पतले।हाँ, अच्छा ही था पलोज़व भी , वह स्कूल टीचर, जो स्कपेत्स की बातें सुनते हुए छड़ी पर हाथ टिकाए बड़े प्यार से सिर हिला रहा था। हट्टा-कट्टा आदमी, धूसर हैट में, स्वच्छ आँखों वाला, गोल नाक, शानदार, हल्की भूरी, सीने पर लहराती दाढ़ी वाला।डिब्बे का बाहरी चबूतरे वाला दरवाज़ा खोलकर कुज़्मा ने प्रसन्नता से ठण्डी और बारिश की ताज़ी सुगन्धित हवा में साँस ली। बारिश की धार चबूतरे के ऊपर बुदबुदाहट से बरस रही थी। डिब्बे हिचकोले खाते हुए बारिश के शोर के बीच गरज रहे थे। सामने से ऊपर उठते, नीचे जाते टेलिग्राफ़ के तार तैर रहे थे, किनारों पर घने, ताज़े-हरे अखरोटों के पेड़ों के झुण्ड गुज़र रहे थे। बच्चों का एक रंगबिरंगा झुण्ड अचानक किनारे से, नीचे से उछला और खनखनाती आवाज़ में कोरस में कुछ चिल्लाया। कुज़्मा बड़े प्यार से मुस्कुराया और उसका पूरा चेहरा महीन झुर्रियों से भर गया। आँखें उठाकर उसने देखा कि उसके सामने के दूसरे चबूतरे पर एक फ़कीर खड़ा है : प्यारा, पीड़ा से भरा चेहरा, धूसर दाढ़ी, चौड़े पल्लोंवाली टोपी, मोटे कपड़े का ओवरकोट , रस्सी का कमरबन्द, कन्धे पर थैला और टीन की केतली, पतले पैरों में – कपड़े के जूते। वह गरज और शोर के बीच चिल्लाया :

“क्या तीरथ करके आ रहे है ?”

“वरोनेझ से,” फ़कीर ने प्यारी-सी तत्परता से पतली आवाज़ में जवाब दिया।

“क्या वहाँ ज़मीन्दारों को जला रहे ह ?

“जला रहे हैं।”

“बढ़िया है !”

“क्य ?”

“बढ़िया है, कह रहा हूँ !” कुज़्मा चीखा।

और पलटकर, थरथराते हाथों से, भावनावश आ गए आँसुओं को पलकें झपकाकर लौटाते हुए, उसने सिगरेट बनाना शुरू कर दिया।मगर ख़याल फिर से उलझ गए। “फ़कीर” - लोग हैं , ‘स्कपेत्स’ और शिक्षक लोग नहीं ? गुलामी सिर्फ पैंतालीस साल पहले हटाई गई है, इन लोगों से किस बात की उम्मीद की जा सकती है ? मगर इसमें दोषी कौन है ? ख़ुद लोग ही !” और कुज़्मा का चेहरा फिर से काला पड़ गया और लटक गया।

अगले स्टेशन पर वह उतरा और गाड़ी किराये पर ली। किसान गाड़ीवानों ने पहले सात रूबल मांंगे। कज़ाकवो तक की दूरी बारह मील थी , फिर साढ़े पाँच। अन्त में एक ने कहा : “तीन दोगे – ले चलूँगा, वरना बेकार में ज़ुबान चलाने से कोई फ़ायदा नहीं। अभी आपको पहले जैसा नहीं।” मगर यह अन्दाज़ कायम न रख सका और जाना-पहचाना वाक्य उसने जड़ ही दिया : “फिर से दाना-पानी महँगा हो गया।” और डेढ़ में ले चला। कीचड़ अथाह था, गाड़ी छोटी थी, अधमरा-सा घोड़ा , गधे जैसे कानोंवाला, कमज़ोर था। धीरे-धीरे स्टेशन के अहाते से घिसटते हुए निकले। किसान, जो गाड़ी के किनारे बैठा था , रस्सी की लगाम खींचते-खींचते हाँफ़ने लगा, मानो अपने पूरे अस्तित्व से घोड़े की मदद करना चाहता हो। स्टेशन पर उसने डींग मारी थी , कि उसे “रोक पाना मुश्किल है”, और अब, ज़ाहिर है, उसे शर्म आ रही थी। मगर सबसे बुरा, वह ख़ुद ही था। नौजवान , भारी-भरकम, हट्टा-कट्टा, फूस से बने हुए जूते और सफ़ेद मोज़े ,छोटा-सा कोट – झालरदार, कमरबन्द और सीधे, पीले बालों पर पुरानी टोपी। उसके बदन से बेचिमनी की झोंपड़ी और पटसन की गंध आ रही थी – मध्ययुगीन किसान ! चेहरा सफ़ेद, बिन मूँछों का और गला फूला हुआ, आवाज़ भर्राई हुई।

“तेरा नाम क्या ह ?” कुज़्मा ने पूछा।

“अख़्वानासी कहा करते थे मुझे।”

“अख़्वानासी।” कुज़्मा ने गुस्से से सोचा।

“और आगे ?”

“मेन्शोव।ऐ SSS शैतान !”

“बुरी बीमारी है क्या ?” कुज़्मा ने गले की ओर इशारा करते हुए पूछा।

“हा, बुरी ही है, तो क्या,” मेंन्शोव आँखें चुराते हुए बुदबुदाया, “ठण्डा क्वास पी गया था।”

“निगलने में तकलीफ़ होती है ?”

“निगलने में, नहीं, दर्द नहीं होता।”

“अच्छा, मतलब, बेकार की बकवास मत कर,” कुज़्मा ने कड़ाई से कहा। “बेहतर है,, जल्दी से अस्पताल चला जा। शायद, शादीशुदा है ?”

“शादीशुदा हूँ।”

“तो देख, तेरे बच्चे होंगे – और तू उन सबको बढ़िया इनाम देगा।”

“शायद ,” मेन्शोव ने सहमति जताई और हाँफ़ते हुए लगाम खींचने लगा। “अरे , अरे।मानता नहीं है, शैतान !” आख़िरकार उसने यह बेकार कोशिश छोड़ दी और शान्त हो गया। बड़ी देर तक चुप रहा और फिर अचानक पूछ लिया :

“ड्यूमा बन गई, सेठ साहब, या नहीं ?”

“बन गई।”

“और मकारव तो, कहते हैं, ज़िन्दा है,सिर्फ उसने बतलाने से मना किया है।”

कुज़्मा ने कंधे उचकाए : “शैतान ही जान, इन स्तेपी के दिमाग़ों में क्या भरा है ! और सम्पदा भी कैसी !” गाड़ी के नंग़े फ़र्श पर टाट से ढँके फूस के ढेर पर बड़ी तकलीफ़ से घुटनों को ऊपर उठाकर बैठे-बैठे सड़क की ओर देखते हुए उसने सोचा। काली मिट्टी क्या बढ़िया है ! रास्तों पर कीचड़ - नीली, गाढ़ी; पेड़ो, घास, बगीचों की हरियाली – गहरी, घनी।

मगर झोंपड़ियाँ – मिट्टी की छोटी-छोटी खाद की छतोंवाली। झोंपड़ियों के पास पानी के पीपे - दरारें पड़े हुए। उनमें भरे हुए पानी में निश्चय ही मेंढ़कों के अण्डे होंगे।यह रहा एक भरापूरा आँगन। धान कूटने के फ़र्श पर पुराना खलिहान। खलिहा , दरवाज़ा,झोंपड़ी - सभी कुछ कुटाई के बाद बचे हुए गेंहूँ की फूस से ढँकी छत के नीचे, झोंपड़ी ईंटों की, दो हिस्सों में बँटी हुई, दोनों ओर दीवारों पर खड़िया से डिज़ाइन बनी हुई थी : एक पर डण्डी और उसके ऊपर टहनियाँ-सी – देवदार के पेड़ जैैैैसी , दूसरी पर मुर्गे जैसा कुछ बना हुआ था; छोटी-छोटी खिड़कियाँ भी खड़िया से काढ़ी गई थीं। “कला !" कुज़्मा उदासी से मुस्कुराया, पाषाण युग, ख़ुदा ख़ैर करे, पाषाण युग !” ओसरी के दरवाज़े पर – सलीब के निशान,कोयले से बनाए गए, ड्योढ़ी के पास बड़ा-सा कब्र लगाने का पत्थर – ज़ाहिर, दादा या दादी कब्र में जाने की तैयारी कर रहे थे।हाँ, घर-बार ख़ुशहाल है। मगर चारों ओर घुटनों तक कीचड़ है,, ड्योढ़ी में सुअर लेटा है। खिड़कियाँ छोटी-छोटी और झोंपड़ी के रिहायशी हिस्सों मेें , शायद अँधेरा है, हमेशा जगह की तंगी रहती है, एक के ऊपर एक – शेल्फ जैसे बिस्तर, करघा, भारी-भरकम भट्ठी, साबुन के पानी से भरा बड़ा टब।और परिवार बड़ा है,, बच्चे बहुत सारे, सर्दियों में बकरियों और गायों के बछड़े।और नमी, धुँआ इतना कि हरे बादल की शक्ल में तैरता नज़र आए। बच्चे रिरियाते और सिर पर झापड़ खाकर गला फ़ाड़ने लगते, बहुएँ झगड़तीं – “तुझ पर गाज गिरे, कुतिया कहीं की !” एक–दूसरे को ईस्टर के दिन ‘गले में टुकड़ा अटक कर दम घुट जाने की ’ कामना करतीं। बुढ़िया सास हर घड़ी अपने पतले,, काले हाथों की आस्तीनें चढ़ाते हुए चिमटे , तश्तरियाँ फेंकती, बहुओं पर झपटती, ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ देती,, उन पर थूकती, बद्दुआएँ देती, कभी एक को, तो कभी दूसरी को।बूढ़ा भी खडूस और बीमार है , उसने अपनी हिदायतों और नसीहतों से हरेक की नाक में दम कर रखा है।

आगे चरागाह की ओर मुड़े। चरागाह में मेला लग रहा था। अभी से कहीं-कहीं तम्बुओं के लिए खूँटे गड़ गए थे, पहियों, मिट्टी के बर्तनों के ढेर लगा दिए गए थे, जल्दी-जल्दी बनाई गई वक्ती भट्ठी सुलग रही थी, मालपुओं की खुशबू आ रही थी, बंजारों की सफ़री गाड़ी धूसर प्रतीत हो रही थी और उनके पहियों के पास जंजीरों से बँधे हुए पहरेदार कुत्ते बैठे थे। आ, सरकारी शराबख़ाने के पास जवान लड़कियों और लड़कों का एक बड़ा झुण्ड खड़ा शोर-गुल हो रहा था।

“टहल रहे हैं लोग,” सोच में पड़े मेन्शोव ने कहा।

“किस ख़ुशी मे ?”कुज़्मा ने पूछ लिया।

“उम्मीद कर रहे हैं।”

“किस बात की ?”

“ज़ाहिर है, किस बात की, घर के जिन की !”

“ई S S ख !” भीड़ में से कोई पैरों की तेज़ खटखटाहट के बीच चीख़ा

“न बोना, न काटना।

लड़कियों के संग है जाना !”

छोटे कद का किसान, जो भीड़ के पीछे खड़ा था , अचानक हाथ नचाने लगा। उसकी हर चीज़ सलीकेदार थी, साफ़-सुथरी , टिकाऊ फूस के जूते और तंग पाजामा, और नई, मोटे कपड़े की पतलून,उसके पद्योव्का का (पद्योव्का – पुरुषों का लम्बा चुन्नटदार कोट – अनु।) एकदम छोटा, पीछे से छोटी पूँछ जैसा कटा हुआ, चुन्नटदार स्कर्ट, मोटे धूसर कपड़े का बना हुआ। वह अचानक हौले से और लचीलेपन से अपने फूस के जूते खटखटाते हुए , हाथ फैलाए, ऊँची आवाज़ में चिल्लाया : “दूर हट,सेठ को देखने दे !” भीड़ के फ़ैलते हुए घेरे में कूदकर उसने फुर्ती से अपनी पतलून को हिलाना शुरू कर दिया एक लम्बे नौजवान छोकरे के सामने , जो हैट नीचे किए, शैतानियत से अपने जूतों को घुमा रहा था, घुमाते हुए उसने अपने काले पद्योव्का को अपने से दूर, अपनी नई फूलदार कमीज़ के ऊपर से निकालकर फेंक दिया। छोकरे का चेहरा उदास,निस्तेज और पसीने से लथपथ था।

“बेटे ! प्यारे !” हंगामे और खटखटाने की आवाज़ के बीच बाँहे फ़ैलाए एक बुढ़िया विलाप करते हुए ची “बहुत हो चुका, रुक जा, ख़ुदा के लिए ! मेरे दुलारे,रुक जा, मर जाएगा !”

बेटे ने अचानक सिर को झटके से पीछे किया, मुट्ठियाँ और दाँत भींचे और क्रोधित चेहरे से पैरों को खटखटाते हुए चीख़ा :

“शSS , दादी, कूको नहीं।”

“उसने अपना आख़िरी कपड़ा भी इसकी ख़ातिर बेच डाला ,” मेन्शोव ने चरागाह से गुज़रते हुए कहा, बेतहाशा प्यार करती है वह इसे, बेवा है, और यह करीब-करीब हर रोज़ उसे पीटता है , शराबी…शायद इसी काबिल है।”      

“यह कैसे ‘इसी काबिल’ है” ? कुज़्मा ने पूछा।

“और ऐसों को।मुँह ही न लगा।”

एक झोंपड़ी के पास बेंच पर एक लम्बा आदमी बैठा था ,बेहतर तो कब्र में ही होता : पैर ऊँचे जूतों में यूँ खड़े हैं जैसे डण्डे हो, बड़े-बड़े निष्प्राण हाथ , जीर्ण पतलून पर, नुकीले घुटनों पर निश्चल पड़े हैं। माथे पर बूढ़ों जैसे अंदाज़ में टोपी खिंची है, आँखें वेदनापूर्ण याचना करती हुईं, दुबला-पतला अमानवीय चेहरा खिंचा हुआ, होंठ राख जैसे, अधर खुले।

“यह बिजूखा है,” मेन्शोव ने कहा, बीमार की ओर इशारा करते हुए, “पेट के दर्द से मर रहा है, दूसरा साल है।”

“बिजूखा ? ये क्या – तख़ल्लुस है ?

“तख़ल्लुस।”

“बेवकूफ़ी !” कुज़्मा ने कहा।

उसने मुँह फ़ेर लिया जिससे अगली झोंपड़ी के पास छोटी लड़की को न देखे। वह, पीछे की ओर झुकी , हाथों में बन्द टोपी पहने बच्चे को पकड़े,गाड़ी में जा रहे लोगों को एकटक देखती रही और ज़ुबान निकाले , काली ब्रेड का टुकड़ा उस पर रखे जुगाली करती रही,बच्चे के लिए चूसना तैयार कर रही थी। अंतिम खलिहान में विलो वृक्ष हवा के कारण गुनगुना रहे थे, खेत में खड़ा किया हुआ पुतला उन्हें छूता हूँ, अपने खाली हाथ हिला रहा था। खलिहान, जो स्तेपी में खुलता है, हमेशा असुविधाजनक, ऊबाऊ होता है, और ऊपर से उसमें यह पुतला, शिशिर के बादल, जिनसे हर चीज़ पर निलाई-सी छा गई थी और खेत से हवा सीटी-सी बजाती काँटेदार जंगली, कड़वी झाड़ियों से भरे खुले खलिहान की ज़मीन पर भटकती मुर्गियों की पूँछे फुलाती।


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